“दीनू नहीं रहा!” माँ-बाप के ज़माने से पुश्तैनी घर में काम करने वाली शांति मासी ने खबर दी।
दीनू! दीनानाथ हांड़ी, उसका क्लास-मेट। वह एक बारगी तीन दशक पीछे चला गया।
……जैसे ही सिनेमा हॉल के बाहर लगे ‘हाउसफुल’ के बोर्ड पर नज़रें पड़ीं, सबके चेहरे बुझ गए। बुझे मन से सब वापस कार में जा बैठे। किशन कुमार अभी कार स्टार्ट करने ही वाला था कि कोई खिड़की के पास आकर फुसफुसाया “सा’ब काहे को वापिस होना। अपने पास आठ टिकट हैं। दस का पंद्रह में दूंगा। बाल्कोनी का है। ले लो सा’ब!”
किशन कुमार सिर घुमाकर अभी कुछ कहता कि सामने वाला ब्लैकिया आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी से चिल्ला पड़ा “अरे! तुम किसना है न? …पहिचाना? मैं दीनानाथ, तेरा दीनू हूँ। बचपन का ….”
“शटअप! तमीज़ से बात करो। मैं किसी दीनू-वीनू को नहीं जानता।” और गाड़ी झटके से स्टार्ट हो गयी। वह हक्का-बक्का वहीँ खड़े-खड़े पेट्रोल और धूल की दुर्गंध फेफड़े में निगलता रहा“ स्साला अब काहे को पहिचानेगा। बड़का आदमी जो बन गया है।”
सारी रात किशन कुमार सोने के प्रयास में करवटें बदलता रहा। जैसे ही आँखें बंद करता। दीनू का चेहरा सामने आ जाता, जिसे आज उसने अपने बीवी-बच्चों के सामने पहचानने से एकदम इनकार कर दिया था।
वह फिर कई साल पीछे लौट गया …..कस्बे का सरकारी स्कूल। पहली से सातवीं कक्षा तक दीनानाथ हांड़ी उसके साथ था।किशन कुमार शुक्ल के पिता नगरपालिका के एक किरानी और दीनू के माता-पिता उसी नगरपालिका के स्वीपर थे। जात-पांत और सामाजिक स्तर कभी उनकी मित्रता में दीवार नहीं बन पाए थे। क्या घर, क्या बाहर,क्या स्कूल सब जगह दोनों गलबहियां डाले बेपरवाह घूमा करते थे। दीनू का परिवार आर्थिक दृष्टि से संपन्न था। माँ-बाप दोनों कमाने वाले। खाने वाला केवल एक बेटा। उसकी जेब में हमेशा पांच-दस के नोट फड़फड़ाते रहते। चाटछोले, बादाम, सिनेमा आदि का खर्च दीनू की जेब के जिम्मे रहता था। किशन को अपनी जेब के कोने में एक दो रूपये के सिक्के ही दुबके मिलते थे। दीनू द्वारा लाये गए हलवा, मिठाईयां, केक आदि पर किशना भी हक़ जमाता था। टिफ़िन के वक़्त स्कूल के किसी खाली कमरे में बैठकर खुद कम खाना और किसना को जी भर खिलाना दीनू की एक आदत सी बन गयी थी।
उस समय एक –दो रूपये के सिक्के किसना लिए बहुत बड़ी धनराशि हुआ करती थी। सरकारी स्कूल में पढने वाले उसके पांच भाई- बहनों को एक- दो रूपये के ही सिक्के मिला करते थे। अगर किसी माह उसके पापा को तनख्वाह नहीं मिलती तो उन्हें ये सिक्के भी नसीब नहीं होते थे। उस महीने पापा को परिवार के सात प्राणियों के लिए राशन-पानी का इंतजाम करना बेहद मुश्किल हो जाता था। इस बीच परिवार का कोई सदस्य शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो गया तो उसके इलाज के मद में खर्च होने वाले पैसों का बंदोबस्त करना पापा के लिए टेढ़ी खीर बन जाती थी। मेडिकल स्टोर के उधार खाते में नाम दर्ज़ करवाने के अलावा कोई उपाय नहीं रहता था।
टिफिन के वक्त वह वह झिझकते हुए अक्सर जेब में दुबके पड़े दो रूपये का सिक्का निकाल कर दीनू को थमाना चाहता। दीनू के खर्च में शामिल होने की उसकी भी इच्छा होती। लेकिन दीनू उसके कंधों पर हाथ रखकर विनम्रता से मना कर देता“ इन्हें जमा करके रख। कभी अगर कड़की आ गई तो मैं तुम्हे बोलूंगा।” लेकिन कड़की उसके पास कभी फटकी ही नहीं।
किशन कुमार को मिलने वाले एक-दो के सिक्के जब बीस-पचास के नोट में बदलने लगते तो कोई-न-कोई आफ़त उस पर आन पड़ती। कभी पेंसिल खो जातीकभी क़लम तो कभी ज्योमिट्री बॉक्स। उन्हें दुबारा खरीदने के लिए पापा से पैसे मांगने का मतलब एक और बड़ी ‘आफ़त’ को निमंत्रण देना। ऐसे मामलो में पापा का रौद्र रूप की कल्पना कर ही कांप जाता। एक बार जब उसकी जेब के सिक्के दस-दस के पांच नोट के रूप में उछल-कूद मचाने लगे तो उसने दीनू से जोर देकर कहा“ अगले सप्ताह की टिफिन का सारा खर्च मेरा रहेगा।” परन्तु अफ़सोस यह हो नहीं सका।उस दिन स्कूल से लौटते वक्त गली में फुटबॉल खेलते हमउम्र बच्चों को देखने के लिए रुका था। अचानक एक बच्चे की किक से बॉल उसकी तरफ आ गया। बॉल को वापस बच्चों के पास भेजने के लिए उसने भी एक ज़ोरदार किक मारी। अरे! ये क्या हो गया! बॉल के साथ उसके जूते की तल्ली भी हवा में लहराने लगी। लो, एक और नई आफ़त! बड़े प्यार से सहेजे गए दस-दस के पांच नोट में से चार नोट छिटककर रवि काका के पास चले गए। जूते की नई तल्ली खरीदने और मरम्मती में पूरे चालीस रूपये खर्च हो गए।
पता नहीं फिर क्या हुआ कि अचानक दीनू का स्कूल आना बंद हो गया। दीनू का पता लगाने के लिए वह उस कॉलोनी में गया जहां दीनू रहता था। उसके पड़ोसियों ने उसे इस ख़बर से वाकिफ़ कराया कि किन्ही पारिवारिक कारणों से उसके माता-पिता ने नौकरी छोड़ दी है और खड़गपुर की किसी बस्ती में जा बसे हैं। वहीँ दीनू का ननिहाल भी था।
इस बीच किशन कुमार की पढाई उसी सरकारी स्कूल में ही जारी रही। चूँकि उसने अपने भाई- बहनों की तुलना में सबसे ज़्यादा कुशाग्र बुद्धि पायी थी, इसलिए पढाई-लिखाई के मामले में उसने कोई शिकायत का मौका नहीं दिया। माता-पिता पूर्ण संतुष्ट थे। कक्षा में अव्वल रहने का सिलसिला दसवीं तक जारी रहा। आगे की पढाई के लिए उसे निकटवर्ती शहर दुर्गापुर भेज दिया गया। वहीँ उसने स्नातक की डिग्री हासिल की। ख़ुशकिस्मती से रोजगार की तलाश की शुरूआती कोशिश में ही उसे कामयाबी मिल गई। इंडियन रेलवे सर्विस में उसका चयन हो गया। द्वितीय श्रेणी के अधिकारी की तीन वर्षीय ट्रेनिंग के बाद दक्षिण पूर्व रेलवे के खड़गपुर डिविजन में वाणिज्य प्रबंधक के रूप में उसकी पोस्टिंग हो गई।
आज एक मुद्दत के बाद दीनू मिला भी तो उसके सामाजिक स्तर ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया। गाली भी दे डाली। दीनू के प्रति उसकी बदसलूकी ने उसे बेहद उद्विग्न कर डाला। लगा कि उसके स्तर ने उसे मिली ऊँची तालीम का मज़ाक उड़ाया है। ऊँची तालीम ने तो यह नहीं सिखाया कि ऊँचाईयों पर पहुँचकर अपनी ज़मीन को भूल जाओ। लेकिन वह ज़मीन को भूल गया और इस धारणा को और भी पुख्ता कर डाला कि मित्रता समान स्तर के ही बीच होती है। नहीं! वह इस धारणा को तोड़ेगा। दीनू को शिद्दत से एहसास दिलाएगा कि वह उसे भूला नहीं है। बचपन में उसके संग गुज़ारे एक-एक पल अभी भी उसके ज़ेहन में बदस्तूर जिंदा है। वह एहसानफरामोश नहीं है। उसके हर एक एहसान को वह अपने सीने में संजोये रखा है। उसकी उद्विग्नता में थोड़ी सी नरमी आई इस फैसले से। उसने निश्चय कर लिया कि वह दीनू से मिलेगा। ज़रूर मिलेगा। एक अफ़सर की तरह नहीं बल्कि किसना की तरह। बचपन के दोस्त की तरह। उससे माफ़ी मांगेगा उस बदसलूकी के लिए। वह जानता है, दीनू का दिल बहुत बड़ा है। उसकी गुस्ताख़ी को वह नज़र-अंदाज़ कर देगा। जैसे बचपन में उसकी कई गुस्ताखियों को हँस कर माफ़ कर देता था।
उसे पूरी उम्मीद है अपने सामने उसे देखते ही मोम की मानिंद पिघल जाएगा। उसे गले लगाएगा। बचपन की दोस्ती फिर से जिंदा करेगा।
दूसरे दिन वह अपनी गाड़ी लेकर सिनेमा हॉल पहुँचा। इधर-उधर नज़रें दौडाईं। दीनू कहीं नज़र नहीं आया। एक ब्लैकिये से पता पूछा। पता मिल गया और वह जा पहुँचा उस बस्ती में जहाँ दीनू रहता था। बस्ती में चमचमाती गाड़ी घुसते ही हलचल मच गई। बस्ती के लोग अपने-अपने झोपड़ीनुमा घरों से बाहर निकल आएं। कई तरह के सवाल, जिज्ञासाएं, आशंकाएं छिपकली की कटी दुम की तरह इधर-उधर छटपटाने लगे। आनन-फानन में चर्चाओं का बाज़ार गर्म हो गया। जैसे ही वह कार से उतरा, हरिया भौचक रह गया‘अरे ये तो हमरे डिपाट के बड़े साहब हैं,….लेकिन हमारी बस्ती में इनका का काम?’ हरिया रेल का सफाईकर्मी था। इस नाते जब-तब बड़े साहब से उसका वास्ता पड़ता रहता था। तत्काल हरिया बड़े साहब के पास पहुँच कर सलाम ठोंका“सर मैं हरिया ……स्टेशन का सफाईवाला।….आप यहाँ?” किशन कुमार उसे न पहचानते हुए भी पहचानने का नाटक किया,“अरे, हाँ! हरिया ये बताओ दीनू हांड़ी यहाँ कहाँ रहता है। मुझे उससे मिलना है।”
“सर उसी का द्वार पर तो आप खड़े हैं।”
किशन कुमार की गाड़ी के आस-पास बस्ती के बाशिंदों की तादाद धीरे-धीरे बढ़ गई थी। हल्की-दबी फुसफुसाहटें माहौल को रहस्यमयी बना रही थी। दीनू घर के ही अन्दर था। हल्का-दबा शोर जब उसके कानों में पड़ा तो मामले को जानने के लिए दरवाजा खोलकर बाहर आ गया। दीनू को देखते ही किशन कुमार उसके सामने जा खड़ा हुआ। बाँहें फैलाकर भीतर के उफान को तोड़ा। “दीनू ….मेरे दीनू ….मैं किसना ही हूँ ….तेरे बचपन का यार …..”
दीनू अपने सामने बचपन के यार को देखकर एकबारगी अचकचा गया। उसके लिए यह
अप्रत्याशित था। उसे इसकी कतई उम्मीद नहीं थी कि किसना उससे मिलने उसकी बस्ती पहुंच जाएगा।
“अरे यार ऐसे भकुआ कर देखता क्या है?……आ जा,गले लग जा।…..देख, तुझसे मिलने मैं खुद पहुंच गया।“
दीनू के भीतर का बांध टूटने वाला था। अपने यार की मौजूदगी की तपिश से यादों की बर्फ़ कई-कई टुकड़ों में बंटकर पिघलने वाली थी। उसकी धडकनें बेकाबू हो रही थीं। सांसें भी तेज होकर उसके नियंत्रण से बाहर हो रही थीं। उसका जी चाहा कि बाहों में जकड ले अपने किसना को। वह आगे बढ़ने ही वाला था। आगे बढ़कर अपने यार को सीने से भींचने ही वाला था। उसके कदम बढ़ते कि भीतर से किसी ने बुरी तरह झिंझोड़ा। झिंझोड़ कर उसकी नज़रों के करीब सिनेमा हॉल में लगे होर्डिंग की तरह उसे बेइज़्ज़त किया जाने वाला मंजर ला खड़ा कर दिया। उसे पहचानने से इंकार कर दिया जाने वाले दृश्य उसके सीने में कांटों की तरह चुभने लगे। ज़ज्बात की उफनती नदी में किसी ने एक बड़ा सा पत्थर फेंका ‘ ‘खबरदार,आगे मत बढ़! तेरा भी अपना एक वजूद है।’ उसने स्वयं को संयत किया। बढ़ते कदम रुक गए। चेहरे को भावहीन बनाकर कहा, “ नहीं, सा’ब, हम दीनू नहीं! आप गलत ठिकाने पर आ गए हैं” और वह झटके से झोपड़ी में समा गया।
किशन को लगा, बचपन के यार ने ऊँचाईयां छूते उसके वजूद और उसे मिली ऊँची तालीम के दमकते मुखड़े पर ढेर सारा थूक उगल दिया।