बिन्नू! बिन्नू! चिल्लाते हुए भैय्या की अम्माँ रोए जा रही थी। उनके रोने का स्वर किसी अपने के खोने को जाहिर कर रहा था। क्योंकि दुःख का संगीत हमेशा अवरोह से शुरू होकर आरोह पर आता है और रुदन जब नाभ की जड़ से निकले तो समझ जाइएगा कि कोई अपना ही प्यारा हुआ है, ईश्वर को। शक़, सही था। मायके के गाँव की दूर की मौसी की लड़की की, शांत-सी लड़की, हमेशा के लिए ईश्वर की शांतिदूत हो चुकी थी। लेकिन इतनी दूरी में भी, अम्माँ से बहुत नज़दीकी थी,उस रिश्ते की।
अम्माँ चिल्लाकर बोलीं-बिन्नू! देखो तो उताएँ, महेन की बहू को का हो गओ।
बिन्नू की उधर से ही आवाज़ आई-काए, का हो गाओ!
लेकिन अम्माँ के स्वर से उपजी घबराहट में, बिन्नू ऊपर की बालकनी से बाहर के मैदान (जो अब आँगन का आकार ले चुका था) में झाँकने लगी।
अपनी माँ को चुप कराते हुए बार-बार यही कह रही थी- मोंग जाओ अम्माँ। मत रोओ।
लेकिन अम्माँ गहरी पीड़ा में थीं। उतनी ही गहरी, जितनी समुन्दर की गहराई होती है। जो केवल महसूस की जा सकती है। नंगी आँखों से नहीं दिखती। क्योंकि संवेदनाएँ मन और मस्तिष्क के संयुक्त उद्वेलन से निकलती हैं। आनंद और पीड़ा समझो जैसे जुड़वां भाई-बहन हों। दोनों में गहराई एक-सी होती है। उथला तो दुःख और सुख होता है, समुद्र की लहरों सा।
वो उदास मन से सोचने लगी। उसके मन की बातें तभी बाहर निकलती हैं। कभी तेज़ स्वर तो कभी धीमे में, अपनी बात जैसे पड़ोस तक पहुँचाने की कोशिश कर रही थी।
“दुनिया में पूरे दिल वाले इत्ते लोग भरे हैं। लेकिन इंसान कहलाने लायक, बित्तौ भर भी ना हैं। इन लोगन के दिलन में छेद ही छेद भरे। जैसे कोई छन्नी हो।”
“बाहर से खपसूरत (ख़ूबसूरत) दिखने बालन को दिल, भीतर से कित्तो जरो(जला हुआ) है, तब पतो चलत, जब मुसीबत में अपने सग्गन के हाथ मदद के लाने ना उठत।”
“नासपीटे होत ऐसन। काए जनम लेत, कौन जाने”
अम्माँ की आँखों से आँसू रुकने का नाम न ले रहे थे। हवा की रफ़्तार से ख़बर आस-पड़ोस तक पहुँच गई। हाथी की रफ़्तार से वे लोग-बाग भी आ गये।
एम्बुलेंस के अंदर से उतरती हुई, बर्फ़ की मोटी-सी सिल्ली पर, वो शांत होकर सो रही थी। बरफ़ की सिल्ली पर, ठंडी बर्फ़-सी, फूली हुई काया। बिल्कुल ग़ुब्बारे जैसी। उतनी ही ठंडक, भीतर महेन के घर थी। गरमाहट केवल अम्माँ के यहाँ थी। इसलिए उस निर्जीव शरीर की सिसकियाँ भी अम्माँ को ही सुनाई दे रही थीं।
ठंडक और गरमाहट का, अपनत्व से, बहुत गहरा रिश्ता होता है। ठंडा दिमाग़ और गरम दिल, दिलों को जोड़े रखते हैं। उलटे पड़ जाएँ तो रिश्तों की खटास कम करने, ब्रह्म भी कान पकड़ेंगे। ऐसे लोगों को समझ देने में, वे भी दस गज पीछे ही रहते हैं।
उस ग़मगीन माहौल में, भैया पूछ बैठा, अम्माँ! जब हम लोग बर्फ़ पर पाँव रखते, तो कैसो छप जात। लेकिन इस सिल्ली को देखो तना। जिज्जी, बा पे सोई हुई है, फिर भी बैसी की बैसी है। नीचे से तो पानी चू रओ। लेकिन ऊपर से उसकी बॉडी काए नै छपी।
अम्माँ बुदबुदाते हुए बोली! कैसे छपे है। बा तो खुदई बरप (बर्फ़) बनी है। सरीर ठंडो परो बा को। चली गई छोड़कर। गर्मी काँ से आवेगी। आदमियन की गरमी होत। मुर्दा ठंडई राआत ना।
देखो, ओ! महेन, तुम जे का कर के ले आए, हैं। अब तुमाए चाचा ले आं हें, बा को बापिस? जम के (यम के) भैंसन को सानी-पानी बेई करत का? अपनी लुगाई खां तो गाँव में चूल्हे में गपा दओ। और इते बहू को जो कर दओ।अम्माँ बालकनी से ही ग़ुस्से में चिल्लाकर बात कर रही थी।
तुम काए के लाने गए हथे, संगे। जोई करने??
काए नयी भेज दओ बा दिना। तुमाई लुगाई के बाबूजी आए तो हते,लैबे के लाने। लेकिन तुम तौ मुँह में पुडिया भरै बैठे रये। बस चबर-चबर चबावे के अलावा तुमाओ मूँह तो खुलतई नयी।
बा दिना तुमने, चाचा की नयी सुनने हती।
दाएँ, बायें तो मुँह खोलत फिरत। अपनी बहू को बचावे के लाने खोल लेते, तने। सादी(शादी) काए खों करी तुमने, हैं। सरम (शर्म) नई आउत तुमे। बड़े भोले बने फिरत। हमें भी मालूम तुमाई असलियत।
फिर ख़ुद को सम्भालते हुए, एक टक, उसे ऊपर बालकनी से ही देखती रही। बहुत दुखी थी वो। भैय्या के बाबूजी से भी लड़ पड़ी थी, उस दिन।
काए सुन रये हो, बिन्नू के बाबू! बा दिना हम कात रये तुमसे,के जाकर बे चौधरी साब से बात कल्लेओ। पर तुम तो अपनी अकड़ में हते। सच में, हमें इत्ती ग़ुस्सा आ रई बा पे। ऐसो लग रओ, का कर डारे बा को। का ग़लती हती बा बिन्नू की। आदमियन की जात ही ऐसई होत। काऊ की न सुनते। अपनो-अपनो चलात।
आलोकीराम, बाबूजी के बहुत अच्छे दोस्त थे। हाँ थे। सही सुना। ना, ना, मरे नहीं हैं। अभी ज़िंदा हैं। फिर भी दोस्त के नाम पर भूत हैं।
पूरा बंगला दोनों ने मिलकर ख़रीदा था। एक के बस का नहीं था, ख़रीदना। पार्टी का टिकट भी तो मिलजुलकर ही ख़रीदा जाता है। उम्मीदवार जब सांसद या विधायक हो जाता है तब देने वाले दूसरे रूप में वसूली कर ही लेते हैं। ये बात वो लोग अच्छी तरह जानते हैं और इसीलिए टिकट ख़रीदी में अपना योगदान देते हैं। लेकिन यहाँ मामला कुछ अलग था। क्योंकि दोनों का ही मालिकाना हक़ था, प्रोपर्टी पर।
बंगले की किश्त चुकाने के लिए बाबूजी ने किरायेदार भी रखे थे। किराए से घर चलता। नौकरी की तनख़्वाह से किश्त भरी जाती। ईमानदार नौकरी पेशा इसी तरह अपना घर चलाता है। गाँव की ज़मीन बेचकर शुरूवाती एक मुश्त दे दी थी। बाक़ी की रक़म इधर-उधर से जोड़ ली गई। उन्हें तभी सुकून मिलता जब सारी उधारी चुकता कर लेते। आलोकीराम का अन्दाज़ इससे जुदा था। पैसे वापिस करने में उसका क़तई विश्वास नहीं था। उसका मानना था कि कोई भी बेफ़िजूल मदद नहीं करता। बदले में वो काफ़ी कुछ चाहता है। आख़िर नेतई सोच आम आदमी की सोच से इतर तो होगी ही।
किरायेदार वैसे ही रहते जैसे पूरा बंगला उनका अपना हो। बाहरी यदि न जानता हो तो मकान मालिक और किरायेदार में फ़र्क़ ही न कर पाए। बहुत ख़ुश रहते सब। बाहर बड़ा-सा मैदान था। जहाँ सबके बच्चे ख़ूब खेला करते। वहीं कॉलोनी में अपनी,गप्पबाज़ी के लिए बदनाम, औरतों का अड्डा भी हुआ करता। शाम को सभी अपने-अपने ग्रुप में मस्त रहते।न न,,, व्हाट्सएप ग्रुप नहीं थे तब,,,। असली की यारी-दोस्ती थी। इमोशंस आँखों के रास्ते दिल में घुसते थे। कुछ सुख-दुःख की बातें, कुछ मस्ती। अच्छा था, गैजेट्स का जन्म नहीं हुआ था। इसलिए अपने-पराए में अंतर नहीं करते थे, कोई। पड़ोस की गर्भवती की पूरे समय देखरेख, उस घर की बड़ी बुज़ुर्ग महिलाएँ वैसी ही करती जैसे ख़ुद की बेटी-बहू हो। पड़ोसी केवल पड़ोस धर्म ही नहीं निभाते, घर के सदस्य की तरह थे। उतना ही अपनापन, प्रेम। कितने ही लोग इस प्रेम से जल चुके थे। उन्हें कहाँ पुसाता था, इतना अपनत्व देखना। शायद उनके जीवन में सद्भाव और प्रेम का सूखा पड़ा हो।
बंगले में आलोकीराम के प्रवेश करते ही, खिलखिलाता बंगला सन्नाटे भरे किसी हॉरर मूवी के बंगले में तब्दील हो जाता। दरअसल उसके साथ आने वाले चेले चपाटे, इज्जतों की बस्ती में जैसे उजड्डों का हस्तक्षेप होता। इसके बावजूद, आलोकीराम को सभी इज़्ज़त बख़्शते। इसलिए बाबूजी के घर सारे दोस्त यार बैठकर गप्प लगाते। चर्चा शुरू होती तो तीन-चार घंटे कहाँ चले जाते, पता ही नहीं चलता। लेकिन महिलाओं को ज़रूर पता चलता। उनकी गप्पबाज़ी पर किसी का अधिकार उन्हें सहन नहीं हो सकता।
नज़र ही लग गई जैसे उस अड्डे को। अलाएँ-बालाएँ ख़ुशियों पर ही अटैक करती हैं। ख़ुशी बर्दाश्त करने वाले कम जो बचे,,,।दुःख तो फिर भी बाँट सकते हैं। लेकिन ख़ुशियों को दिल में ही गिरवी रखना पड़ता है। ख़ुशियाँ बाँटने से कम होने लगी हैं, आजकल।
महेन की शादी होने के बाद पता नहीं किस बात पर लड़ाई हुई। बाबूजी और आलोकीराम के दिलों की क्रेक पड़ी दीवार, मैदान के बीचों-बीच खड़ी हो गई। तब से बहुत गहरा सन्नाटा पसर चुका था, वहाँ। इधर वाले इधर के और उधर वाले उधर के हो गए। खिलखिलाने वाला बंगला, भूतिया बनने में, उसी दीवार का हाथ था। भित्ति है ही ऐसी चीज़ जो कब इंसानियत पर वार कर दे, किसी को नहीं पता। कितने ही इतिहास बने बिगड़े इस दीवार के कारण। दिमाग़ का एक शक़ काफ़ी होता है,इसे बनाने में।
आलोकीराम ऐसे तो सीधा और सादा दिखता। पहनावे में सफ़ारी सूट उसकी पसंद थी। वो भी नीला। शायद दाग़ छुपाने के लिए सफेद पहनने से परहेज़ करता था। ठेठ नेताओं से अलग पोशाक थी उसकी। शक्ल पर बिना मूँछ का तांव भी था। क्योंकि रस्म के मुताबिक़ नेता का ज़्यादा पढ़ा-लिखा होना उसके व्यक्तित्व को कमज़ोर करता है। फिर भी डॉक्टरेट की डिग्री उसके लिटरेट होने का सबूत थी। जबकि नेता बनने की ऐसी कोई शर्त नहीं है। रुआब के बूते, डिग्री मोल भी ली जा सकती है। जहाँ दबंगई बिकाऊ बनाती है, वहीं टैलेंट कमाने का ज़रिया होता है।
और वो ठहरा गाँव के ज़मींदार परिवार से। चौधरी की चौधराहट पूरे गाँव में न चले तो उसकी हालत बिना सींग वाले साँड़ जैसी होती है। और यों कहें कि उस तांव का यहाँ ज़मींदार और नेता का मिलाजुला रूप दिखता। तभी तो उसकी एंबेसडर गाड़ी जब उसके गाँव से निकलती, तो सारी महिलाएँ घर के अंदर घुस जाती। आदमी उसे सलाम करते चलते। हालाँकि वैसा आदमी नहीं था वो। मतलब आँखें ठहरती थीं एक जगह। राजनीति में ऐसी आँखें, नेतई आँखों पर धब्बा होती हैं। ज़मींदारों में ये कुछ अनोखेलाल टाइप ही था। गाँव की लड़की, बहू, बेटियाँ ख़राब नज़र वालों को अक्सर उसका उदाहरण देतीं। वरना ऐसे रसूखदारों की खबरें, हमेशा उलटी ही सुनने मिलती हैं।
इसी रुआब के बूते साडा अध्यक्ष की कुर्सी पर जम गया था। पूरे पाँच साल टिक भी गया। कुर्सी पाने के लिए राजधानी में महीनों काट चुका था। कुछ लौंडे-लफाड़ों को लेकर पड़ा रहता, पार्टी कार्यालय के गेस्ट हाउस में। सुनने में आया था कि विधायक का टिकट लेने कितने ही महीने वहीं जमा हुआ था। लेकिन साफ़ सुथरी आँखों की वजह से टिकट से हाथ धोने पड़े थे। एक दो कांड कर लेता तो उसी के दम पर टिकट मिल जाता। जब नहीं मिला तो इस कुर्सी के लिए डटे रहे। पैरों में पड़े हुए गिड़गिड़ाने की मेहनत रास आई। नतीजतन कुर्सी हाथ लग गई।
राजनीति में अपनी-अपनी भीड़ दिखाना बहुत ज़रूरी है। उन लड़कों की ड्यूटी भी यही थी। कमरे में पड़े रहकर मुफ़्त की दवा-दारू-मुर्ग़-खर्चा-पानी सब मिलता रहता। पैसों की नदियाँ गाँव में थी जिससे उसे कभी सूखे से नहीं निबटना होता। कुर्सी हथियाने की पहली प्राथमिकता ही पैसा है। और इसी के दम पर पार्टी में वर्चस्व की भीड़ इकट्ठा होती है। इसके लिए रक़म भी पानी जैसी ही बहानी पड़ती है। ख़ुद कोई कांड भले न कर पाए। लेकिन उन लौंड़ो को पैसा ऐसे ही कर्म करने का मिलता है। एक बार कुर्सी पर जमने के बाद पानी में बही रक़म को चार गुना ज़्यादा बनाना आसान होता है।
ऊँचे ओहदे वाले पढ़े-लिखे अफ़सर, सभी उसे कमर झुकाकर नब्बे डिग्री पर सलाम ठोंकते। कुर्सी को हर कोई जुमानता है। आम हो या ख़ास। उनकी अकड़ी हुई रीढ़, कुर्सी के समने मुड़ने लगती है। उसमें स्प्रिंग का भाव जागृत होने में ज़रा भी देर नहीं लगती। कभी-कभी बेपेंदा भी हो जाती है।
बहू भी ऐसे ही एक भीषण रौबदार के घर से लाए थे। मतलब भतीजेमहेन की लुगाई। चाचा-भतीजा देखकर आए थे, उसे। महेन अपने चाचा का बायाँ, दायाँ दोनों हाथ था।
हैसियत दिखाने के चक्कर में नक़्क़ाशी की नगरी से ख़ास तरह के सोने के ज़ेवर ऑर्डर किए। ऑर्डर कुछ लाखों रुपयों का था। लेकिन उसके अपने जेब पर कौन-सा भार पड़ रहा था!! जिन्हें फ़ाइव स्टार होटल, सलून, ब्राण्डेड एसेसरीज़ खोलने के लाइसेंस पास करने थे, उनके लिए ये हल्का और छोटा बिल था। बड़े बिलों में रहने वाले, छोटे बिलों की चिंता नहीं करते। बड़े बिलों के बाप उनकी चिंता करते हैं।
घर की परम्परा तोड़ने के लिए उनके बब्बा मतलब आलोकीराम के पिताजी खासे ग़ुस्सा थे। बब्बा का ग़ुस्सा भी जगज़ाहिर था। इन्होंने बाहर से ज़ेवर ख़रीदने की नई परम्परा जो चला दी थी।
तभी बब्बा चिल्लाए- बा डांक्टर पगलाए गओ है का। स्साले एक खींच के दें का कान के नीचे!
इत्ते सालन से जो चलो आ रओ बे बिगारन के लाने कौन ने कै दओ तुमसे! मति मर गई बा की। ऐसो लगत, लड़की बालन ने कछु खिला दओ। बौराए हुए सो घूम रओ, पागल घाईं। अभी तक सभी शादियों में घर में रखे हुए ज़ेवर ही पहनाए। उन पर किसी एक का अधिकार न था। सबकी मिली जुली प्रॉपर्टी थी। आलोकीराम ने नई प्रोपर्टी ख़रीदकर एक अलग मुद्दा खड़ा कर दिया था। लेकिन रौब के आगे मुद्दे चूँ-चपड़ नहीं करते। बस मौन क़ाबिज़ रहता है। बब्बा भी उसी मौन के चलते आलोकीराम से ज़्यादा दिन नाराज़ भी न रह पाए। उसकी कुर्सी की वजह से गाँव में, बब्बा की शान में बढ़ोत्तरी जो हुई थी।
महेन की शादी हुई। लगा ही नहीं कि दो रौबदारों के बीच संबंध हुआ है। कोई मान-मनव्वल या रुसवे-फुगवे हुए बिना ही शादी संपन्न हो गई। न कैश दिखा, न दहेज। दुनिया का आठवाँ अजूबा जैसे वहीं दिखा हो। लोगों ने इस विवाह की इतनी तारीफ़ की कि उन दोनों परिवारों के मुखियाओं को साधु का दर्जा दे दिया। बस वे संत का ओहदा पाते-पाते रह गए। अब कोई बैंक अकाउंट तो चेक करने से रहा। कोई आरटीआई लगाता तो पता चलता कि लाखों रुपयों का लेन-देन किस खाते से हुआ है। लेकिन शेर के पिंजरे में हाथ डालकर शामत किसे बुलवानी थी। जब पैसा बोलता है तब मुँह से चूँ भी नहीं निकलती। चारों तरफ़ चुप्पी लग जाती है।
ड्राइंग रूम के सजावटी सामान मतलब चाचा के पाले हुए चंगु-मंगू बड़ी शान से चौड़े होकर पड़े रहते। उनके स्वागत सत्कार का पूरा दारोमदार बहू पर ही था। वे लोग महेन से फ़रमाइश करते। और वो जाकर अपनी बीवी को बनाने के लिए कह देता। महेन भी कुछ न कहता। आख़िर उसे भी तो अपने ख़र्चे-पानी, हैसियत (भले दो कौड़ी की न हो) की फ़िकर थी।
तीन माह गुज़रे थे, शादी को। एक दिन बहू को साँस लेने में दिक़्क़त हुई। लगा जैसे दमा का झटका है।हाँफती हुई सरकार सा। दिखने में किसी फ़िल्मी हीरोइन से कम कहाँ थी। अच्छी लम्बी-चौड़ी ख़ूबसूरत। पढ़ी-लिखी थी। अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल करती थी, बोलते समय। सभी समझ जाते कि बहू लिखी-पढ़ी है। लेकिन घमंड ज़रा भी न था।जब साँस ज़्यादा उखड़ने लगी तो बड़े शहर दिखाने ले गए। उम्मीद से थी बेचारी। और डॉक्टर ने बच्चा गिराने की सलाह दे डाली। संग चाचा थे। वो क्या कहती। १८ साल की लड़की की हिम्मत, अपने ससुर के सामने बात करने की न थी। या फिर यों कहें कि उसे बोलने का मौक़ा ही न दिया। बच्चा गिराने के पीछे का कारण पूछने की भी हिम्मत नहीं थी, उसमें।
अगले ही पल वो एक बार डॉक्टर, तो एक बार महेन का मुँह ताकती। ससुर से आँख मिलाने का सवाल ही नहीं था। और पति का मुँह अब भी गुटखे की पीक से भरा हुआ था। ख़ुद को बेसहारा पाकर, अपनी भावनाओं को दबाना उसने सही समझा। दुःख के पहाड़ गिरना अभी शुरू ही हुए थे। एकाएक छप्पर फाड़कर टपक पड़े।
हमारे देश में सारी गंभीर और ज़रूरी बातों को समझने और निर्णय लेने का अधिकार केवल पुरुषों को है। भले ही वह बातें, औरतों के बारे में हों। जिसकी कोख सूनी होने वाली थी, उसे कोई अधिकार नहीं था जानने का। क्योंकि बच्चे पर अधिकार बाप का है। इसलिए अंतिम निर्णय भी वही करता है। उसके अपने पति ने ख़ुद के पास बिठाकर पूरी बात समझाने की कोशिश भी नहीं की थी। जबकि उस समय उसे केवल प्यार और विश्वास की ज़रूरत थी। जो उसे ढूँढने से भी नहीं दिख रहा था। बच्चा सही सलामत गिरा दिया गया।
अभी कोख सूनी ही हुई थी कि डॉक्टर ने उस पर एक और दुःख का बम गिरा दिया। उसके चूर-चूर होने की आवाज़ को केवल वही सुन पा रही थी। बाक़ी सब तो दुःख मनाने में व्यस्त थे कि किसका मुँह देखकर शादी की। घर का कुलदीपक था। लेकिन उस लड़की पर कौन-सा पहाड़ आकर टूट रहा था, किसी ने देखने की कोशिश भी नहीं की।
अफ़वाह चली कि महेन दूसरी लड़की देखकर आया था और शादी दूसरी से करा दी। उस समय गाँवों में इस तरह की अफ़वाहों का बहुत चलन था। दहेज कम मिला हो, अपने लड़के की कमियों को छुपाना हो, दहेज का लालच बढ़ता ही जा रहा हो या फिर परिवार का कोई दबाव हो तो इस तरह की अफ़वाहें उन्हें मज़बूत होने में साथ देती थीं। उड़ते-उड़ते अफ़वाह के पंख इतने खुल गए कि सीधे उसके माँ-बाप को ही लपेटे में लेकर दोषी बना दिया। इतना तक कह दिया कि उसके दिल में सुराग़ है, इसका पता था, उन्हें। और हमें ठेल दी। जिससे बाक़ी लड़कियों से भी आसानी से छुटकारा मिल सके। दरअसल लड़कियाँ, ठेलने वाली और छुटकारा पाने वाली चीज़ ही होती हैं।
ख़ूब समझाया बाबूजी ने अपने दोस्त को। नहीं समझे। एक दिन कह पड़े! तुम मेरे घर के मामलों में दख़ल देने वाले होते कौन हो? जबकि बाबूजी तो ये कहने गए थे कि सरकारी तैयारियों में देर लगेगी। हम प्राइवेट इलाज करा लेते हैं। कुछ पैसे तो हम सब मिलकर भी दे देंगे। लेकिन अकड़ में आदमी अपनी आदमियत ताक पर रखता है। आलोकीराम ने उसी अकड़ में आकर बीच में दीवार खड़ी की थी।
एक दिन पता चला कि डॉक्टर का अपॉंट्मेंट मिल गया है। चलो देर से ही सही, मिला तो। मिलते मिलते, और तीन महीने गुज़र चुके थे। देर आयद दुरुस्त आयद भी नहीं कह सकते थे। क्योंकि दिल का सुराग़ भी तीन माह बड़ा हो गया था। बहू तो अब बिस्तर पकड़ चुकी थी। लेकिन उसे आस थी कि वो अपनी गृहस्थी दुबारा खड़ी करेगी। बड़े शहर जाकर एक महीना हो चुका था।
ख़बरें आ रही थी कि बढ़िया गेस्ट हाउस मिला है, रहने के लिए। डॉक्टर भी आते-जाते सलाम ठोकते हैं। अस्पताल में वीआईपी व्यवस्था करवा दी है। आख़िर, दम का ख़म ही तो दिखाना था। यही तो वजह थी इतनी लम्बी वेटिंग लिस्ट में अर्जेंट कहते हुए जगह पाने की।
प्राइवेट में पैसे भी ख़र्च हो जाते। अपनी हैसियत की प्रदर्शनी भी न लगा पाते, चार लोगों को दिखाने। तब उनकी कुर्सी उन्हें जम के धिक्कारती। पता तो था ही कि बचने वाली है नहीं, बहू। क्या मतलब था इतना पैसा लगाने का? कम से कम रुआब ही बचा लिया अपना। बड़े लड्डू फूट रहे थे मुँह से, ये सब बताते हुए। बहू की सजी हुई डोली भी नहीं निकाली आख़िर में। ये कहकर कि सालों ने हमाए साथ धोखा किया। महेन तब भी कुछ नहीं बोला। गाँव के किसी ज़मींदार की लड़की से अगले ही महीने दूसरी शादी भी करा दी। कुछ दिनों बाद पता चला कि वो बच्चा नहीं जन सकती थी।
कुछ साल बीत गए। समय कभी एक-सा नहीं रहता। उसके करवट की भनक तक लगना नामुमकिन है। अम्माँ अपनी बहू को बता रही थी कि महेन अब पागलखाने में भर्ती है। नयी बहू ने दहेज प्रताड़ना का केस किया हुआ था। आलोकीराम ने पूरा पैसा, पॉवर का इस्तेमाल करके मामला रफ़ा-दफ़ा करवाया। लेकिन वो उसके बाद से अपनी कुर्सी कभी नहीं संभाल सका।
उसकी पोस्ट और हैसियत की टाँय-टाँय फ़िस्स हो चुकी थी।
अम्माँ उस दिन बाबूजी को धन्यवाद कर रही थी। पाँच मौड़ियन के बाद भैय्या भये। लेकिन तुमने तो अपनी बहू को भी बिन्नुअन जित्तो ही प्यार और अधिकार दओ। सब तुमाए जैसे ना होत हैं।