15 अप्रैल 2021 और 28 अप्रैल 2021 के बीच 14 दिनों का फासला है । इस फासले में, चौदह दिन और चौदह रातें आयीं और गयीं हमेशा की तरह । इनमे लम्हातों का कोई अंतर नहीं यह भी तय है। पर इस दरम्यान मेरे जीवन में बहुत कुछ बदल रहा था। बदलाव काफ़ी तेज था, हर नई सुबह एक नए दृश्य के साथ आई और हर रात एक नए अनुभव के साथ ढली। इतने तेज बदलाव के बावजूद ये चौदह दिन, चौदह सदी जैसे रहे ; समय जैसे थम- सा गया था। पल जैसे अटक गए थे। घड़ी की सुईयां जैसे टिक-टिक की आवाज़ के साथ सिर्फ दिशा परिवर्तन कर रहीं हो और सब कुछ चार सफ़ेद दीवारों के बीच रुक गया हो!
15 अप्रैल को पहली बार कोविड के लक्षण के साथ तबियत थोड़ी सुस्त हुई । दिन के 11 बजे जैसे किसी ने रसोई से लाकर बिस्तर पर पटक दिया हो, आँखे ऐसी लगी जैसे कई रातों से जाग रही हो। कई घंटों की नींद के बाद भी खुद को जबरदस्ती पलंग से उठाया । वो तो कोविड के पॉजिटिव रिपोर्ट आने के बाद इस अजीबो गरीब नींद की कहानी समझ आई ! 15 दिन पहले तक कोविड को पढ़कर और सुनकर जितना जाना था वो तो कुछ भी नहीं था । असल कहानी तो अब शुरू होने वाली थी वो भी मेरी खुद की लाइफ में । गले में कुछ सूई-सा चुभ रहा है और साँसे गरम होनी शुरू हो रही बुखार जैसी। पलके मनों भारी हो रही और सर में हथौड़े का वज़नदार ठक-ठक! सोंचा बुखार चढ़े उसके पहले जल्दी से थोड़ा नहा कर आ जाऊँ। बाथरूम में जैसे -तैसे नहाना ख़त्म करते-करते पेट में जोर का दर्द लहरें मारना शुरू कर देता है । पेट पकड़ कर पॉट पर बैठती हूँ । देह की सारी शक्ति लगाकर आवाज़ लगाना चाहती हूँ लेकिन ‘हाह’ के अलावा मुँह से कुछ नहीं निकलता। अब तक बाथरूम में सब कुछ ब्लू-ग्रे होने लगा है। चेतन और अवचेतन के बीच सोचती हूँ जल्दी से बाहर निकलूँ । हाथ चिटकनी की तरफ़ बढ़ता है और घुप्प अँधेरा! ……………..पलकें थोड़ी सी खुलती हैं, ग्रे ग्रे कुछ दिख रहा है, आँखों के पास कोई कपडा लटक रहा है ; लेकिन क्या? पहचान में नहीं आता, फिर से घुप्प अँधेरा । पलकें फिर से खुलती हैं, झपकती हैं । प्रयास करके सिर हिलाती हूँ, आँखे और खोलती हूँ । सामने गीज़र दिखता है । अब पहचानती हूँ, आँखों के पास लटकता कपड़ा बाथरूम का पर्दा है । चेतना लौटती है । मै बाथरूम के गीले फर्श पर गिरी पड़ी हूँ, ना जाने कबसे ! भीतर से कोई कह रहा है, “मुझे यहाँ से बाहर निकलना है ।“ बाथरूम के दरवाज़े से बाहर निकलते हीं एक दबी सी चीख निकलती है और फिर से गिर पड़ती हूँ…घुप्प अँधेरा ! खैर फिर तो सिलसिला चल पड़ा डायरिया, पेट दर्द, मितली, लो बी पी, बुखार, सरदर्द, पैरदर्द, गले में दर्द…दर्द हीं दर्द ! कुछ नहीं, कोविड ताण्डव कर रहा था मेरे अन्दर, बस ! अब चौदह दिनों का आइसोलेशन ! मतलब एक कमरे में बंद ! लक्ष्मण रेखा पार मत करना वर्ना घर के बाकि लोग कोविड को अपने अन्दर ले लेंगे ।
देह घोर विपरीत परिस्थितियों से निरंतर संघर्ष कर रहा था । शरीर में इतनी असहनीय पीड़ा इतने लम्बे समय तक कभी नहीं हुई थी । प्रसव पीड़ा का वेग निःसंदेह इससे ज्यादा था पर कुछ घंटों में सब सामान्य । यहाँ कोई सुनवाई नहीं। सिर में बाम लगा कर दुपट्टे से गाठों पर गाठें बांधे जा रही हूँ । कभी पैरों में बाम घिस रही हूँ कभी कमर में । अपना सारा काम खुद करना है । बी पी, टेम्परेचर, ऑक्सीजन सब हर तीन घंटे में माप कर व्हाट्स एप्प करना है । याद से तीनो समय की दवा स्वयं लेनी है । अपने कपड़े धोने, कमरे की सफाई करनी, जूठे बर्तन धोना सबकुछ खुद से । अपना सिर और पैर भी खुद हीं दबाना है । इस दो सप्ताह के अन्तराल में पीड़ा की अति में मन में कभी कोई मानवीय दुर्बलता नहीं आई ऐसा कोई दावा नहीं करती । कई बार लगता था कि अब इस सफ़ेद चार दीवारों से बने कमरे के दरवाज़े से बाहर कभी निकल हीं नहीं पाऊँगी । घोर अकेलेपन में नई- पुरानी कितनी यादें एक चलचित्र की तरह आँखों से सामने से होकर गुजर रही हैं । इस बार इन यादों ने एक सच्चे साथी का रोल अदा किया, साथ नहीं छोड़ा मेरा ।
स्मृतियां कितनी अजीब होती है । अभी आती है तो हौले से गुदगुदा जाती हैं और कभी आती हैं तो आँखों के कोरों को नम कर जाती है । कभी इनकी मिठास होठों पर मृदुल मुस्कान बिखेर जाती है और कभी मन के किसी कोने में कैक्टस के काँटे सी चुभकर चली जाती है । आज ऐसी हीं कई नवीन-पुरातन स्मृतियां जेहन में कौंध रही हैं ।
बचपन की यादों में एक भिखारी था जो अक्सर माँ के दरवाजे और हमारी गली में कई दरवाजों पर जाकर हाथ फैलाया करता था । कुछ मिले ना मिले, ईश्वर से सबके भले की प्रार्थना करता आगे बढ़ जाता था । नहीं पता आज इतने वर्षों बाद वह कैसे और क्यों स्मृतियों के पुराने बंद पिटारे से निकलकर सामने आ खड़ा हुआ ! एक दिन जब वह दरवाजे पर आया था और माई जी, माई जी कह कर पुकार रहा था तब माँ ने चार रोटी के ऊपर सब्जी रखकर उसके हाथों में दे दिया । रोटी सब्जी लेकर वह हमारे दरवाजे के पास ही सामने की तरफ बैठ गया । बचपन का कौतूहल या दीनों के प्रति दया, मैं नहीं जानती क्यों, पर मैं उसे अपनी खिड़की से देखती रही । बड़ी अजीब तरह से खा रहा था । पहले उसने सारी सब्जी खा ली फिर बाद में केवल रोटी खाता रहा । उसके आँखों की शून्यता और उसके चेहरे का खालीपन मैं आज भी नहीं भूली हूँ । नहीं जानती क्या था जो मन को छू गया ! रोटी का कौर तोड़ते उसके हाथों की झुर्रियां और त्वचा पर उभर आई जाल सी फैली मोटी नसें अब भी याद है । उस बुड्ढे के साथ ही माँ की बार-बार दोहराई जाने वाली पंक्तियां भी याद आती हैं,
“रहिमन वो नर मर चुके जो कछु मांगन जाए,
उनसे पहले वो मुए जिनके मुख से निकलत नाही।“
झुर्रियों से दादी माँ भी याद आ गयीं । उनकी झूलती त्वचा हम बहन- भईयों के लिए खेलने की वस्तु हीं थी । पर दादी माँ कभी उकताती हों ऐसा याद नहीं । वहीं से वृद्धों के प्रति नरम भावना हम चारो भाई-बहन में नरम भावन पनप गई । आज भी बुजुर्गों में दादी की परछाई देखती हूँ । शायद यही कारण है कि स्वयं से 20-30 वर्ष वरिष्ठ लोगों के साथ भी मेरा उठना-बैठना है । वो लोग भी मुझे अपने बच्चों सा मानते हैं ।
छठी- सातवीं कक्षा में साथ पढ़ने वाली वो लडकियाँ जिनके नाम भी याद नहीं अब, उनका चेहरा आँखों के सामने से गुजरता है । मिडिल स्कूल में क्लास की मॉनिटर थी । स्कूल इलेक्शन में मुझे अनुशासन मंत्री बना दिया जाना याद आता है । अपने मंत्री पद की गरिमा को बचाते हुए कई अच्छी सहेलियों से कट्टर दुश्मनी हो जाना याद आता है । बचपन और किशोरावस्था में घर के सामने गलियों में बैडमिंटन और कबड्डी खेलना, गिरना, चोट लगना, फिर से उठ कर खेल में लग जाना, सब याद आता है । किट्टा-बुच्चा, पिट्टो, बुढ़िया कबड्डी, ठेले की चाट, झालमुढ़ी, कॉलेज कैंटीन की ब्रेड-चाय, लैब में कॉकरोच का डाईसेक्शन, माइक्रोस्कोप से स्लाइड देखना ये सब क्यूँ याद आ रहा ? पापा- मम्मी का मेरी विदाई पर रोना, तीनो भाईयों का साथ, घर के सब लोग ! नानाजी की कही बात याद आती हैं, “संतोषम् परम सुखम ।“
जिन लोगों ने मेरे लिए बहुत कुछ अच्छा किया उनके साथ-साथ वो भी दिख रहे जिन्होंने बहुत बुरा किया । बुरा, सिर्फ मेरे साथ नहीं, किसी और के साथ बुरा किया वो भी याद आ रहे । इतना सब कुछ क्यूँ याद आ रहा ? कोई बेटी अपने वृद्ध माँ-पिता से कह रही ,
“तुम दोनों मर जाओगे तो तुम्हारे दरवाज़े पर झाँकने भी नहीं आऊँगी”। निराश, हताश, कटे वृक्ष जैसे वो माता-पिता का चेहरा! जाना पहचाना चेहरा । ऐसी पत्थर दिल बेटी !
एक मानसिक रोगी वृद्धा की फोटो पर अट्टाहास करती उसकी बेटी की आवाज़, “इस फोटो पर एक कविता लिखी जानी चाहिए, इसे लाइक- कमेंट मिलना चाहिए ।“ जानी पहचानी वृद्धा की फोटो, जाना पहचाना अट्टाहास! ये क्या हो रहा है ? इस युग में बेटियाँ अपने माता-पिता की ओर इतनी कठोर ! मेरा सर दर्द से फट रहा है, हथौड़े चल रहे । इतनी तेजी से दृश्य बदल रहे हैं कि चक्कर आने लगता है । मै निढ़ाल होकर करवट बदलती हूँ । मुँह से सिर्फ इतना निकलता है, “माँ ।“
माँ कह रही हैं, “माँ का दिल समन्दर जैसा गहरा होना चाहिए । जो कुछ भी, जहाँ कहीं से आए इस समन्दर में सब समा जाना चाहिए ।“ माँ कहती हैं कि मै भी अपना हृदय समन्दर जैसा बनाऊँ । सारे दुःख, तिरस्कार, और उपेक्षाओं को अपनी गहराईओं में समेट कर भी समन्दर जैसी गंभीर रहूँ । इतना हीं नहीं जैसे इतना सबकुछ समेट कर भी समन्दर किनारे खुशनुमा शीतल हवा चलती है जो सबको शान्ति और सुकून देती है । वैसे हीं मेरे व्यवहार की शीतल हवा में सबको शान्ति और सुकून मिले । ना जाने माँ- पापा की बातों का कैसा असर है मुझ पर, कभी किसी से दिल से नफ़रत नहीं कर पाई । दिखावे वाला प्यार भी नहीं किया कभी । जब भी किसी परिजन के लिए कुछ किया मन से किया, अपने हित के बारे में नहीं सोचा । माँ- पापा को पैसे के पीछे भागते कभी नहीं देखा । उनके मुँह से हमेशा यही सुना कि जीवन में पैसा जरुरतें पूरी करता है । खुशियाँ उनके हिस्से आती हैं जो दिल से बड़ा हो । ऐसे लोग खुद तो खुश रहते हीं हैं, अपने जीवन में आने वाले हरेक व्यक्ति को भी खुशियाँ देते चलते हैं । माँ की बारम्बार कही जाने वाली एक और बात याद आ रही ,
“साईं इतना दीजिये, जामे कुटुम्ब समाये
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधू न भूखा जाये” ।
माँ – पापा ने हमेशा कुटुम्ब को साथ लेकर चलने की बात की । 70 वर्ष के पापा अभी तक अपने परिवार के साथ कई कुटुम्बों के परिवार की कमियाँ पूरी करते चल रहे हैं । उनके होने से सबको सम्बल मिलता है ।
कोविड ने जता दिया है कि मैं कितनी भाग्यवान हूँ । पड़ोसियों और मेरी सहेलियों ने मेरे घर के खाने का जिम्मा ले लिया है । बाहर से खाना नहीं मांगने देते । हमेशा मदद करने को तत्पर । दिनभर फ़ोन कर हाल चाल पूछते रहते हैं सब लोग । यही लोग तो प्रथम परिजन हैं । मेरा पूरा परिवार इन सब के प्रति जीवन भर के लिए कृतग्य हो गया । कई लोगों के शुभेच्छा सन्देश आ रहे हैं। । “गेट वेल सून” और “स्पीडी रिकवरी “ के मेसेज से मोबाइल भरा पड़ा है आशीर्वादों का तांता लगा हुआ है । दवा के साथ-साथ मित्रों, परिजनों की दुआएं भी काम कर रही हैं । दवा बीमारी से लड़ रही है और सबकी दुआएँ इस विपरीत परिस्थिति में मानसिक सम्बल बनी हुई है । सबकी शुभकामनाएँ चेहरे पर सकारात्मक मुस्कान लाती हैं । मै तो फोन पर किसी से ठीक से बात भी नहीं कर पा रही । मेरी काँपती आवाज़ सुनकर लोग घबड़ा कर फ़ोन रख देते हैं । बस एक माँ हैं जो रोज़ सुबह- शाम मेरी आवाज़ सुनने भर को ही सही पर बात जरूर करती हैं । मुझे जल्दी ठीक होना है । पलकें भारी हो रहीं, आँख लग रही है ।
सुबह नींद खुलते हीं साँस लेने में तकलीफ़ हो रही है । अनुलोम विलोम करने बैठती हूँ । साँस अटक रही है, सीने में दर्द महसूस होता है । हाँफने लगी हूँ । वैसे कई दिनों से हाँफ रही हूँ लेकिन तब लगा कमजोरी है, शायद इसलिए । डॉ ने सी टी स्कैन कराने की सलाह दी है । रिपोर्ट आया- 40% फेफड़ों में इन्फेक्शन है । जीवन में पहली बार खुद को एक शक्तिहीन मरीज़ महसूस करती हूँ । निराशा हो रही है । दिनचर्या में नई दवाईयाँ शामिल हो जाती हैं ।
निःसंदेह यह मेरे जीवन का सबसे बुरा अप्रैल है । हर तरफ़ जैसे हाहाकार मचा हो! रोज अनगिनत जानें जा रही हैं । कहीं ऑक्सीजन की कमी से तो कहीं कोरोना की जीवन दायिनी इंजेक्शन रेमेडीसिविर की कमी से । न्यूज़ देखने से दिल और बैठ जा रहा । सैकड़ों परिवार उजड़ गए । ना जाने मृत्यु का यह ताण्डव कब रुकेगा ! मै तो ठीक से बात भी नहीं कर पा रही, मेरी आवाज़ और धीमी हो गई है । काफ़ी रात हो चुकी है । पीड़ा के अतिरेक से कमर से नीचे पूरा पैर भारी हो गया है । पैर पटक रही हूँ, नींद का नामोनिशान नहीं । काले सन्नाटे में अपनी कराह और कभी कभार चौकीदार की सीटी के अलावा कुछ सुनाई नहीं देता । कभी झपकी सी आती है, कभी स्मृतियों का कोई पन्ना फड़फड़ा उठता है ।
घर के मुखिया की मृत्यु के बाद उसके सब बच्चे परिवार सहित घर में इकठ्ठा हो चुके हैं । 13 दिन का सूतक है । दसवें दिन वो वीभत्स चेहरा घर के दो भाईयों के परिवारों को आपस में लड़ाने का षडयंत्र रचता है । पकड़े जाने पर वीभत्स चेहरा चीखने लगता है । सिर पे आँचल डाले एक उदास चेहरा आँगन में आसमान की ओर देखता है- “ईश्वर मुझे सहन शक्ति दो ! हम सब अभी शुतक में हैं ।“ किसी सौम्य व्यक्ति की आवाज़ कान में फुसफुसाती है- “संस्कारी व्यक्ति की पहली पहचान है कि वो कभी किसी अन्य व्यक्ति के संस्कार पर ऊँगली नहीं उठाता।“ वीभत्स चेहरा ईर्ष्या से फुंफकार कर अपशब्दों की बरसात कर उठता है । सिर पे आँचल डाला चेहरा हाथ जोड़कर अभी भी आसमान की ओर देखकर कुछ याद कर रहा है । दस दिन पहले स्वर्ग सिधारे उसके ससुर, उसके पिता से कह रहे हैं – “मेरा सौभाग्य है ! आपकी बच्ची मेरे घर की लक्ष्मी बनी ।“ चेहरा झुक कर आँखें बंद कर लेता है – “हे प्रभु मेरे श्वसुर जी की आत्मा को आपके श्री चरणों में स्थान मिले.. ॐ शान्ति ।“ बरामदे में वीभत्स चेहरा ताण्डव कर रहा है और भीतर कमरे में उसकी वृद्धा माँ दस दिन पहले मिली वैधव्य की पीड़ा में व्याकुल अपनी हीं बेटी की क्रोध में फुफकारती आवाज़ से डरकर फूट-फूट कर रो रही है । सिर पर आँचल डला चेहरा वृद्धा को पकड़े सुबक रहा है । दादी माँ के स्वर्ग सिधारने के दिन याद आ रहे हैं । पूरे घर में शान्ति, सम्पूर्ण शोक । इस घर में वैसा क्यूँ नहीं ! मन चीत्कार उठता है । रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता कानों में गूँजती है-
“यदि तोर डाक शुने केऊ ना आशे तबे एकला चलो रे,
“एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे।“
पापा के मुँह से अनेकों बार सुनी ये पंक्तियाँ- एकला चलो रे । ना जाने कौन सी अदृश्य शक्ति है जो हर विपरीत परिस्थिति में सशक्त हाथों से थामे रहती है ! आज भी थामे हुए है । पीड़ा की लहर कमर से लेकर पैरों की ऊँगलियों तक झनझना रही । आह ! मुझे इस दर्द से मुक्ति दो ईश्वर !
मेरे बच्चों का बचपन सामने है । दूध के झक्क सफ़ेद दाँतों में मुस्कुराता दोनों का अबोध चेहरा । ईश्वर से मिला सबसे अनमोल तोहफ़ा मेरे जुड़वाँ बच्चें – एक बेटी, एक बेटा । जबसे पता चला था कि मैं जुड़वाँ बच्चों की माँ बनने वाली हूँ तबसे ईश्वर से एक बेटी और एक बेटे के लिए दुआ मांगती रही थी । दुआ उन तक पहुँची भी और कबूल भी हुई । सब पूछते, ये चमत्कार कैसे हो गया ! माँ की बात ज़ेहन में कौंध जाती- “यदि कभी किसी का अहित नहीं चाहो तो आपके जीवन में कई सुन्दर चमत्कार होते हैं !” सच में इतना सा हीं राज़ है-
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम” ।।
सम्पूर्ण धरती एक परिवार हीं तो है, किसी का अहित क्या सोचना ! माँ-पापा ने हम बच्चों के मन में कभी किसी के प्रति घृणा के बीज नहीं बोए । मैंने भी दोनों बच्चों को हमेशा यही सिखाया- “Hatred is the worst emotion one poses. Our life is too small to hate someone. Spread love and be loved”. दोनों समझते हैं । जीवन की यात्रा में कौन कितनी ऊँचाई नापेगा ये नहीं जानती पर इतना विश्वास है कि दोनों जानते- बूझते कभी किसी का अहित नहीं करेंगे । एक सहज, सरल इंसान तो बना दिया, अब दोनों को जिम्मेदार नागरिक बनाने की ओर अग्रसर हूँ । बाकि तो ये खुद संभाल लेंगे । ईश्वर से प्रार्थना है दोनों खूब खुश रहें और दोनों हाँथों से खुशियाँ बाँटे ।
ऊपर से संयत रहने की कोशिश कर रही हूँ पर भीतर से मन उदास है । सासु माँ की तबियत भी ख़राब चल रही है । इन दिनों मम्मी जी अपनी बड़ी बेटी के घर हैं । उनकी तबियत की बात जानकर पति परेशान हो गए हैं। बहन ने बताया कि सर्द- गर्म से मम्मी जी को बुखार आ गया है । दो दिन बाद गाँव से चाचा जी का फ़ोन आया । उन्होंने बताया कि मम्मी जी के बेटी दामाद उनको लेकर एक पूजा प्रसंग में गए थें जहाँ लोगों की भीड़ जमा थी । यह जानते हीं हमारे पैरों तले ज़मीन खिसक गई । कोरोना महामारी के विकराल समय में वृद्धा माँ को घर से बाहर इतनी भारी भीड़ में ले जाना ! टेस्ट रिपोर्ट में मम्मी जी कोविड पॉजिटिव । ओह, अब क्या होगा ! मेरे मन में संशय है । मैं जिन तकलीफों से गुजर रही हूँ क्या मम्मी जी वो सब झेल पाएँगी । ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ वो जल्दी स्वस्थ हो जाएँ। मन ही मन गायत्री मन्त्र और महामृत्युंजय मन्त्र का जाप करती हूँ ।
आज 28 अप्रैल है, कोविड पॉजिटिव होने का चौदहवाँ दिन । सुबह से 100 डिग्री बुखार है । बदन टूट रहा है । सिर दर्द भी पिछले 10 दिनों से लगातार हो रहा है । ना जाने क्यूँ दवा भी सिरदर्द पर असर नहीं कर रही ! गए दिनों हाल-चाल पूछने कई लोगों का फ़ोन आया । किसी से थोड़ी बात हुई किसी से बिलकुल नहीं । थोड़ा बोलने पर हाँफ जाती हूँ । कोविड में स्वाद और गंध की इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो चुकी हैं । रात को किसी तरह खाना निगलती हूँ । दवा पूरी करके ऑक्सीजन, टेम्परेचर और बी पी नापती हूँ । सिर में बाम लगाकर दुपट्टे से सिर को कसकर बाँधती हूँ । रात साढ़े दस बजे अचानक मेरे कमरे का दरवाजा खुलता है और सामने पति लाल आँखों से मुझे देखते हैं…. “विनी, मम्मी !” मैं चिहुँक कर उठने का प्रयत्न करती हूँ,
“क्या हुआ मम्मी जी को ?”
पति ना में सिर हिलाते हैं और फूट फूट कर रोने लगते हैं, “कोरोना ले गया मम्मी को ।“
दोनों बच्चे सन्नाटे में हैं । पिता को इस तरह रोते हुए उन्होंने कभी नहीं देखा । मैं मास्क पहनकर उनकी ओर बढती हूँ । पति तुरन्त हाथ के इशारे से मना करते हैं । मेरे हाथ-पाँव काँपने लगते हैं और में कटे वृक्ष सी पलंग पर गिर पड़ती हूँ । थोड़ी देर पहले जो बी पी नॉर्मल आई थी अब अचानक से गिरकर काफी नीचे खिसक आई है ।
यह रात बड़ी भारी बीती । पूरी रात हम चारों जागते रहे । मै फिर से यादों की गलियों में हूँ । अबकी सिर्फ मम्मी जी से जुड़ी यादें । मम्मी जी गत वर्षों से एक मानसिक रोगी हैं । उन्हें डेमेंशिया (Dementia, Alzheimer) है । उन्हें अब कुछ भी याद नहीं रहता । किसी को ठीक से पहचानती नहीं हैं । पिछले वर्ष ससुर जी के स्वर्गवास के बाद मम्मी जी को गाँव से हम अपने साथ ले आए थे । हमारे साथ रहते हुए वो हममे से किसी को भी नहीं पहचानती थीं । बहुत ध्यान रखने के बावजूद एक दिन जब मैं नहाने गई, मम्मी जी ना जाने कैसे इंटरलॉक दरवाजा खोलकर बाहर निकल गईं । पागलों की तरह रोते-चीखते जब मैं उन्हें सड़क पर सब तरफ़ दौड़-दौड़ कर ढूँढ रही थी तब उन्हें खो देने के ख्याल मात्र से ही सिहर उठी थी । बच्चे भी स्कूल से आते ही अलग-अलग दिशा में दौड़ पड़े थे । एक-डेढ़ घंटे के बाद वो मिलीं, तब तक बता नहीं सकती मेरी हालत क्या हो चुकी थी । सब मुझे कह रहे थे कि ऐसी अवस्था में मैं उन्हें गाँव से यहाँ बंद फ्लैट में क्यूँ लेकर आई !
मेरी शादी से लेकर बच्चों के जन्म और तबसे अब तक की सासु माँ से जुड़ी अनेकों यादें तेजी से आँखों के सामने से गुजरती हैं । इनकी गति इतनी तेज है कि मेरा सिर चकराने लगता है । कोशिश करती हूँ कि मम्मी जी का हँसता-मुस्कुराता चेहरा याद आए लेकिन हर बार उनका निष्तेज़, भावहीन चेहरा दिख रहा जिसमे अपनापन की जगह अजनबीपन है । इन दिनों उनका चेहरा ऐसा हीं हो गया था । मैं रो पड़ती हूँ । किसी अन्य वृद्ध व्यक्ति की परेशानियाँ और उनकी मजबूरी देखकर मेरा मन व्यथित हो जाता है, ये तो मम्मी जी थीं । रात के ढ़ाई बजे पति मुझे देखने आए । मै जाग रही थी । उन्होंने इतना हीं कहा, ‘ विनी, खुद को सम्भालो और सो जाओ । यदि अभी तुम्हें कुछ हुआ तो मैं सम्भाल नहीं पाऊँगा ।“ मुझसे पति की अवस्था देखी नहीं जा रही, एक तरफ़ पत्नी कोविड से जूझ रही है और दूसरी तरफ़ माँ चल बसी हैं । लॉक डाउन चल रहा है, राज्यों के बॉर्डर सील हैं । माँ हमेशा कहती हैं, “वक्त सबसे बलवान है। “ सच में समय के आगे बड़े से बड़ा व्यक्ति मजबूर हो जाता है । ईश्वर मम्मी जी की आत्मा को शान्ति प्रदान करें ।
मै सोने का प्रयास करती हूँ । पर ना जाने कहाँ से बिट्टू याद आ गया । कुछ समय पहले अपने जन्मदिन पर एक अनाथालय गई थी । वहाँ के बच्चों को मिठाईयां खिलाई और उनके साथ कई घंटे समय व्यतीत किया । म्यूजिक पर बच्चों ने खूब डांस किया । ढेर सारे बच्चों की ढेरों कहानियाँ । रोंगटे खड़े करने वाले अतीत से पीछा छुड़ाने की कोशिश करते अनेक मासूम बच्चों में एक था बिट्टू । उसने अपनी खुद की लिखी कविता सुनाई । इतने बच्चों में एक मात्र बिट्टू ने हमसे खूब बात की और अपनी कहानी अपनी जुबानी सुनाई । काफ़ी गर्मी पड़ रही थी इसलिए ऑनलाइन एक कूलर खरीद कर बच्चों के लिए भिजवाया था । कहाँ होगा बिट्टू ? क्या अब भी वो कूलर की ठंडी हवा में चैन से सो रहा होगा या फिर कहीं और जीवन के थपेडों से जूझ रहा होगा ?
उफ़ ! इतनी सारी यादें क्यूँ पीछा कर रही हैं ? दर्द के अतिरेक में मेरा ध्यान बाँटने का, ये मेरे दिमाग का एक प्रयास है या फिर मेरे शरीर रुपी मशीन के शट डाउन की तरफ़ जाने का संकेत ! हे ईश्वर, तो क्या कल का सूरज नहीं देख पाऊँगी ! आँखों में पूरे परिवार का चेहरा भर लेती हूँ । सबको गले लगाने की छटपटाहट हो रही । माँ-पापा तथा सभी मित्रों-परिजनों से अपनी भूलों के लिए मन हीं मन क्षमा माँगकर पलकें मूँद लेती हूँ । मन में ख्याल आ रहा कि जीवन कितना अनमोल है ! बचपन से सुनते आए, “स्वास्थ्य हीं धन है ।“ आज किसी और चीज की चाहत नहीं । किसी के प्रति मन में कोई मैल नहीं, कोई कड़वाहट नहीं । जो बातें अब तक का जीवन नही सीखा पाया कोरोना ने वो भी सीखा दिया है । ये चौदह दिनों का आइसोलेशन मेरे जीवन में चौदह मोतियों वाला सीपी बनकर आया । हर दिन एक अनमोल सीख देकर गया । मैंने हर एक सीख को आत्मसात कर लिया है । माँ कहतीं हैं कि लम्बे संघर्ष या लम्बी बीमारी के बाद व्यक्ति और अधिक नम्र हो जाता है, धरातल से जुड़ जाता है । एक अदृश्य शक्ति ने जैसे सशक्त हाथों से मुझे थाम लिया, कुछ जोश भर दिया । मैं मन हीं मन बुदबुदाती हूँ, “जानती हूँ, मैं बिलकुल ठीक हो जाऊँगी । जल्द हीं आइसोलेशन से बाहर आऊँगी वो भी पहले से बेहतर व्यक्ति बनकर ।“ हे ईश्वर! सबकी रक्षा करें ।
“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित्दुख्भाग्भवेत ।”