1.
आसमान की साफ़-शफ्फाक सड़क पर उन रूई के गोलों में जैसे एक सुन्दर सा द्वार खुल गया | शायद स्वर्ग का द्वार ! और उसमें से एक सुन्दर ,युवा चेहरा झाँकने लगा,उसने देखा चेहरे ने अपना हाथ आगे की ओर किया जिसमें से रक्त टपकता हुआ एक गाढ़ी लकीर सी बनाने लगा ,उसका दिल काँप उठा| हालांकि वह इस दृश्य की साक्षी नहीं थी लेकिन यह भी इतना ही सच था कि वह दृश्य बारंबार उसकी आँखों के सपाट धरातल को बाध्य करता कि वह उसकी साक्षी बने !उसका मन वृद्ध होते हुए शरीर के साथ कॉप-काँप उठता |कुछ ही देर में हाथ से टपकते हुए रक्त का कोई निशान न रहा,न जाने अचानक कहाँ ग़ायब हो गया और केवल चंपा का मुस्कुराता चेहरा उसके सामने खिल उठा |
‘पहाड़न माँ जी का चेहरा!’फिर से बिन बुलाए अतिथि की भांति प्रवेश कर गईं थीं वे! सामने से कटे हुए हाथ के ग़ायब हो जाने पर उसे अब यह सब अच्छा लगने लगा | मीलों दूर की लंबी यात्रा कर हारे-थके पथिक को जैसे किसी घने पेड़ की छाँव मिल जाए या चलते –चलते किसी मुसाफिर को बेहद प्यास लगने पर कोई प्याऊ दिखाई दे जाए, कुछ ऐसे !
“बाबू जी !” उसने उनकी आवाज़ सुनी और चहककर अपनी विस्मित आँखें आसमानी पटल के उस छोर पर गडा दीं जहाँ से आवाज़ का कंपन उसे छूने लगा था |अरे ! वह तो बिलकुल भूल ही गई कि उम्र के जिस पायदान पर खड़ी है,वहाँ से उसके लिए उस अनजाने,अनपहचाने द्वार में प्रविष्ट होने में कुछ अधिक समय नहीं है |लेकिन न जाने कैसे वह पाँच-सात वर्ष की नन्ही बच्ची में परिवर्तित होती जा रही थी और आकाशी द्वार से झाँकता खूबसूरत चेहरा उसका हाथ पकड़कर उन गलियों में ले जाने लगा था जिनमें से निकले हुए उसे न जाने कितना लंबा समय व्यतीत हो चुका था,इस समय कोई व्यथित कर देने वाला दृश्य नहीं था ,वह न जाने किस भावलोक में विचरण करने लगी ! कितना अजीब होता है न मनुष्य का मन ! पल में तोला,पल में माशा ! वह सच में अपने आपको एक नन्ही बच्ची महसूस कर रही थी,गुलाबी स्मोकिंग वाली घेरदार फ्रॉक पहने, घने बालों की दो चोटियाँ लटकाए जिनमें गुलाबी रंग के रिबिन से फूल बनाए गये थे ! वह एक सुन्दर,प्यारी शैतान बच्ची थी जिसमें किसी को भी अपनी ओर आकृष्ट कर लेने की ज़बरदस्त जन्मजात प्रतिभा थी |
उसके लंबे बालों से भी एक कहानी जुड़ी थी | उसकी माँ ने उसके बाल कटवा दिए थे ,घने सुन्दर घुंघराले बालों में उसका चेहरा बहुत प्यारा लगता ,बिलकुल किसी सम्मोहित करने वाली जादूगरनी का सा ,बिलकुल भोला –भाला और बातें ! वे तो और भी मोह लेने वाली ! तभी तो पहाड़न माँ जी ने अपने मसीहा ‘बाबू जी’ का नाम उसे यूँ ही चलते-फिरते दे दिया था जिनके बारे में लोग बेकार की अफलातून बातें उड़ाते रहते थे | जहाँ उसकी नानी का घर था वहीं एक अंग्रेज़ी स्कूल खुला था जिसमें एक युवती अध्यापिका थीं रमा सूद !वह नानी के छज्जे पर खड़ी होकर सूद टीचर को स्कूल के अहाते में आते –जाते देखती | छोटी सी थी पर नज़र खूब तेज़! सूद टीचर की दो लंबी चोटियों ने उसे सम्मोहित कर रखा था |लंबी,छरहरी सूद टीचर की चोटियों जैसी सुन्दर, सफाई से बनी चोटियाँ उसने किसी की भी नहीं देखी थीं | उसने उनकी चोटी का कभी भी एक भी बाल चोटी से निकला हुआ नहीं देखा था | कम उम्र की लड़की सी गोरी-चिट्टी मिस सूद की सुंदर,सफाई से बनी चोटियों ने मानो उसके ऊपर कोई जादू कर रखा था | वह स्कूल के खुलने के समय और स्कूल के बंद होने के समय नानी के छज्जे पर जाने की ज़िद करती | जब उससे इसका कारण पूछा गया तब उसने बताया कि उसे मिस सूद के जैसी चोटियाँ बनवानी हैं|न जाने कितनी बार उसने अपनी माँ और नानी को दिखाकर वैसी चोटियाँ बनाने की ज़िद की थी,यहाँ तक कि एक-दो बार तो वह जमीन पर भी लोटपोट हो गई मगर कटे हुए बालों को माँ कैसे दो चोटियों में संवारती ? कठिन था लेकिन उसकी जिद के आगे जैसे-तैसे करके दो चोटियों का बनना शुरू हुआ ,घुंघराले बालों में चोटियाँ बहुत कठिनाई से बन पातीं और बाल फूसड़ों की तरह झांकते हुए चुगली कर रहे होते | कोई चारा न पाकर माँ ने उसकी चोटियाँ बनानी शुरू कर दी थीं ,वे तेल-पानी को मिलाकर उसके बाल सीधे करने का प्रयास करतीं लेकिन घुंघराले बालों का सीधा होना इतना आसान कहाँ था | धीरे-धीरे साल भर में उसके बाल इतने लंबे हुए कि दो–चार अलबेटे देकर बालों को चोटी के आकार में बनाया जा सके| वह बड़ी होती रही ,बाल लंबे घने होते रहे और चोटियाँ बरक़रार रहीं लेकिन घुंघराले बालों में मिस सूद के जैसी सफाई वाली चोटियाँ बनवाने का उसका प्यारा,भोला सा स्वप्न कभी पूरा न हो सका | हाँ,उसकी चोटियाँ दिन ब दिन लंबी ज़रूर होती रहीं |अब वह उन्हें अपने फ्रॉक के रंग के रीबनों से सजा हुआ देखकर प्रसन्न हो सकती थी |
2.
कितने-कितने भटकाव ! यह तो तब की बात है जब वह कुछ बड़ी होने लगी थी लेकिन चंपा तो उसकी शिशु-अवस्था से ही उसके जीवन का अंश बन चुकी थी |वर्तमान की चादर में स्थित भूत के आगोश में लिपटी बच्ची पहाड़न माँ जी का हाथ पकड़े न जाने कितनी लंबाई पार करती जा रही थी | बालकनी में खड़ी प्रौढ़ा ने बच्ची में तब्दील होकर अपने आपको धूप-छांह सी आकृति के सुपुर्द कर दिया |बादलों के उस रूई जैसे बने घर,स्वर्ग या नर्क जो कुछ भी था उसके द्वार से कभी उसे वह आकृति झाँकती दिखाई देती तो कभी न जाने कहाँ लोप हो जाती | कई बार उसके चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया जिसे उसने काँपते हाथों से पोंछने का प्रयास किया,आखिर वह स्वयं ही तो छोटी बच्ची के रूप में बादलों के द्वार में लुक-छिप रही थी | अब फिर से बादलों के रुई वाले घर में से चेहरा झाँका,मुस्कुराते हुए चेहरे ने स्मोकिंग की गुलाबी फ्रॉक पहने छोटी बच्ची को उसके सामने कर दिया | उसे बेहद तसल्ली हो आई ,वह छोटी बच्ची उसके सामने थी जिसके चेहरे पर सलोनी धूप सी मुस्कराहट खिली जा रही थी| अब बार-बार लुक-छिप जाने वाली उस आकृति के हाथ से रक्त नहीं निकल रहा था |
वे उसकी पहाड़न माँ जी थीं ! नाम था उनका चंपा ! खूबसूरती की एक बेमिसाल शख्सियत ! श्वेत धवल लिबास में वे ऎसी तरंगित होतीं जैसे कोई सफ़ेद फूल यकायक खिल गया हो लेकिन उनका भाग्य ! जैसे विधाता ने अपने आप खड़े रहकर रत्ती-रत्ती भर जगह पर सुईंयां बिछा रखी हों,कोई स्थान सूईं रहित रह तो नहीं गया ? तराशी गई मूरत सी चंपा कभी–कभी एक ऐसे पुराने बुत में बदलने लगती जैसे किसी ने पुरानी बेजान मिट्टी को तोड़-मरोड़कर उसके चेहरे पर पोतकर उसे ऊबड़-खाबड़ करने का प्रयास किया हो |जो कुछ भी हो वे उसे देखते ही वे ताज़ा फूल सी खिल उठतीं और उनके चेहरे पर नूर पसर जाता | पहले वे उसे उसके घर के नाम से गुड्डी पुकारती थीं जैसे और सब लोग कहते थे बाद में वेउसे ‘बाबू जी’ पुकारने लगीं थीं,अपने ‘वकील बाबू’के अवसान के पश्चात |
माँ बताती थीं चंपा को लाने वाले उनके घर के पास ही रहने वाले शहर के एक उच्च कोटि के नामी-गिरामी वकील साहब थे जिनकी पास ही में एक बड़ी सी कोठी थी | लगभग हज़ार गज़ में फैली हुई कोठी जितनी बाहर से खूबसूरत थी,उतनी ही अन्दर से शानदार ! लोग वकील साहब की कोठी में बाहर के लोहे वाले बड़े से मजबूत दरवाज़े की झिर्रियों में से झाँक-झाँककर जाया करते | छोटे से शहर में ऎसी बड़ी कोठियाँ उंगली पर गिन सको उतनी ही थीं,पाँच-सात —बस !
3.
चंपा की दर्दीली दास्तान उससे ऐसे चिपक गई थी जैसे फेविकोल या फिर गोंद की चिपचिपाहट !यह शुरू शुरू की बात है जब वह यहाँ लाई गईं थी | बाद में वह उस चिपकन में रहने की आदी हो गईं थी | हाँ,वह लाई गई थी,अपने आप नहीं आई थी | उसके जीवन में वह उसकी नन्ही सी अवस्था में ही आ गई थी|उस छोटे शहर के गणमान्य बड़े वकील साहब ने उसे अपने साथ लाकर उसके प्रति अहसान तो कर दिया था लेकिन उसकी आबरू न बन सके थे | उन्होंने उसे एक किराए के कमरे में सजा दिया था,एक छोटा सा कमरा जो कमरे के नाम पर कोठरी कहा जा सकता था और उससे सटी रसोई नाम की एक दूसरी कोठरी ! जिसके बाहर बिलकुल पतला-दुबला सा एक छज्जा होता था जिसमें शायद बमुश्किल एक छोटा मूढा घुसाया जा सकता हो| पर वे खुश थीं ,माँ बताती थीं |ज़िंदगी के ताने-बानों में उलझी माँ भी अपने जीवन में किसी विशेष सुख से रूबरू नहीं हो सकी थीं | इस सुख के न भोग पाने के प्रत्येक के जीवन में अनेक कारण होते हैं | माँ के पास भी अनेक कारण हुआ करते थे,उन्होंने कई बच्चों को जन्म देकर उसे देखा था जिसकी उम्मीद भी शायद वे छोड़ चुकी थीं | उसका मुख देखकर उसकी दुबली-पतली माँ जीया करती लेकिन वह छोटी थी,उन सभी कारणों से ,उनकी पीड़ा से अनभिज्ञ,अपनी मस्ती में मस्त ! अपनी दो चोटियों को लहराते हुए इधर से उधर नाचती-छलांगें लगाती |
जब वह थोड़ी बड़ी होने लगी माँ ने उसे बताया कि चंपा की खूबसूरती से आसपास के सब लोग परेशान रहने लगे थे |सबसे पहले तो वकील साहब का परिवार वहाँ आकर चिल्लपों कर गया जिनकी दृष्टि में चंपा रंडी थी और उसने मासूम रईस वकील साहब पर डोरे डालकर उन्हें अपने मोहपाश में फँसा लिया था|इस खुलासे से आस-पास के तमाम सभ्य व आदरणीय सज्जन निवासियों के दिल की धड़कनें ताल पर थिरकने लगी थीं|जिधर चंपा का छोटा सा छज्जा खुलता ,उधर की ओर कई रिहायशी मकानों के पिछवाड़े भी थे जिनके मुख्य द्वार आगे की ओर सड़क पर थे किन्तु पीछे का भाग उसी गली की ओर था जिसमें से चंपा का बेचारा सा निवास दिखाई देता |चंपा के आने के बाद अब उन घरों के पिछवाड़े की वर्षों से बंद खिड़कियाँ भी खुलनी शुरू हो गई थीं | चंपा के पास कोई अलग से गुसलखाना तो था नहीं ,वह अपनी उस कोठरी को ही रसोई की भांति इस्तेमाल करती और उसीके कोने को नहाने के लिए भी, जहाँ एक कोने में छोटी सी नाली बना दी गई थी जो पिछवाड़े की छोटी गली में टपकती रहती थी |हाँ! टाट के पर्दे को लटकाकर कमरे के आगे वाले भाग के एक ओर छोटे से खाली स्थान पर उसके लिए एक खुड्डी बनवा दी गई थी जिसका पाईप नीचे वालों के ‘लैट्रीन’के पाईप से जुड़वा दिया गया था |वकील साहब काम के सिलसिले में व्यस्त रहते वे अपने कर्तव्य को भली-भांति समझते थे और चंपा के खाने-पीने तथा आवश्यकताओं के लिए धन की व्यवस्था करवा देते थे | अक्सर उनका मुंशी चंपा को धन व खाद्य-सामग्री आदि पहुंचा जाता और उनके परिवार-जन चंपा को खरी-खोटी सुनाने के लिए वहाँ कभी भी धमककर उसका तमाशा बना देते | फूल सी नाज़ुक चंपा नजरें नीची किए उन सबकी गुनाहगार बनी अपनी सुन्दर आँखों के बेशकीमती मोतियों को धरती पर टपकाती रहती,जिन्हें समेटने वाला कोई भी न होता |
4.
गुड्डी की माँ एक अध्यापिका थीं ,अन्य लोगों से कुछ अधिक समझदार और संवेदनशील ! उनके कमरे से एक लंबा,संकरा छज्जा चंपा पहाड़न की रसोई तक जाता , वह एक भाग से दूसरे भाग में ऐसे जुड़ा हुआ था जैसे एक ही घर के दो भाग हों | छुट्टी के दिन माँ की दृष्टि भी अपने पीछे के दरवाज़े से चंपा की कोठरी पर चिपकी रहती | आते-जाते वे चंपा पर ऐसे दृष्टि रखतीं मानो कोतवाल हों और उन्हें यह ‘ड्यूटी’ सौंपी गई हो कि उस खूबसूरत कातिल पर दृष्टि रखी जाए | उसे तो क्या मालूम ? वह तो बिलकुल नन्ही सी थी,इत्ती सी !माँ के साथ ही कभी कभी नानी भी आ मिलतीं जो कुछ ही दूरी पर नये खुले अंग्रेज़ी स्कूल के सामने रहती थीं |दोनों का ध्यान चंपा के क्रिया-कलापों पर ही होता|सुकुमारी सी चंपा नवयौवन के भार से अपनी लज्जायुक्त दृष्टि झुकाए कभी कोने में बने चूल्हे पर अपने लिए रोटी बनाती दिखाई देती तो कभी झाडू लगाती या फिर बर्तन मांजती | पानी के लिए उसे उस संकरे से छज्जे से होकर गुड्डी की माँ के कमरे के सामने से गुज़रना होता था तब कहीं उसे हाथ के नल से खींचकर एक बालटी पानी मिलता | वह संतुष्ट थी ,सहज भी होने लगी थी|वह समझने लगी थी कि उसकी वही नियति है,अपनी स्थिति से परिचित थी और वकील बाबू के द्वारा किए गए अहसान के बदले वह वकील बाबू की कृतज्ञ थी और उन्हें किसी भी प्रकार के पशोपेश में नहीं डालना चाहती थी |
अठारह-उन्नीस वर्ष की चंपा शहर के किसी सलीके से परिचित नहीं थी |यद्धपि हमारे देशभक्तों की कुर्बानियों से देश आज़ाद होने के पूरे आसार थे किन्तु यह तो तथ्य था ही कि अंग्रेजों का प्रभुत्व लोगों पर बुरी प्रकार हावी था | ये अंग्रेज़ अपनी अंग्रेजियत को भुनाने के प्रयास में रत रहते थे | अपने भोग-विलास के दुष्कृत्यों से पहाड़ों पर निवास करने वाली भोली-भाली घास काटने जाती खूबसूरत नवयौवनाओं को किसी न किसी प्रकार अपने लपेटे में ले ही लेते थे |ज़माना उनके प्रभुत्व से बरी होने की फ़िराक में था किन्तु बरी नहीं हुआ था! अधिकांश सीधे-सादे लोग उनकी गोरी चमड़ी व रौब-दाब के सामने अपने आपको हीन समझते,उनसे घबराते व उनके घोड़ों के टापों की आवाज़ से अपनी मासूम बेटियों को छिपाने की कोशिश करते किन्तु अक्सर उनकी बेटियाँ उनसे छिन ही जातीं ,ऎसी ही एक पहाड़न ग्रामीण बाला चंपा भी थी |अंग्रेज़ शासन ने गरीब, मासूम लोगों को एक दहशत से भर रखा था |
जहाँ एक ओर देशभक्तों व अंग्रेजों में रस्साकशी चल रही थी,वहीँ दूसरी ओर संभ्रांत कहा जाने वाला एक वर्ग उनकी मित्रता में गर्व महसूस करता था |अंग्रेज़ मित्रों के साथ घूमना-फिरना ,शराब व नृत्य की महफ़िलों में गुलछर्रे उड़ाना,भोग-विलास —आदि-आदि इस वर्ग के लिए प्रतिष्ठा की बात थी |बहुधा ये तथाकथित भारतीय अंग्रेज़ अपने मज़े के लिए अंग्रेज़ मित्रों के साथ शिकार पर निकल जाते| साथ ही हिन्दुस्तानी सेवकों की भारी संख्या होती जो इनके घोड़ों की देखभाल करने से लेकर रात्रि में सोने की गर्माहट तक का प्रबंध बहुत कुशलता से करते और इनके बचे-खुचे टुकड़ों के साथ ही लात-घूँसों से भी अपना पेट भरते |चंपा के देवता वकील साहब के भी कई अंग्रेज़ मित्र थे | शहर के नामी वकील तो थे ही ,अंग्रेजों की कृपा से इन्हें कई गाँव भी ‘शाबासी’ में मिले थे,जैसे वे उनके बाप के हों और वकील साहब बहुत प्रसन्न !अंग्रेजों से मित्रता ! यानि शहर भर में इनके नाम का डंका ! उनका परिवार भी कुछ कम खुश न था | वकील साहब के अंग्रेज़ मित्र उनके घर में आते और आसपास रहने वाले लोग उनको ऐसे ताकते जैसे देवलोक से देवताओं का काफ़िला सीधा धरा पर उतर आया हो |
वकील साहब के परिवार की सारी परेशानी व पीड़ा चंपा के आने पर शुरू हुई| इस बार अपने अंग्रेज़ मित्रों के साथ वकील साहब टिहरी गढवाल की ओर गए थे | सदा की भांति शिकार के बाद थके-टूटे तथाकथित साहबों के लिए शराब ,शबाब का इंतजाम था | हर बार की भांति कई खूबसूरत नवयौवनाओं को छीन-झपटकर,उड़ाकर,उठाकर अथवा खरीदकर जबरदस्ती ले आया गया था जिन्हें उपभोग करने के बाद टूटी हुई वस्तु की भांति उनका मोल देकर छोड़ दिया जाता ,कभी कोई अधिक मन भाने पर साथ भी चलने के लिए बाध्य की जाती जिसको और कई साहबों को खुश करना पड़ता फिर पैसे-धेले से झोली भरकर वह वापिस वहीँ फेंक दी जाती जहाँ से ले जाई गई थी |‘रखैल’ का दर्ज़ा तो किसी किसी को ही नसीब हो पाता था |
5.
वकील साहब के अंग्रेज़ मित्र मि. जैक्सन भारतीय संगीत ,नृत्य व अन्य भारतीय कलाओं के प्रति बेहद संवेदनशील थे |वे वकील साहब के शौक से भली प्रकार परिचित हो चुके थे और इसी शौक के कारण उन दोनों की मित्रता परवान चढ़ी थी | दिल्ली आने पर वे उन्हें ‘सपना बाई’ के पास ठुमरी सुनाने ले जाया करते थे |जैक्सन के बाक़ी मित्रों को शराब व शबाब में रूचि थी,उनकी टोली में गोरों के साथ सांवले हिन्दुस्तानी भी थे जिन्हें मुफ़्त के मज़े लूटने की आदत पड़ चुकी थी और जब कभी जैक्सन का शिकार पर जाने वालों का काफ़िला दिल्ली से शुरू होता उसमें कई लोग ऐसे भी आ जुड़ते जिन्हें जैक्सन पसंद नहीं करते थे किन्तु उनको कई अन्य कारणों से बर्दाश्त करना पड़ता था | वे लोग अन्य गोरों की भांति शराब,शबाब में रचे-बसे रहते, उनका कला से दूर-दूर का कोई रिश्ता न था बस उनकी रूचि मुफ़्त के मज़े उड़ाने में होती थी |
जब मि. जैक्सन अपने मित्रों के काफिले के साथ शिकार के लिए निकले तब इस बार भी रास्ते में रुककर वकील साहब को अपने साथ जिद करके उनके शहर से उन्हें लेते गये | वकील साहब के बहुत नानुकर करने के उपरान्त भी जैक्सन न माने और उन्हें ठुमरी के नए ‘रेकार्ड्स’ दिखाकर बोले, “वकील साहब!आप जानते हैं हमारा शिकार और संगीत के अलावा कोई और शौक नहीं है | ये सारे लोग जब अपनी मस्ती में होंगे तब हम बोर होने वाले हैं | अबी तो दो दिनों का चुट्टी है ,आपका साथ बैठकर शास्त्रीय संगीत का आनन्द लेंगे —“जैक्सन वैसे तो अच्छी-खासी हिन्दी बोल लेते थे किन्तु जब कभी बहुत उत्साह में होते तब उनकी ज़ुबान से कुछ शब्द ऐसे ‘ट्विस्ट’ हो जाते कि सामने वाले के मुख पर मुस्कुराहट आ जाती , उनके हिन्दी बोलने का सलीका बहुत प्यारा था |
जैक्सन ने वकील साहब की एक न सुनी और जबरदस्ती मित्रता का वास्ता देकर अपने साथ घसीटकर ले ही गए |शिकार के बाद सभी नशे में धुत्त अपने–अपने टैंटों में‘फ्री’ की मस्ती में मग्न ! हर बार यही होता ,टैंटों के बाहर लटकी हुईं ‘पैट्रोमैक्स’ की भांति झप-झप करती बड़ी लालटेनें जो टैंटों के ऊपरी भाग में टांग दी जाती थीं ,एक अजीबोगरीब वातावरण तैयार कर देतीं | हलकी झप झप करती रोशनी में नौकरों के टैंट के बाहर सर्दी से मिमियाते से घोड़ों की दबी आवाजें रक्त में सनसनाहट भरने लगतीं और एक अंग्रेज़ तथा एक भारतीय मित्र अपने अलग टैंट में बैठकर शास्त्रीय संगीत में गुम हो जाते|इस बार भी वातावरण वही था ,वैसे ही शिकार से टूटे-थककर चूर ‘शिकारी गैंग’ के गोरे–काले हबस से भरे हुए मदिरा के नशे में पगलाए आसमानों में तैरते बनमानुष से लोग पहाड़ी-बालाओं के यौवन का मज़ा लूटने में लगे थे ,उन्हें दीन –दुनिया का होश कहाँ?
दोनों मित्र संगीत के सुरापान में आनन्दित थे | अचानक जैक्सन संगीत सुनते–सुनते उठे और अपने थैले में से वह नया रेकॉर्ड निकालने के लिए उदृत हुए जिसे सुनाने का वायदा करके वे वकील बाबू को अपने साथ घसीटकर लाए थे कि किसी की मद्धम सिसकियों ने उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया | टैंट की ज़रा सी झिर्री में से उन्होंने बाहर झाँकने का प्रयत्न किया लेकिन कुछ विशेष सुनाई नहीं दिया, जैसे ही वहाँ से हटने को हुए कि फिर से पीड़ा-भरी सिसकारी उनके कानों में पड़ी ,उनके आगे की ओर उठते हुए कदम वहीं थम से गए |
“ फ्रैंड ! समबडी इज़ इन ट्रबल —“
वकील साहब नेत्र मूंदे स्वर-लहरी में खोए थे ,जैक्सन की आवाज़ सुनकर वे संगीत के मधुर मोहपाश से बाहर निकले और एक प्रश्नवाचक दृष्टि बोलने वाले के मुख पर डाली | रेकार्ड समाप्ति की ओर था |
“ लेट अस गो एंड सी इफ़ वी कैन बी हेल्प —“ जैक्सन ने अपना टंगा हुआ ओवरकोट उतारा और अपने बदन पर चढ़ा लिया |
वकील साहब एक-दो पैग के बाद अब कहीं जाकर गरमाई महसूस कर रहे थे ,उन्हें उठने में जोर पड़ रहा था लेकिन उस अंग्रेज़ की तत्परता ने उन्हें बैठे नहीं रहने दिया | उठकर उन्होंने भी अपना ओवरकोट चढ़ाया ,पैरों में गर्म मोज़े घुटनों तक चढ़े थे ,उन्हें मोटे,भारी जूतों के हवाले किया और कानों पर गर्म मफलर लपेटते हुए जैक्सन के पीछे बाहर की सनसनाहट में निकल गए | जैक्सन ने टैंट में लटकी हुई लालटैन अपने हाथ में पकड़ ली थी |दोनों चुपचाप,दबे कदमों से सिसकारी वाली दिशा की ओर चल दिए |
पहाड़ियों के बीच छोटी-छोटी झाड़ियाँ उग आती थीं | पत्थरों की सन्न कर देने वाली शीत-लहर से झाड़ियों का कंपन मानो पूरे वातावरण में ठंडी बेहोशी पसरा जाता |उन्हीं उबड-खाबड़ पत्थरों पर कंटीली झाड़ियों के बीच से सुबकने वाली सिसकारी उन दोनों को अपनी ओर खींचकर ले गई | घने अँधेरे में एक हिलती-डुलती हिम समान गठरी को टटोलने पर सिसकारी अचानक बंद हो गई और गठरी का कंपन दुगुना हो गया | जैक्सन ने गठरी पर हाथ फिराया ;
“ओ माय गॉड !सी” उन्होंने उस हिलती हुई गठरी पर लालटैन की पूरी रोशनी उंडेल दी |अँधेरे में पूरी तरह चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था परन्तु यह स्पष्ट आभास हो रहा था कि वह एक युवा जिस्म था जो न जाने कितने घंटों पूर्व यहाँ फेंक दिया गया था|जैक्सन ने अपने हाथ की लालटैन वकील मित्र के हाथ में थमा दी और उन्हें रोशनी लेकर आगे चलने का इशारा कर गठरी को अपने हाथों में समेट लिया | जैक्सन चुप्पी साधे उस गठरी को अपने सीने से सटाए लंबे-लंबे डग भरते अपने टैंट में घुस गए और उसको बिस्तर में रखकर कई मोटे कंबलों से ढक दिया,वे स्वयं बुझती हुई आग में लकड़ी डालकर भरपूर गर्माहट का इंतजाम करने में व्यस्त हो गए | वकील बाबू उनकी सहृदयता व मानवीय निष्ठा से अभिभूत हो उठे थे | कुछ देर बाद कंपकपाती गठरी में कुछ हलचल हुई | वकील साहब कंबल के भीतर से ही उसके हाथ-पैर रगड़कर उस बेजान शरीर में गर्मी लाने का प्रयास कर रहे थे | लगभग घंटे भर बाद गठरी ने कराहकर आँखें खोलीं |यह एक खूबसूरत नवयौवना थी जिसका कंपन अब काफ़ी हद तक कम हो गया था किन्तु कभी-कभी सुबकियों के बीच नेत्रों की कोरों से रपटते गुमसुम आँसू उसकी पीड़ित व्यथ-कथा की कहानी सुना रहे थे |स्पष्ट था कि वह नाज़ुक देह मसली-कुचली गई थी |दोनों ने इस बारे में कोई बात करना मुनासिब नहीं समझा | जैक्सन नौकरों के टैंट में से अपने सबसे विश्वासपात्र नौकर को जगा लाए थे और उसे चाय बनाने का आदेश दे दिया गया था |रसोई बनाने वाले स्थान पर जाकर महतू कुछेक देर में ही चाय बनाकर केटली में भर खाली प्यालों सहित साहब के समक्ष उपस्थित हो गया|
शनै:शनै: सिमटी-सिकुड़ी गठरी लड़की में परिवर्तित होने लगी थी लेकिन उसकी स्थिति बहुत खराब थी,उसे बामुश्किल सहारा देकर उठाया गया और चाय का प्याला उसके मुख से लगाया गया | जैक्सन ने लड़की को इस प्रकार सहारा देकर बैठा रखा था मानो उसकी अपनी बच्ची हो | वकील बाबू की आँखों में बादल गहरा आए | लड़की बहुत घबराई हुई थी,अपने समक्ष बैठे दोनों पुरुषों की सदाशयता देखकर भी आशंका की लहर उसकी आँखों में उठ-गिर रही थीं|काँपते होठों से उसने चाय के कुछ घूँट भरे ,उसके चेहरे पर एक गरमाई की परत सी लरजने लगी |उसकी बेहतर होती हुई स्थिति को देखकर दोनों मित्रों की आँखों में एक प्रकार की संतुष्टि सी भरने लगी जैसे कोई पूजा सार्थक होने लगी हो |
“क्या नाम है ?” गोरे जैक्सन के पूछने पर लड़की चुप बनी रही ,न जाने उसके भीतर क्या चल रहा था ?
“घबराओ नहीं ,अपने बारे में कुछ बताओ तभी तो हम तुम्हारी सहायता कर सकेंगे |”
लड़की फिर भी चुप्पी साधे रही |
“भूख लग रही है ?” वकील बाबू के पूछने पर हलकी सी सुबक के साथ लड़की की आँखों की कोरों से फिर से पानी बहने लगा | भूख उसके हर अंग से टपक रही थी |
जैक्सन ने उठकर डिब्बे में से कुछ खाने की चीजें लड़की के सामने एक प्लेट में रख दीं लेकिन वह उन चीजों को घूरती रही ,शायद अपनी स्थिति से भयभीत हो रही थी मानो किसी बकरे को खिला-पिलाकर बलि के लिए ले जाया जाने वाला हो|
“ चिंता मत करो,खाओ | तुम बिलकुल सुरक्षित हो —” वकील बाबू ने उसे ढाढस बंधाया तब कहीं लड़की के हाथ धीरे से खाने की ओर बढ़े | वह बिस्किट इतनी शीघ्रता से मुह में ठूंसने लगी थी जिससे उसकी भूख का अंदाज़ा हो रहा था, वह काफ़ी लंबे समय की भूखी थी जिसका अहसास दोनों पुरुषों को पहले ही हो गया था |
लड़की कांपते हाथों से जल्दी जल्दी खाद्यपदार्थ अपने मुख में डालती रही,कुछ ऐसे जैसे उसके सामने से कोई उन खाने की वस्तुओं को उठाकर ले जाएगा |काफ़ी कुछ खा लेने के बाद अब वह थोड़ी स्वस्थ दिखाई देने लगी थी लेकिन उसकी आँखों में शंका के बादल अभी तक घिरे हुए थे,उसकी मासूम आँखों की कोरों में पानी भरा हुआ था और गोरे ,गुलाबी गालों पर काली,मटमैली सी लकीरों ने नक्शा सा बनाया हुआ था जिसे वह कभी कभी काँपते हाथों से छू लेती थी |
उसने एक साथ इतना कुछ अपने मुह में ठूंस लिया था कि उसे उल्टी सी होने लगी ,अपने मुख पर काँपता हाथ रखकर वह फिर से बहुत-बहुत असहज हो उठी | शायद बहुत समय बाद कुछ पेट में पड़ने की ऐंठन और घबराहट का मिलाजुला सा अहसास उसे घबराहट से भर रहा था | फिर वह बेहोश सी होने लगी और कुछ टेढ़ी-मेढ़ी सी स्थिति में पलंग पर पसर गई |
“शी नीड्स ए डॉक्टर —” जैक्सन बुदबुदाए और पास खड़े मह्तू से आस-पास के बारे में पूछताछ करने लगे |
“साहेब ! दूसरे गाँव में एक बैद जी रहते हैं ,नाथूराम बैद,वो बहुत मशहूर हैं यहाँ |”
“कितनी दूर है गाँव –?” जैक्सन ने पूछा |
“लगभग पन्द्रह मील तो होगा साहब !”
“ हूँ—“जैक्सन सोच में पड़ गए थे |
“फ्रैंड !एक काम हो सकता है | हम मह्तू को लेकर चलते हैं फिर आप लड़की को लेकर सुबह कहीं इसको ठिकाना दिलाने की कोशिश करना | मुझे नहीं लगता यह बिना दवाई के ठीक हो पाएगी | मैं आपके साथ चलता हूँ ,मह्तू के साथ वापिस आ जाऊंगा |”
6.
मह्तू जैक्सन साहब का विश्वासपात्र बावर्ची भी था और ड्राइवर भी | रात के अंधेरों में ऊबड़-खाबड़ रास्तों में से किस प्रकार गन्तव्य तक पहुँचा जा सकता है,वह बखूबी जानता था | यह सब तो ठीक परन्तु वकील साहब यह समझने में अपने आपको असफल पा रहे थे कि वे उस युवती को किसके पास और कहाँ ठिकाना दिला सकेंगे ? उनका अपना परिवार तो उसे अपने यहाँ स्वीकार नहीं करेगा तब ?यह भी समस्या थी कि यदि वे जैक्सन को मना कर देते हैं तब वह गोरा क्या सोचेगा कि इस हिन्दुस्तानी को अपने देश की लड़की के प्रति इतनी भी हमदर्दी नहीं है ? बेचारे पशोपेश में थे ,इस बार वे सचमुच फँस गये थे किन्तु बात अब उनके स्वाभिमान पर आ टिकी थी | उन्हें कुछ तो करना ही था |
“डोंट वरी अबाउट मनी ,आई विल अरेंज —” वकील साहब को बात और भी चुभ गई |
‘ये गोरे भी —क्या समझते हैं अपने आपको ,कहाँ से करेंगे अरेंज? हम भारतीयों के पैसे से ही न ? फिर वे स्वयं क्यों नहीं यह काम कर सकते ?’वे मन में बुदबुदाए |
“आप कुछ बोले ?”जैक्सन ने शायद उनकी बुदबुदाहट भांप ली थी |
“डोंट वरी मि.जैक्सन,आई विल अरेंज द मनी –”उन्होंने अपने स्वाभिमान की डोर पकड़े रखने की चेष्टा करते हुए जैक्सन को आश्वासन दिया | वैसे जैक्सन के चेहरे पर वास्तव में लड़की की चिंता पसरी हुई थी |
“आर यू श्योर —-?”
“ओ यस —“
रातों रात लड़की व वकील साहब को दूर गाँव में वैद जी के घर पर छोड़कर जैक्सन और मह्तू वापिस लौट गये | वापिस लौटते हुए जैक्सन ने वकील साहब को गले लगाया और उनकी दिलेरी पर उन्हें धन्यवाद देकर अपना कर्तव्य पूरा कर दिया | अब वकील साहब की बारी थी | वैद जी ने दो दिन अपने पास रखकर लड़की का इलाज़ किया और बाद में दवाईयाँ व कुछ लेपादि देकर उन्हें विदा किया | लड़की का गुप्तांग लहूलुहान था,बुरी प्रकार फट चुका था |
“ यह कभी माँ नहीं बन सकेगी –“ वैद जी ने वकील साहब से कहा |
वकील साहब को भला इस बात में क्या रूचि हो सकती थी ? वैद जी की बातें सुनते हुए वकील साहब सोच रहे थे ‘इसको लेकर कहाँ जाएंगे?’,उन्हें इस बात की चिंता खाए जा रही थी?
जब उन्हें कुछ और नहीं सूझा तब वे अपने ही शहर में लड़की को लेकर आ गए | दो-चार दिन घर पर रखा लेकिन स्वाभाविक था वहाँ उनकी पत्नी व बच्चों को उसका आना खटकता | लड़की ने रास्ते में अपना नाम चंपा बताया था | वकील साहब की इच्छा थी कि यदि वह अपना पता-ठिकाना बता देती तो उसके गाँव जाकर उसके घरवालों के सुपुर्द कर आते लेकिन उसने रोते-रोते बताया कि उसके सौतेले चाचा ने ही उसे गोरों के हाथ बेच दिया था जिन्होंने उसकी यह हालत बनाकर इस प्रकार मरने के लिए छोड़ दिया था,अब यदि वह घर गई भी तो उसे प्रताड़ना के अलावा कुछ नहीं मिलेगा | वह आप-बीती बयाँ करते हुए लगातार सुबकियाँ लेती रही थी और बार-बार उनसे प्रार्थना करती रही थी कि उसे चाहे कहीं छोड़ दें, उसके चाचा के पास न छोड़ें |
इस प्रकार चंपा उसके शहर में लाई गई थी |दो ही दिनों की खोज में वकील साहब ने उसके लिए वह ठिकाना ढूंढवा लिया था | लेकिन समाज के लोगों की दृष्टि में वह देह-व्यापार करने वाली रंडी थी,वैश्या थी जिसे देखकर वे और लोगों के सामने फिकरे कसते ,मुह बिचकाते,अपने घर की लड़कियों को उनसे दूर रखने के लिए ज़ोर-ज़ोर से चिंघाड़ते ,एक तमाशा सा बनाकर रख देते लेकिन मुह में उनके लार टपकती रहती और उनका बस चलता तो वे चंपा को कच्चा ही चबा जाते|समाज के ठेकेदार थे वे,कुछ भी कर सकते थे |कितना नीचे गिर जाता है मनुष्य !अपने आप ही कल्पना करके अपने आप ही परिणाम की घोषणा भी करने लगता है |
देश में जबर्दस्त स्वाधीनता-संग्राम की आँधी चल रही थी|गुड्डी की माँ एक अध्यापिका तो थीं ही,स्वतन्त्रता संग्राम से भी जुड़ी थीं |शहर में हर दूसरे दिन अंग्रेजों के विरुद्ध जुलूस में अन्य जागरूक स्त्रियों सहित गुड्डी की माँ भी शामिल होतीं |कुछेक दिनों में ही चंपा ने उसकी माँ का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया था | वह जानती थी कि समाज में उसके लिए कोई सम्मानीय स्थान नहीं है,यह भी जानती थी कि गुड्डी की माँ उसे व उसके कार्य-कलापों को छिप छिपकर देखती हैं किन्तु चंपा ने कभी न तो उस बात को मन से लगाया कि लोग क्या कहते हैं ,न इस बात पर अधिक ध्यान दिया कि उसकी जासूसी की जाती है | वह अपने आपको एक स्वस्थ तरीके से जीने की राह दिखाने की चेष्टा में लगी रही,ज़िंदगी पाने पर वह एक सकारात्मक सोच की ओर बढती रही ,बिलकुल कीचड़ के कमल की भांति |हाँ! वह अंग्रेजों के प्रति बहुत असंवेदनशील व कठोर बनी रही जबकि वह इस बात से भिज्ञ थी कि उसकी जान बचाने वाला भी पहले एक अंग्रेज़ ही था,वकील बाबू तो उसी अंग्रेज़ के कहने पर उसे लेकर आए थे |गुड्डी की माँ श्रीमती माया देवी शनै: शनै: चंपा की दिनचर्या से प्रभावित होने लगीं थीं |उन्हीं दिनों शहर में स्वामी दयानन्द के विचारों के प्रभाव के फलस्वरूप शहर में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना हुई जिसको समाज के शिक्षित वर्ग ने सराहा था ,यह वर्ग स्वामी दयानन्द के विचारों पर चलने का प्रयास कर रहा था | अध्यापिका माया देवी का परिवार आर्यसमाज में बहुत उत्साह से जुड़ गया | माया ने अब उस ‘बेचारी’ सी युवा लड़की के बारे में गंभीरता से सोचा और समाज को ताक पर रखकर उन्होंने चंपा को अपने साथ आर्यसमाज में चलने का निमन्त्रण दे डाला |
कई दिनों तक चंपा चुप्पी साधे रही,समाज में बाहर निकलने का,लोगों से मिलने का उसका साहस ही नहीं होता था | वह जिन नीच,अभद्र शब्दों को कान बंद करके ,आँखें नीची करके अपने भीतर उतारती रहती थी,उन्हीं शब्दों ने उसके बाहर निकलने के द्वार पर पहरे बैठा रखे थे ,संकोच की दीवार खड़ी कर रखी थी | समाज के बेहूदे ठेकेदारों के मुख से निसृत गलीज शब्दों ने उसके भीतर उसके अपने लिए एक हिकारत भर दी थी जिसमें लिपटकर वह एक बेचारी सी ‘चीज़’ बनकर रह गई थी जिसे जीवन पर्यन्त एक कोने में पड़ा रहना था | गुड्डी की माँ उसके पशोपेश की स्थिति को बखूबी समझती थी | यूँ तो पास ही में रहने वाली गुड्डी की नानी भी आर्यसमाज की चुस्त ,उत्साही सदस्या थीं किन्तु चंपा उनकी आँख में भी किरकिरी बनकर चुभती ,वे उसे स्वीकार करने में स्वयं को असमर्थ पा रही थीं | विशेषकर वे इस बात को लेकर परेशान व अनमनी हो जातीं जब देखतीं कि उनकी अध्यापिका बेटी माया अपनी एकमात्र बच्ची यानि गुड्डी को ‘उसके’ पास जाने की छूट देने लगी थी |जब चंपा उसकी माँ के कमरे के बाहर वाली संकरी गैलरी के बाहर से गुज़रकर अपने लिए नल पर पानी भरने जाती गुड्डी अपनी आया की नज़रों से छिपकर चुपचाप घुटनों चलकर उसके पीछे-पीछे हो लेती |अपनी कोठरीनुमा रसोई में जब बाल्टी रखकर वह पीछे मुड़कर देखती उसे एक नन्हा सा मुस्कुराता हुआ फूल दिखाई देता,जिसे वह इधर-उधर देखकर झट से अपने सीने से चिपका लेती | गुड्डी को भी जैसे उसकी गोदी में स्वर्ग का आभास होता और वह खिलखिलाकर हँसने लगती| आया कई बार गुड्डी को उससे छीनकर ले आई थी ,चंपा के मुख पर जैसे कोई तमाचे मार जाता,फिर वह माया से उसकी शिकायत करती |
सात-आठ माह की घुटनों के बल पर चलना सीखने वाली बच्ची को क्या समझाया जा सकता था ?माया आया से ही कहतीं;
“मैं तो कॉलेज में होती हूँ,बच्ची का ध्यान तो तुम्हें रखना है |” आया ‘हाँ’ में सिर तो हिलाती परन्तु उसके पास अपने बढ़ई दोस्त से कहाँ फुर्सत होती थी?जैसे ही माया घर से कॉलेज के लिए निकलतीं ,गंगा का दोस्त आ धमकता और फिर मज़ेदार चाय–नाश्ता होता,हलुआ बनाया जाता जिसमें से कुछ गुड्डी को भी चटा दिया जाता |आया की नजरें बचाकर बच्ची कब चंपा की कोठरी में जा घुसती,किसीको पता ही नहीं चलता |इस प्रकार चंपा और बच्ची में धीरे-धीरे ताल-मेल बैठ गया था,चंपा उसे स्वयं न बुलाती परन्तु उसकी प्रतीक्षा अवश्य करती रहती थी,उसकी दृष्टि माया के कमरे के दरवाज़े पर ही गड़ी रहती,कभी-कभी वह आया को उसके मित्र के साथ ग़लत तरीके से चूमा-चाटी करते देख लेती और उसे आया पर क्रोध आने लगता |जब माया ने उसे अपने साथ आर्य समाज में जोड़ लिया तब वह माया के साथ कुछ सहज हुई और धीरे-धीरे उसने माया से गंगादेई के बारे में बात करनी शुरू की |
7.
माया को एक-दो बार और लोगों ने भी सचेत किया था किन्तु वह पूरी तरह से उस पर विश्वास करती थी ,उसे लगता लगभग पचपन वर्ष से ऊपर की गंगादेई, जिसके दो बड़े-बड़े भरपूर मर्द बेटे थे और न जाने कितने नाती-पोते भी ,इन सब बातों में क्योंपड़ेगी?माया को उसकी ज़रुरत थी,कई वर्षों से वह उस घर में थी,गुड्डी के पिता गंगादेई को न जाने कहाँ से बहुत खोज-बीनकर लाए थे,वर्ष भर में ही उन्हें काल ने अपना ग्रास बना लिया था अत: माया के मन में गंगादेई के प्रति एक नाज़ुक सा भाव बना हुआ था | माँ के ऊपर वह अपनी पुत्री का उत्तरदायित्व छोड़कर उन्हें उस बंधन में नहीं बाँधना चाहती थी जिसमें से वे अब छूट चुकी थीं |
माया के पिता के स्वर्गवास के पश्चात जब माँ की इच्छा होती वे हरिद्वार आश्रम में जाकर रहतीं जहाँ उन्होंने अपना एक छोटा सा निवास बना लिया था ,जब इच्छा होती अपने घर वापिस लौट आतीं जहाँ उनके बच्चे रहते थे,रहती वे शुरू से ही अलग थीं और अपने मनमाफिक जीवन जीना चाहती थीं | गुड्डी माया की आठवीं सन्तान थी ,इससे पहले उसके बच्चे बचते ही नहीं थे सो इस बच्ची के प्रति कुछ अधिक ही संवेदनशील थे सब|वह अपनी दुर्लभ बच्ची के लिए एक स्वस्थ वातावरण बनाना चाहती थी ,पर हो कुछ और ही रहा था |
साल भर में चंपा माया से खूब हिल-मिल गई न जाने कब और किन क्षणों में गुड्डी ने उसे ‘तंपा माँ’ कहना शुरू कर दिया |बड़ी स्वाभाविक स्थितियों में बच्ची की ज़िम्मेदारी चंपा ने अपने ऊपर ले ली थी |माया को धीरे-धीरे चंपा के गुणों का परिचय स्वत: ही होने लगा | वह बहुत विनम्र,मितभाषिनी एवं सुबुद्धिशालिनी थी |माया अपनी बच्ची को चंपा के सुपुर्द करके काफ़ी हल्की रहने लगी थी |पहले चंपा केवल गढ़वाली मिश्रित हिन्दी बोलती थी तथा काफ़ी कठिनाई से जोड़-जोड़कर हिन्दी पढ़ सकती थी किन्तु आर्यसमाज से जुड़ने के पश्चात उसने हिन्दी पढ़ने,बोलने के साथ संस्कृत के श्लोकों को इतनी शीघ्रता से कंठस्थ किया था कि लोगों ने दाँतों में ऊंगली दबा ली थी| आर्यसमाज में पहले जहाँ उसे हेय दृष्टि से देखा जाता,वहीं साल भर में वहाँ के संयोजकों द्वारा उसे बुलाकर यज्ञ में बैठने का निमन्त्रण दिया जाने लगा |यह वास्तव में कमाल ही था,चंपा ने इतनी शीघ्रता से भाषा को पकड़ा था कि सब आश्चर्यचकित हो गए थे |बुद्धिमत्ता किसी की थाती नहीं होती,बुद्धि ईश्वरप्रदत्त है किन्तु उसको किस प्रकार माँजना है,यह मनुष्य के अपने ऊपर निर्भर है,चंपा इसकी मिसाल थी |
चंपा ने अपनी बुद्धि को प्रयोग के द्वारा घिस-घिसकर पैना कर लिया था जिसका इस्तेमाल वह बहुत सोच-समझकर करती थी| भोली-भाली गाँव की पहाड़ी युवती चंपा को अब सब ऊंच-नीच समझ में आने लगा था और अपने चारों ओर के लोगों को वह बहुत भली प्रकार पहचानने लगी थी किन्तु उसने अपने होंठ सिलने सीखे थे ,वह अपनी स्थिति को सदा बहुत अच्छी प्रकार समझती तथा सजग बनी रहती थी |
अनेक प्रयत्नों व बलिदानों के प्रयास स्वरूप भारत में स्वतन्त्रता रूपी मशाल जली थी | तब तक गुड्डी साल भर की होने लगी थी | चंपा गुड्डी को अपनी बाहों में भरकर कहती ;
“ये ,हमारी गुड्डी रानी लेकर आई है स्वतन्त्रता की मशाल ! अब हम इसे कभी बुझने न देंगे |” जैसे उस छोटी सी बच्ची ने न जाने स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए कितनी कुर्बानियां दी हों |
कुछ ही दिनों में चंपा की एक प्रतिष्ठा स्थापित हो गई लेकिन समाज का आम आदमी क्यों छोड़ता चंपा को ? उसके निर्लज्ज ठेकेदारों के लिए तो वह उपयोग व हिकारत की वस्तु मात्र ही थी | भारत के स्वतन्त्र होने पर वातावरण में एक चहक भर उठी,लोग स्वतन्त्रता की पवन के झकोरों से आनन्दित हो उठे | समाज में कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें स्वतन्त्रता से कुछ मतलब नहीं था उनकी कुंठित मानसिकता जहाँ चिपकी हुई थी ,वह वहीं पर चिपकी रही |समाज के तथाकथित ठेकेदारों के कुंठित मस्तिष्क संकरी साँकलों में कैद थे,वे अपनी मानसिक जेल से बाहर आना ही नहीं चाहते थे| उनके लिए समाज में एक मर्द था और मर्द को औरत को खसोटने का परमात्मा द्वारा प्रदत्त अधिकार था ,उसी में वे मज़े लूट सकते थे |सोच बदल लेते तो ‘मनुष्य’ न बन जाते ?
शनै: शनै: चंपा व गुड्डी की मित्रता गहराती गई | माया उसे अब चंपा के साथ आर्यसमाज भी भेज देती जहाँ से वह सौदा-सुलफ़ करके गुड्डी की ऊंगली पकडे हुए लौटती | इसी बीच चंपा को नर्क से उबारने वाले देवता स्वरूप वकील साहब का स्वर्गवास हो गया | अंग्रेजों के पिट्ठू इस परिवार की अब वह स्थिति नहीं रह गई जो वकील साहब के समय में थी, वकील साहब के तीनों बेटे अपनी ज़ायदाद बेचकर अपनी माँ के साथ बड़े शहरों में चले गए |चंपा के लिए वकील साहब ने डाकखाने में कुछ धन जमा किया हुआ था,वह किसी न किसी प्रकार उसीमें से ही अपना गुज़ारा चलाती | माया ने गंगादेई को अपने घर से निकाल दिया था वह चंपा की कट्टर दुश्मन बन गई थी और समाज में उसके बारे में नीच बातें फ़ैलाने लगी थी| एक दूसरी महरी को रख लिया गया था ,घर के अन्य कार्यों में चंपा माया की सहायता करने लगी |माया चंपा को कुछ द्रव्य देकर अपने आपको हल्का महसूस करती | माया को अपनी बच्ची की सुरक्षा के लिए अब अधिक सोचना नहीं पड़ता था | चंपा प्रतिदिन यज्ञ करती और गुड्डी उसके पास बैठकर उसकी सहभागी बनती | बच्ची ने अनजाने में ही न जाने कितने सुन्दर संस्कार चंपा से ग्रहण किये थे | समाज के बेहूदे लोगों की बकबक का प्रभाव न तो चंपा पर पड़ रहा था ,न ही माया पर | बड़ी होती गुड्डी के लिए ‘तंपा माँ’ अब ‘माँ जी’ बन गई थीं | एक उसे जन्म देने वाली अम्मा थीं तो एक जसोदा की भांति उसका पालन करने वाली माँ जी,उसके दोनों हाथों में लड्डू थे |दोनों की स्नेहपूर्ण देखरेख में वह बड़ी होती रही,दोनों माएं उसके जीवन की हर ऋतु में उस पर अपनी स्नेह रूपी छाया बनाए रखतीं | कब स्कूल से निकलकर गुड्डी ने कॉलेज के प्रांगण में प्रवेश लिया,कुछ पता ही नहीं चला |दिन पँख लगाकर उड़ रहे थे |उधर चंपा जैसे-जैसे प्रौढ़ होने लगी ,एक सौम्य निखराव से उसका व्यक्तित्व खिलने लगा |
गुड्डी के लिए घर-वर की खोज प्रारंभ हुई और चंपा की उदासी के दिनों का प्रारंभ ! अक्सर वह आँखों में आँसू भर लाती ;
“मेरी ज़िंदगी तो मेरे बाबूजी के इर्द-गिर्द ही घूमती है —”
“तुम्हारे बाबूजी का ब्याह तो करना पड़ेगा —” आँसू भरी आँखों से माया अपनी गर्दन ‘हाँ’ में हिलाती पर उदास बनी रहती |
समय के अनुसार सब काम सुनिश्चित हैं,ज़िंदगी के जिस कोने को हम पकड़ना चाहते हैं,ज़रूरी नहीं कि उसे पकड़ ही लें | न जाने कौनसा सिरा हाथों में आ जाता है और न जाने कौनसा सिरा छूट जाता है | हम तो केवल उस सिरे के साथ जूझते रह जाते हैं जो हमारे हाथों में अटक जाता है |माया की माँ अपने मन के अनुसार कभी आश्रम जाकर रहतीं ,जैसे-जैसे उम्र बढती जा रही थी उनका आश्रम में रहना अधिक होने लगा था | गुड्डी के ब्याह के बाद तो उन्होंने इधर आना काफ़ी कम कर दिया|हाँ !जब-जब गुड्डी अपने बच्चों को लेकर माँ के घर आती तब वे अवश्य ही आश्रम से अपनी नई पीढ़ी से मिलने आतीं | उन्होंने वानप्रस्थ ले लिया था लेकिन मोह था कि उन्हें अपने पड़धेवते-धेवती की ओर खींचता ही रहता,वानप्रस्थ के सारे नियम भंग होने लगते|अब वे चंपा से भी इतनी विमुख नहीं रहती थीं,फिर भी एक दूरी बनाए रखना वे ज़रूरी समझतीं | कुछ दिनों बाद उनका भी स्वर्गवास हो गया |
8.
चंपा अब लगभग पैंतालीस वर्ष की होने को आई थी,उसका यज्ञादि का नित्य कर्म वैसे ही चलता लेकिन गुड्डी के विवाह के पश्चात वह फिर से बंद कोठरी के एकाकीपन से जूझने लगी थी| हाँ ! माया का साथ हर प्रकार से उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण था |उन दिनों फ़ोन आदि की अधिक सुविधा न होने के कारण चिट्ठियाँ लिखी जातीं | माँ के ममतापूर्ण स्नेहमय शब्दों में चंपा माँ की लोरियों की गूँज सुनाई देती,चंपा हर चिट्ठी में उसे अपना प्यार-दुलार अवश्य प्रेषित करती |
गुड्डी के पति एक बड़े सरकारी संस्थान में कार्यरत थे |कुछ वर्षों के पश्चात उनका दिल्ली से बंबई तबादला हो गया और स्थानीय दूरियाँ और बढ़ गईं | उनको बंबई में निवास के साथ फोन,गाड़ी आदि की सुविधा भी प्राप्त होने लगी | माँ हर दूसरे–चौथे दिन पास के डाकघर में जाकर अपनी बेटी व नाती-नातिन से बात करतीं व अपने कॉलेज तथा शहर की दास्तान सुनातीं | माँ जी भी बहुधा उनके साथ ही होतीं और बेशक एक क्षण के लिए ही सही उन्हें अपने ‘बाबूजी’ की आवाज़ सुनने की लालसा अवश्य होती|
इस बार कई दिनों से अम्मा और उसकी माँ जी उसकी खबर लेने नहीं आईं, गुड्डी बेचैन हो उठी |उसने पति से कहलवाकर अम्मा को तार भिजवाया, स्वाभाविक था अम्मा गुड्डी व बच्चों के हालचाल पूछने डाकखाने गईं |उस दिन गुड्डी को चंपा की आवाज़ सुनाई न देने पर ,उसकी अनुपस्थिति से वह बेचैन हो उठी |अम्मा से वार्तालाप में भी उसका कोई ज़िक्र न सुनने पर गुड्डी का असहज होना स्वाभाविक ही था |
“ अम्मा ! क्या बात है —माँ जी ठीक तो हैं —?” गुड्डी के मन में स्वाभाविक रूप से बेचैन उत्सुकता ने पैर फैला दिए थे | कुछ न कुछ तो ग़लत था,उसके मन में कंपकंपी सी होने लगी |
फोन पर अम्मा फूट फूटकर रो पड़ीं |गुड्डी परेशान हो उठी ;
“क्या हुआ अम्मा ,कुछ तो बोलो ,मेरा मन घबरा रहा है–”
फिर अम्मा ने जो बताया उससे गुड्डी के होश उड़ गए | वह अम्मा से बात करने की स्थिति में नहीं रह गई |अम्मा ने बताया कुछ दिनों पूर्व ही जब पूरे आस-पड़ौस में कोई नहीं था ,चंपा के घर में कुछ लोगों ने घुसकर उसे ‘रेप’ कर लिया था |अपनी स्थिति से वह पगला गई थी और उसने अपने आपको कमरे में बंद कर लिया था |कई दिनों तक चंपा ने बिना खाए-पीए अपने आपको कमरे में कैद करके रखा था | बड़ी मुश्किल से दरवाज़ा तुडवाया गया ,चंपा ने अपने हाथ को दंराती से काटकर लहूलुहान कर लिया था | उसने कई घाव अपने पूरे शरीर पर भी कर लिए थे |
अम्मा ने बड़ी मुश्किल से चंपा को कुछ खिलाया लेकिन उसके मस्तिष्क पर दुर्घटना ने हथौड़ों की चोट की थी | वह कुछ सोचने-समझने की स्थिति में ही नहीं थी |कई दिन यूँ ही निकल गए | माया उसे कुछ खाने के लिए देती तो वह कहती ;
“इसमें ज़हर मिलाया है न?तुम सब चाहते हो मैं मर जाऊं, मेरे बाबूजी को बुलाओ|”
उसकी हालत बहुत खराब हो गई थी | अम्मा ने डॉक्टर को घर पर ही बुला लिया था परन्तु वह सब पट्टियाँ खोलकर शेरनी की भांति डॉक्टर पर चिघाड़ने लगती| कई दिनों तक ऐसा ही चलता रहा ,उसके शरीर से रक्त निकलना बंद ही नहीं हो रहा था |वह बेहद कमजोर हो चली थी और किसी का भी कहना न मानने की मानो उसने कसम खा ली थी |
“ बेटा ! दो दिन पहले अचानक रात में न जाने वह कहाँ चली गई ?सारा शहर खूँद मारा, पुलिस थक-हारकर बैठ गई लेकिन न जाने वह कहाँ मर-खप गई होगी |”
रोते-रोते अम्मा के हाथ से फोन छूटकर गिर पड़ा और दोनों ओर नीरवता ने कब्जा कर लिया | तब से न जाने कब,कैसे गुड्डी की स्मृतियों की पोटली बंद होती रहती है ,खुलती रहती है | वे उसका साथ ही नहीं छोड़तीं ,कभी धरती पर,कभी आकाश में ,कभी समुद्र की सतहों पर ,कभी किसी अजनबी के उदास चेहरे पर ,कभी दिलोदिमाग़ में बस घुसपैठ करती रहती हैं | बरसों से उसके मन में हर पल प्रश्नों की एक भयानक फ़सल उगती रहती है जो कभी भी नहीं पकती,वह बस इस कच्ची ज़िंदगी का अर्थ खोजती रह जाती है |