कथा-कुसुम
ज़िन्दगी की जंग
रौशनी पड़ते ही आँखें मिचमिचा उठीं और शरीर ने भी एक लम्बी अँगड़ाई ली। मगर पाँव, हिलने को तैयार न थे। मन, जो सब कुछ देख रहा था, उससे रहा न गया। वह उन्हें झकझोरते हुए बोला, “चलो उठो, सुबह हो चुकी है।”
पाँव कुनमुना उठे, “बस, थोड़ी देर और…।”
“तुम्हें हुआ क्या! तुम तो सदा अनुशासन प्रिय थे!” मन आश्चर्यचकित हो उठा।
जिह्वा को भी अब चाय की तलब लग आई थी, मगर वह मौन साधे बैठी रही।
तभी दाँया हाथ काँपता हुआ, पाँव की ओर बढ़ चला। उन्हें सहलाता, उनकी मनुहार करने लगा।
पाँव ने धीरे से अपनी ऊँगलियाँ हिलायीं, “उठना तो चाहता हूँ, मगर पोर-पोर ऐंठा जा रहा है, नसें तनी पड़ी हैं।” फिर एक गहरी साँस लेते हुए बोला, “हम सभी ने पिच्चासी वर्ष पूरे कर लिए, अपने जीवनकाल के। ये सब तो अब उम्र की मार है।”
“हाँँ, सही कहा। वो भी क्या दिन थे, जब देश की सीमा पर, दुर्गम पहाड़ियों पर दौड़ते हुए, तुमने कदम-कदम पर मेरा साथ दिया था।” पाँव को सहलाता हुआ हाथ अचानक थम गया।
“याद करो, तब हम कितने जवान हुआ करते थे। तुमने तो दुश्मनों के छक्के ही छुड़ा दिए थे; क्या धड़ाधड़ गोलियाँ बरसायी थीं उन पर!” पाँव भावुक हो उठा।
“कमाल तो हमारी इन आँखों का था। ज्यों ही ये निशाना साधतीं, मैं गोलियाँ दाग देता।”
अपना नाम सुनते ही आँखें रो पड़ीं और मन, उदासी में डूबने लगा।
अचानक मस्तिष्क ने शरीर के सभी अंगों को सावधान करते हुए संदेश भेजा, “बीती बातें छोड़ो, वक्त आ गया है, अब मन को साधने का। मेरे वीर सिपाहियों! उठो चलो और लग जाओ अपनी दिनचर्या पर।”
सुनते ही शरीर फौरन हरकत में आ गया। एंठते हुए पाँव ज़मीन पर जा टिके और झूलते शरीर को साधते हुए आगे बढ़ चले, “असली जंग तो अभी बाकी है; ‘ज़िंदगी की जंग’।”
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मन के जीते जीत
भाभी जी का पारा सातवें आसमान पर था। भीड़-भाड़ वाले इलाके में, कीचड़ से भरी सड़क पर लेफ़्ट-राईट करती चली जा रही थीं, मानो कोई जंग जीतने जा रही हों। अपने सम्बल के लिए अपनी पड़ोसन छुटकी को भी साथ लिए जा रही थीं।
उनके तेवर देखकर छुटकी बोली, “भाभी, जरा धीरे चलिए न! कढाई बदलने की ही तो बात है। आप इतनी परेशान क्यों हुई जा रही हैं?”
“अरी छुटकी! यहाँ परेशानी कढाई की थोड़ी न है। बात तो दुकानदार की बदसलूकी की है, जो उस दिन उसने हमारे साथ की थी।”
“तो आपने उससे कढाई खरीदी ही क्यों?”
“वही तो, मैं ही बावली, जो रीता के कहने में आ गयी कि ये दुकान बड़ी अच्छी है।”
“ऐसा गुस्सा तो आपका पहले कभी देखा नहीं!”
“तू क्या जाने छुटकी? वो हमें औरत जानकर, हम पर अपना रुआब दिखा रहा था। जैसे औरतों की इज़्ज़त करना जानता ही नहीं!”
“लेकिन भाभी, अगर उसने कढाई नहीं बदली तो?”
“नहीं बदली, तो वहीं पटक आऊँगी, कह दूँगी, लो रख लो मेरी तरफ से तुम्हें दान। फिर तो अच्छी तरह से सुनाकर भी आऊँगी, “अपने घर की औरतों की तरह हमें न समझना। सारी औरतें तुमसे न दबने वाली…।”
“लो, दुकान भी आ गई। भाभी चुप रहियेगा, किसी तरह अपना काम हो जाए बस…।”
दुकानदार ने आँखें तरेर कर उनकी ओर देखा, फिर झोले की ओर, “फिर आ गयीं आप?”
“तो क्या करते? उस दिन आपने जो कढाई दी थी, घर जाकर देखा तो उसका कुंडा चिटका हुआ था।” भाभीजी ने खुद को संयत करते हुए कहा।
“ज़रूर पटकी होगी रास्ते में कहीं आपने…”
भाभीजी ज़ोर से खिलखिला पड़ीं, “येल्लो! कोई कढाई पटकने के लिए थोड़ी न सीखा था जूडोकराटे। पटकना होगा तो किसी आदमी को पटकूँगी ना। और कढाई तो उस दिन आप पटक रहे थे, एक के ऊपर एक। मैंने आपसे कहा भी था कि ज़रा धीरे से रखिये, तो आप नाराज़ होकर बोले थे कि, “बहुत बोलती हैं आप।” एक साँस में बोलती भाभीजी स्टूल पर धरना देकर बैठ गयीं।
सकपका कर दुकानदार ने चोर निगाहों से ग्राहकों की ओर देखा, फिर धीरे से बोला, “लाइए, आपकी कढाई बदल देता हूँ।”
– प्रेरणा गुप्ता