समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में शिवमूर्ति जी का नाम किसी से अनभिज्ञ नहीं है। शिवमूर्ति जी का जन्म सुल्तानपुर जनपद के कुरंग गाँव में हुआ है जो सुल्तानपुर- प्रयागराज रोड पर दुर्गापुर बाजार के निकट स्थित है। वैसे तो साहित्यिक कार्यक्रमों में शिवमूर्ति जी से काफी मिलना -जुलना हुआ है पर किसी खास मौके पर उनके गाँव मैं पहली बार गया अवसर था। अवसर था महान कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की जन्मशताब्दी वर्ष समारोह का।
68 वर्ष की आयु में दद्दा (शिवमूर्ति जी को मैं प्यार से बुलाता हूँ) और चाची जी यानी श्रीमती सरिता जी (शिवमूर्ति जी की पत्नी), उनकी सहयोगी श्रीमती ममता सिंह जी जिस प्रकार से मेहमानों की आवभगत कर रहे थे वह अविस्मरणीय है। दो चार लोगों को संभालना कितना मुश्किल होता है और वह भी जब साहित्य के विभिन्न विधाओं के लोग हो तो उनको संभालना और भी मुश्किल हो जाता है पर शिवमूर्ति जी एक सूत्रधार की तरह सारे लोगों को सुबह से रात तक समेटे रखें। कोई भी ऐसा अतिथि नहीं था जिनको उन्होंने रेणु जी पर दो शब्द कहने के लिए आमंत्रित ना किया हो। लोगों के खानपान,रहन-सहन,मंच संयोजन, फोटोग्राफी आदि की सारी व्यवस्था उनके घर-गाँव के ही बुजुर्ग और युवा के लोग संभाल रहे थे। कोई बबर्ची हलवाई नजर नहीं आ रहा था। छोटे -छोटे बच्चे दिनभर चाय पानी लेकर दौड़ रहे थे। और भोज्य पदार्थ उन्हीं के खेतों में उगे अन्न का था। बाजार से दिखावे कोई चीज उन्होंने नहीं बनावाया था।
उनके घर पर आधुनिक और प्राचीनता दोनों का ही संगम नजर आता है। एक तरफ तीन मंजिला मकान तो बगल में है उनके पुरुखों द्वारा निर्मित खपरैल आज भी पूर्वजों की गौरवगाथा का गुणगान करता है। सामने की तरफ विभिन्न प्रकार के देसी विदेशी फूल पौधे, मछली पालने के लिए तालाब, गौशाला, पूरब की तरफ दूर तक लहलाहते गेहूं और सरसों के खेत, बरबस सभी का ध्यान आकर्षित कर लेते हैं। लोगों का आपसी भाईचारा देखकर लगता है कि शिवमूर्ति जी की रचनाओं का गांव आज भी जिंदा है। एक बार उनके गाँव पहुँचने वाला बार- बार जाना चाहेगा।