विमर्श
ग़ज़लकार डॉ. ऋषिपाल धीमान
ग़ज़ल के क्षेत्र में आज ये अनजाना नाम नहीं,
वो अलग बात है सबको उनकी पहचान नहीं।
मैं कोई गज़लकार नहीं, एक उम्र बीतने पर जब दुबारा पढ़ाई शुरू की तब आ. स्व. रहमत अमरोहवी जी को मिली। विद्यापीठ में लगभग हर साहित्यिक कार्यक्रम में मुझे आमंत्रित कर ही लिया जाता। पी. एचडी करते हुए आकाशवाणी से भी निमंत्रण मिलने लगे, ख़ुशी हुई। वो एक अलग समय था लंबे समय के बाद शिक्षा व साहित्य से जुड़ाव हुआ था। आ. अमरोहवी जी विद्यापीठ में उर्दू की कक्षाएँ लेने आते। कई कार्यक्रमों में जब उन्होंने मेरी कुछ पद्य रचनाएँ सुनी, कहा: “परनव! तुम्हारे अंदर ग़ज़ल तो है, लिखती क्यों नहीं?” बहुत शांत, सरल, सौम्य अमरोहवी जी कम बोलते, आँखें सदा नीची ही रखते। मुझे वो पिता-से स्नेहिल लगते।
शायद कहीं कुनमुनाती थी ग़ज़ल, पर सच कहूँ तो हाथ न आती थी ग़ज़ल। मूल रूप से कविता व गद्य लिखने वाली मैंने कभी उसे गंभीरता से नहीं लिया। कुछेक ग़ज़ल कही भी गईं लेकिन मुझे ‘कॉन्फिडेंस’ नहीं आया। कुल चालीस/पचास ग़ज़ल कही होंगीं, वे भी सब आ. अमरोहवी जी के इस स्वीकार के बाद कि वो ग़ज़ल ही हैं या उनमें ये बदलाव करो के साथ। थोड़ी-सी आवाज़ ठीक-ठाक थी, मंच पर चल जाती।
हाँ! पढ़ती, सुनती ख़ूब रही, अगर ग़लत नहीं हूँ तो ‘साहित्यालोक’ मंच पर सबसे पहले आ. जैन साहब की ग़ज़लें सबसे अधिक सुनीं, जो वर्तमान माहौल पर कहते थे। उनकी ग़ज़लें ज़मीन से जुड़ी व खूब लंबी होती हैं। आ. डॉ. किशोर काबरा जी के गीत, उनका लेखन व उनका शिक्षण, जिसने अपने शिक्षक का बखूबी कर्तव्य-निर्वहन किया। इस मंच से काबरा जी ने गीत के क्षेत्र में कई नवसीखिए कवियों को गीत की परिपाटी पर चलने का मार्ग-निर्देशन किया।
स्नेही डॉ. द्वारिका प्रसाद सांचिहर गीत-ग़ज़ल दोनों कह रहे थे किन्तु उनका रुझान गीतों की ओर अधिक था। जो भी ग़ज़लें उन्होंने कही, इसमें कोई शक नहीं कि अपने में मुकम्मल ग़ज़ल कही। मूलत: वो गीतकार थे, उस समय उन्हें ‘गीतों का राजकुमार’ टाइटल से नवाज़ा जाता। क्या ख़ूबसूरत आवाज़ में उनकी प्रस्तुति होती! मंच पर समां बाँध देते थे, आज उनकी शिथिल अवस्था देखकर कष्ट होता है।
मैं अपने गीतों व कहानी, उपन्यासों, सीरियल-लेखन में सिमटकर रह गयी। उस समय यह बात तो मन में नहीं थी कि मैं क्या कह सकती हूँ? क्या लिख सकती हूँ? उस समय तो बस जो मन में उठे, उन भावों को कागज़ पर उतारने की जल्दबाज़ी बनी रहती थी, जो बारह वर्ष की उम्र से झकझोरती रही थी गद्य व गीत के रूप में कुछ न कुछ लिखवाती रही थी। कितना रोमांच हुआ था जब शायद तेरह वर्ष की उम्र में धर्मयुग ने एक छोटा-सा लेख छाप दिया था। लेखन बारह वर्ष से घर के शिक्षित वातावरण के कारण शुरू हो चुका था। परिवार चलने के साथ समय की रफ़्तार में जो भी आया- ‘हम उसी के हो लिए’ वाली स्थिति बनी।
डॉ. ऋषिपाल धीमान जी को बरसों पूर्व से ‘साहित्यालोक’ परिवार से जानना शुरू किया और ज्यों-ज्यों समझती गई, मानसिक समीपता महसूस करती गई। गुजरात में अहमदाबाद स्थित सबसे पुरानी ‘साहित्यालोक’ संस्था की नियमित गोष्ठियों में उनकी ग़ज़लें बरसों से सुन,पढ़ रही हूँ। एक ऐसा कवि व गज़लकार, जिसकी रूह से शब्द वाबस्ता हैं, चाहे वह गीत हो अथवा ग़ज़ल! जहाँ तक मैं समझती हूँ मूल रूप से वे गज़लकार ही हैं। उनकी ग़ज़लें उनके दिल की ज़मीन से निकलकर मस्तिष्क के मंच को छूकर आहिस्ता-आहिस्ता चलकर श्रोता के मन की सतह पर पहुँच जाती हैं। उनकी आत्मा में ग़ज़ल बसती है। पता नहीं क्यों, मुझे उनकी ग़ज़लों में वो रवानी महसूस होती है, जो एक ‘इश्क़’ की गहराई में होती है। जिसे हम ‘सोल-मेट’ भी कह सकते हैं। यानी उनकी ग़ज़लें, उनकी ‘सोलमेट’ हैं। ऎसी मेहबूबा की तरह, जो केवल इश्क़ ही ओढ़ती-बिछाती हो, उससे दीगर कुछ नहीं। केवल देना, न कोई दूसरी चाह न इच्छा। इसी इश्क ने ऋषिपाल जी को ग़ज़लों का ख़ज़ाना नवाज़ा।
साहित्य का क्षेत्र ऐसा क्षेत्र है, जिसमें अपनी पसंद के मार्ग पर चला जा सकता है। यदि पेट भरने का मसला न हो तो! इस मामले में डॉ. धीमान भाग्यशाली हैं। उनको काम व पैशन में परिवार के साथ का सुखद साथ मिला। चश्मेबद्दूर!
यह कोई समीक्षा नहीं है, यह उनकी ग़ज़लें पढ़ते-पढ़ते जो विचार मन को छूते रहे, उनका एक सिलसिला है।
कोई भी विषय हो, उनकी कलम को छूकर नरम अहसास में ढल जाता है और हौले-से पाठक या श्रोता को छू जाता है। वास्तव में यहीं हम उनके व्यक्तित्व से रूबरू होते हैं। सहज, सरल व्यक्तित्व में ऋषि का गुण अवतरित होता है। खुद्दारी लेकिन सहजता से कही बात सलीके की मिसाल बन जाती है।
कितने खूबसूरत शेर हैं, जो पिघली पवन की तरह मन की सतह पर चहकदमी करने लगते हैं। आध्यात्मिकता उनके नाम से मेल खाती है, इसके लिए कोई ख़ास मशक्कत करने की ज़रूरत नज़र नहीं आती।
मलाल उसको नहीं होता है दुनिया छोड़ जाने का
‘ऋषि’ रहता है जो जग में किराएदार की सूरत
हमें मतलबपरस्तों की बस्ती में न कोई ढूंढें,
हमारा तो ठिकाना है वफ़ा की राजधानी में
जिसके हाथों में हो पतवार इबादत की वह
ग़म के दरियाओं में बेख़ौफ़ उतर जाता है
गुज़रे हुए पलों से न कोई सवाल कर
जो हो गया सो हो गया मत अब मलाल कर
जो मेरी जात के अंदर है एक जुगनू-सा
उसी का नूर है बिखरा हुआ ज़माने में—-(अहं ब्रह्मास्मि)
मुश्किलों का निज़ाम अपनी जगह
और दुआओं का काम अपनी जगह
करो न शोर रहो चुप विचार के बच्चों!
कि संध्या-वृक्ष पे बैठीं हैं ध्यान की चिड़ियाँ
जीवन की हरेक ताल पर ये ग़ज़लें कही गईं हैं।
ज़मीं से आसमान तक लिखी गई है ग़ज़ल।
सच ही! आसमाँ छूआ, फली-फूली है ग़ज़ल!!
ग़ज़लों में गुजरने से बहुत-सी स्मृतियाँ ताज़ा हो गईं हैं।
कोई संशय नहीं कि डॉ. ऋषिपाल धीमान का ‘तस्वीर लिख रहा हूँ’ ग़ज़ल-संग्रह भी उनके अन्य संग्रहों के समान ही पाठक के मन की तहों को छूता हुआ संवेदनाओं के द्वार पर ले जाकर एक छुअन का अहसास कराएगा। डॉ. ऋषिपाल धीमान को मेरी अशेष शुभकामनाएँ। वे इसी प्रकार ग़ज़ल-जगत में एक लाड़ले गज़लकार के रूप में प्रतिष्ठित होते रहें। साहित्य-जगत में उनका मुक़ाम ऊँचा और ऊँचा हो।
– डॉ. प्रणव भारती