कथा-कुसुम
फ़र्क़ की संवेदना
“लीजिए लीजिए…आइए जी! खाइए पकौड़े। इस बारिश में कुछ चटपटा तो बनता है।”
“सही कह रही हो, इस बारिश में चटपटे तो…भई, वाह! इसी तरह चार-पाँच दिन बारिश हो तो क्या मज़ा! और बरसो भगवान!” एक बड़ी बिल्डिंग में रहे पति-पत्नी बतिया रहे थे।
इधर- एक मड़ई में रह रहा दंपती झख़ रहा था। “हे भगवान! कब मेघ छूटेगा। छप्पर से चू रहे पानी से घर में बाढ़-सी आ गई है। चूल्हा-चौंका ठण्डा पड़ा है। फसल सब डूब गई है। अब छूटो भगवान…!”
मैं उस बिल्डिंग से उतरता, उस मड़ई से होकर गुज़र रहा था। सोच रहा था- इस फ़र्क़ की संवेदना एक कैसे होगी?
गिरगिट
“उठिए जी, उठिए…! दोपहर हो चली है। बाल श्रम उन्मूलन दिवस में नहीं जाना क्या? फेसबुक पर भी तो कुछ संदेश डालना होगा!” श्रम मंत्री की पत्नी ने कहा। “अरी भाग्यवान! थोड़ा भी सो लो कि…। यह नेतई भी…। जाओ बंटी से बोलो गाड़ी साफ करे।”
न चाहकर भी मंत्रीजी गाड़ी में बैठकर प्रोग्राम के लिए निकल पड़ते हैं। रास्ते में झुग्गी-झोंपड़ी के बच्चों को खेलते देख, गाड़ी रुकवाते हैं और…
“हाँ सर…! ऐसे ही…। बढ़िया पोज है। एक बार और सर। हाँ…हाँ…। हो गया।”
मंत्रीजी ने उन तस्वीरों को फ़ेसबुक पर अपलोड कर दिया। कैप्शन के साथ- “सभी को शुभकामनाएँ! हमें बाल श्रम के ख़ात्मे के लिए संकल्प लेना चाहिए कि हम न बाल श्रम कराएँगे और न ही करने देंगे।”
इधर सेक्रेट्री फ़ेसबुक पर देखकर मन-ही-मन बुदबुदाता- “ख़ुद घर में बच्चा नौकर रखकर…” लाइक़ का ऑप्शन दबा देता है!
– सुमन कुमार