
हिन्दी दिवस आ रहा है। अब एक बार फिर ‘हिन्दी मेरी माँ है’, ‘हिन्दी बचाओ’ जैसे नारों से आभासी मंचों की दीवारें रंगी जाएंगीं। परिणाम? वही ढ़ाक के तीन पात! हिन्दी के विकास के लिए नारों अथवा बड़े-बड़े सम्मेलनों में भाषणबाज़ी का कोई औचित्य ही नहीं, यदि इस दिशा में जमीनी स्तर पर कुछ नहीं किया जा रहा हो! यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि हमारी भाषा की यह दुर्गति हिन्दी भाषियों के द्वारा ही अधिक की गई है। भले ही ऐसा करने की उनकी मंशा नहीं थी और इसके पीछे उनकी व्यक्तिगत कुंठा या सोच ही रही हो।
हम उस शिक्षा पद्धति में पले-बढ़े हैं जहाँ यह मान्यता है कि विकास के लक्ष्य अंग्रेजी मार्ग से होकर ही प्राप्त किये जा सकते हैं। यह बात कुछ हद तक सही भी है क्योंकि कई छात्रों के लिए हिन्दी भाषा की प्रावीण्यता और...
प्रीति अज्ञात