विमर्श
हिन्दी लघुकथा में भाषा का महत्व
– कल्पना भट्ट
परस्पर अभिव्यक्ति हेतु जिस साधन का उपयोग किया जाता है, उसे ‘बोली’ कहते हैं और ‘बोली’ को जब हम लिखित रूप में अभिव्यक्त करते हैं तो वह लिखित रूप ‘भाषा’ कहलाता है।
भाषा का शाब्दिक अर्थ (बृहत् हिन्दी शब्दकोश पृष्ठ- 1874) के अनुसार: भाषा संज्ञा है, जो (भाष्+अ+टाप्) से बना है। यह स्त्रीलिंग शब्द है।
1. बोलकर, लिखकर या ध्वनि-संकेतों में भावों और विचारों के प्रकट करने का साधन। मनुष्यों के परस्पर विचार-विनिमय में प्रयुक्त ध्वनि-चिह्नों की समिष्ट।
2. उक्त कार्य के लिए किसी देश या समाज में प्रचलित शब्दावली और उसे बरतने का ढंग। बोली: एक भाषा के अंतर्गत अनेक बोलियाँ होती हैं और उनमें से कोई एक भाषा के अंतर्गत अनेक बोलियाँ होती हैं और उनमें से कोई एक भाषा के रूप में मान्य हो जाती है।
हिन्दी साहित्यकोश भाग-1 पृष्ठ: 463 के अनुसार: जिन ध्वनि चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार/विनिमय करता है, उनकी समिष्ट को भाषा कहते हैं। भाषा के इस लक्षण में विचार के अंतर्गत भाव और इच्छा भी है। विशेषकर असभ्य जातियों की भाषा में अधिकतर भाव, इच्छाएँ, प्रवृत्तियाँ आदि ही द्योतित होती हैं, विचारों की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है। (पृष्ठ- 464): यदि वैज्ञानिक और सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो भाषा मनुष्य के केवल विचार-विनिमय का ही साधन नहीं है, विचारों की साधन है। भाषा का विचार से अटूट सम्बन्ध है। इसे मनुष्य अपने पूर्वजों से सीखता आया है। इस सीखने के कारण ही भाषा में विकार अथवा परिवर्तन अवश्यम्भावी है और यही कारण उसकी अपूर्णता का है।
साहित्य की हर विधा को लिखने की भाषा भिन्न-भिन्न होती है। जैसे लेखों में हम जिस भाषा का उपयोग करते हैं वह तत्सम्-मय होती है, किन्तु कथात्मक विधाओं जैसे उपन्यास, कहानी और लघुकथा में एक ही रचना में दो प्रकार की भाषाएँ चलती हैं, जो भाषा विवराणत्मकता में आती है, वह रचना के परिवेश को प्रत्यक्ष करती है, उसी में जब भाषा संवाद के रूप में आती है वह उच्चरित भाषा कहलाती है। लघुकथा भी इसका अपवाद नहीं है।
डॉ. सतीश राज पुष्करणा ने अपने आलेख ‘हिन्दी लघुकथा: संरचना और मूल्यांकन’ में लघुकथा की संरचना को मुख्यत: दो तत्त्वों में विभाजित किया है- 1. कथानक (कथोपकथन) एवं 2. शिल्प, और शिल्प के छह उप्तत्त्व जिसमें से तीसरा उप्तत्त्व भाषा और शैली के विषय में विस्तृत विचार व्यक्त किये हैं। उनके अनुसार- ‘लघुकथा में दो प्रकार की भाषाओं का सामानांतर रूप में उपयोग होता है। पहली तरह की तो वह, जो लघुकथा में लेखक अपनी और से कहता है, प्रस्तुत करता है। दूसरी तरह की वह, जो पात्र और पात्रों के चरित्र बोलते हैं/अभिव्यक्त करते हैं। लघुकथा में दोनों प्रकार की भाषाओँ का महत्व होता है। लेखक लघुकथा को प्रभावकारी एवं सम्प्रेषणीय बनाने हेतु अपनी मौलिक शैली प्रस्तुत करता है और यही शैली लेखक की अलग पहचान उपस्थित करती है, बनाती है…।’ वह आगे लिखते हैं, “कुछ लघुकथाएँ तो संवादों में ही पूरी हो जाती हैं। यह स्थिति कथानक की आवश्यकता पर निर्भर करती है। संवादों वाली लघुकथाओं में निश्चित रूप से उच्चरित भाषा (चरित्रनुकुल भाषा) का ही सटीक उपयोग होता है, होना चाहिए।” इसी आलेख में आप लिखते हैं कि, “अन्य विधाओं की अपेक्षा लघुकथा की भाषा-शैली में अपेक्षाकृत विराम-चिह्नों का अत्यधिक महत्व है। इसका कारण इसका अन्य विधाओं से अपेक्षाकृत अधिक क्षिप्र एवं सुष्ठु होना है। प्राय: वरिष्ठ लघुकथाकारों ने विराम-चिह्नों का सटीक उपयोग करके अपनी लघुकथाओं को ऊँचाईयाँ प्रदान की हैं। इनमें प्रमुख- पारस दासोत, कमल चोपड़ा, मधुदीप, शंकर पुणताम्बेकर, सुकेश सहनी, रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’, सतीश राठी, सतीश दुबे इत्यादि की लघुकथों का अवलोकन किया जा सकता है। विराम-चिह्न वस्तुत: भाषा-शैली के ही महत्त्वपूर्ण अंश हैं।
डॉ. सतीश राज पुष्करणा के दुसरे आलेख, ‘हिन्दी लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु’ (पुस्तक: हिन्दी लघुकथा की रचना-प्रविधि पृष्ठ- 64) से:
भाषा-शैली के सन्दर्भ में उदाहरण स्वरुप मधुदीप की लघुकथा ‘हिस्से का दूध’ का सहज ही अवलोकन किया जा सकता है-
हिस्से का दूध (मधुदीप)
उनींदी आँखों को मलती हुई वह अपने पति के करीब आकर बैठ गयी। वह दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था।
“सो गया मुन्ना…?”
“जी! लो दूध पी लो।” सिल्वर का पुराना गिलास उसने बढाया।
“नहीं, मुन्ना के लिए रख दो। उठेगा तो…।” वह गिलास को माप रहा था।
“मैं उसे दूध पिला दूँगी।” वह आश्वस्त थी।
“पगली, बीड़ी के ऊपर चाय-दूध नहीं पीते। तू पी ले।” उसने बहाना बनाकर दूध को उसके और क़रीब कर दिया।
तभी-बाहर से हवा के साथ एक स्वर उसके कानों से टकराया। उसकी आँखें कुरते की खाली जेब में घुस गयीं।
“सुनो, ज़रा चाय रख देना।” पत्नी से कहते हुए उसका गला बैठ गया।
आपके मतानुसार: “इस लघुकथा में भाषा-शैली का चमत्कार यों तो पूरी लघुकथा में ही परिलक्षित होता है, जैसे– ‘उनींदी आँखों को मलती ही वह अपने पति के करीब आकर बैठ गयी। वह दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था।’
यहाँ इस वाक्य में श्रेष्ठ भाषा-शैली का नमूना देखें– “बाहर से हवा के साथ एक स्वर कानों से टकराया। उसकी आँखें कुर्ते की खाली जेब में घुस गयी।” यहाँ लेखक का वास्तविक रूप एक शैलीकार के रूप में सामने आता है। यह वाकया साधारण नहीं है। मधुदीप ने इसे लघुकथा के कथानक के अनुसार विशिष्ट रूप में प्रयोग करके लघुकथा-भाषा को अतिरिक्त सौन्दर्य प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है। जहाँ संवादों की भाषा-शैली की बात है तो वह आम सर्वहारा, घर-परिवार के पति-पत्नी, जो आपस में एक-दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं, कि सहज बोलचाल की आत्मीय भाषा है। जैसे– यह संवाद देखें: “पगली, बीड़ी के ऊपर चाय-दूध नहीं पीते। तू पी ले।”
हिन्दी-लघुकथा के एक और वरिष्ठ हस्ताक्षर, जगदीश कश्यप ने अपने आलेख, ‘लघुकथा की रचना-प्रक्रिया और नया लेखक’ (सन्दर्भ: लघुकथा: बहस के चौराहे पर, संपादक: सतीश राज पुष्करणा, पृष्ठ- 167) ने लघुकथा का कथ्य प्रकटीकरण के अंतर्गत बिंदु (ब) भाषा-प्रयोग में उदार दृष्टिकोण में लिखा है: “अच्छा लेखक वही है, जिसे क्लिष्ट शब्दों से परिचय हो परन्तु सरल शब्दों में अभिव्यक्ति दे। भाषा-प्रयोग के बारे में प्रेमचंद की लोकप्रियता सर्वविदित है जबकि जयशंकर प्रसाद इसी शुद्ध भाषा प्रयोग के कारण कहानी में उतने सफल नहीं हो सके, जितने कि प्रेमचंद। हमें यह नहीं देखना चाहिए कि फ़लां शब्द उर्दू का है, पंजाबी का है या तमिल का। अगर वह शब्द समाज में किसी बात के लिए लोकप्रिय है और उसके प्रयोग की पाबन्दी केवल यह समझकर लगायी जाए कि इससे लघुकथा की भाषा का अन्तर पड़ेगा, समझदारी नहीं है। देखना यह है कि किस शब्द का प्रयोग कितना विस्फोट करता है।”
डॉ. शकुंतला ‘किरण’ ने अपने शोधकार्य पर आधारित पुस्तक ‘हिन्दी-लघुकथा (आठवें दशक की लघुकथाओं का समीक्षात्मक मूल्यांकन)’ के पृष्ठ 38 पर इसी सन्दर्भ में लिखा है कि, “किसी भी साहित्यिक विधा के लिए भाषा एक पुल है, जिसके माध्यम से रचनाकार अपना कथ्य पाठक व श्रोता तक सम्प्रेषित करता है। भाषा जितनी सादगीपूर्ण, अनगढ़, सहज, स्वाभाविक, आडम्बरहीन होती है कथ्य जन-साधारण के लिए उतना ही ग्राह्य व प्रभावोत्पादक होता है। लघुकथा की भाषा किसी एक विशेष धरातल पर विद्यमान न होकर एक रस नहीं अपितु विविधोन्मुखी है। उसमें विविध भंगिमाएँ हैं। वह व्याकरण-सम्मत या अभिजात्य-वर्ग की सुसभ्य अथवा टकसाली भाषा न होकर जनसामान्य के दैनिक जीवन की बोलचाल की सहज स्वाभाविक सीधी-सादी भाषा है, जो किसी आडम्बर, चमत्कार, पांडित्य-प्रदर्शन अलंकार से रहित एवं अपने कथ्य-परिवेश के अंतर्गत आये पात्रों के अनुरूप है, यहाँ तक कि पात्रागत आक्रोश के चरम-क्षण को व्यंजित करने के लिए इसे गालियों से भी गुरेज नहीं होता। इसमें कथ्य के सापेक्ष ही भाषा भी चुटीली, पैनी, व्यंग्यात्मक, आंचलिक या सपाट होती है। भाषा की सादगी के साथ ही इसमें शब्द-चयन पर अतिरिक्त सतर्कता अपेक्षित है ताकि कम से कम शब्दों में वर्णित स्थिति की अधिकतम जानकारी दी जा सके। प्रचलित मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रयोग भी लघुकथा को अभीष्ट रहा है क्योंकि इनके माध्यम से लम्बी-चौड़ी परिस्थितियों का कम शब्दों में सटीक चित्रण हो सकता है अतएव लघुकथा की भाषा जनसामान्य के प्रतिदिन की बोलचाल की साधारण, सहज, स्वाभाविक, भाषा है जो रचनाकार को निजी अस्मिता को सुरक्षित रखती हुई स्थितियों को यथावत प्रस्तुत कर उन्हीं के बीच में से प्रवाहित होती हैं।” आपने इस तथ्य के उदाहरण स्वरूप, महेश दर्पण की लघुकथा ‘रोजी’ (समग्र लघुकथा विशेषांक से) प्रेषित की है।
रोजी (लघुकथा)
तड़ाक…तड़ाक…तड़ाक…। उसने पूरी ताकत से सोबती के गाल पर तीन-चार तमाचे जड़ दिए। वह अभी और मारता पर पीछे से सत्ते ने हाथ रोक लिया- “पागल हुआ है क्या?… डेढ़ हड्डी की औरत है मर गयी… तो…” उसके हाथ रुके तो ज़ुबान चल पड़ी, “हरामजादी आँख फाड़-फाड़ के क्या देख रही है…रात भर में तुझे दो ही रुपये मिले बस? निकाल कहाँ रखे हैं…रोटी तोड़ते समय तो ऐसे…”
सोबती लाल आँखे, जो अब तक झुकी हुई चुपचाप सुने जा रही थी उसकी ओर उठ गयी, “चुप भी कर हिजड़े! रात भर बीड़ी के पत्ते मोड़े हैं और तू तन बेचना होता तो तुझे खसम ही क्यों करती!”
इसी प्रकार चित्रा मुद्गल की लघुकथा, ‘ग़रीब की माँ’, (छोटी बड़ी बातें) की भाषा भी आंचलिकता का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करती है:
ग़रीब की माँ (लघुकथा)
तेरे कू बोलने को नई सकता?
क्या बोलती मैं?
साली…भेजा है मगज में?
तेरे कू है न? तू काय कू नई बोलता सेठाणी से? भड़वा, अक्खा दिन पाव सेर मार कर घूमता…
हलकट्! भेजा मत घुमा बोल, बोला क्या?
खोली खाली करने कू बोलती।
तू बोलने को नई सकती? आता मेना में अक्खा भाड़ा चुकता कर देगा।
वो तो मैं बोली-
पिच्छू?
बोलती होती, मलप्पा को भेजना, खोली लिया, डीपासन भी नहीं दिया भाड़ा भी नहीं देता, नई चलेगा।
साला लोगन का पेट बड़ा। कैइसा चलेगा…सब मैं समझता।
तेरे कू कुछ जस्ती हो गया है, गप चुप सो जा! सेठाणी सुनेगा तो!
सेठाणी दुप्पर कूँ आई थी।
क्या बोलती होती?
खोली ताबड़तोड़ खाली करने को बोलती।
मैं जो बोला, वो बोली?
मैं बोली मलप्पा का माँ मर गया, मुलुक को पैइसा भेजा, आता मेना में चुकता करेगा।
पिच्चु?
बोली, वो पक्का खडूस है, छै मैना पैला हमारा पाँव पर गिरा-सेठाणी मुलुक में हमारा माँ मर गया, मेरे कू पन्नास रुपया उधार होना, आता मैना को अक्खा चुकता भाड़ा देगा, उधार देगा, मैं दिया, अजुन तक वो पैइसा नई दिया।
पिच्चु?
गाली बकने कू लगी…पक्का खडूस है साला! दो मेना पेला मेरे कू बोला होता, आता मेना में अक्खा चुकता करेगा, मुलुक में माँ मर गया, मैं पूछी- मेना पेला माँ मर गया था वो? तो बोला- सेठाणी, बाप ने दो शादी बनाया… भंकस्बाजी नई चलेगा, कल सुबु तक भाड़ा नई मिला, तो सामान खोली से बाहर…!!
तो क्या बोली?
क्या बोलती, मैं डर गई, बरसात में किधर कू जाना…मैं बोली सेठाणी झूँठ नहीं बोलता।
पिच्चु?
पिच्चु बोली, दो सादी बनाया तो तीसरा माँ किदर से आया?
क्या बोली तू?
दो के मरने के बाद का पिच्चु तीसरा सादी बनाया…!!!
यह आंचलिक लघुकथा, बम्बई के अभावग्रस्त दंपत्ति की विवशताओं का चित्रण करती है। ऐसी दंपत्ति की, जो खोली का किराया अदा न कर पाने की स्थिति में अपनी मान की मृत्यु के संवाद में मकान-मालकिन की संवेदना जुटाना चाहते हैं।
आपने इसी बात की महत्ता को उनके आलेख, ‘हिन्दी लघुकथा: विशेषताएं, व्याप्ति एवं निरन्तरता’ पृष्ठ 225 पर इसी तथ्य की पुष्टि की है।
‘लघुकथा का प्रबल पक्ष’ में बलराम अग्रवाल ने भी भाषा को महत्त्व देते हुए (पृष्ठ- 81) पर लिखा है कि, ‘भाषा’ एक संस्कार है जो न केवल परिवार और परिवेश से प्रभावित होती है बल्कि शिक्षा, अध्यवसाय व अभ्यास से परिष्कृत व पुष्ट होती है। लघुकथा की भाषा को कथ्य-परिवेश से विलग नहीं होना चाहिए। उसमें सादगी, सहजता, लेखकीय आडम्बरहीनता और जनसाधारण के लिए ग्राह्यता का गुण तो होना ही चाहिए, लेकिन सपाट-बयानी की हद तक नहीं। काव्य-तत्वों का प्रयोग लघुकथा की भाषा को आकर्षक एवं ग्राह्य बनाता है। चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथाएँ इस तथ्य का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है, लेकिन लघुकथा में काव्य-तत्व भाष्य-प्रयोग तक ही सीमित रहने चाहिए, उन्हें ‘कथा’ पर हावी नहीं होने देना चाहिए, क्योंकि मूलत: तो लघुकथा ‘कथा’ ही है, कविता नहीं।’ आपने आगे कथा-साहित्य की तीनों विधा, उपन्यास, कहानी और लघुकथा में भाषा भिन्नता को भी महत्ता दी है।
सुकेश साहनी की पुस्तक ‘लघुकथा सृजन और रचना-कौशल’ में अपने एक आलेख ‘लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता’ (पृष्ठ- 104) में लघुकथा में भाषा के महत्त्व के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है, “भाषा और शिल्प के बारे में एक बात कहना ज़रूरी है– बढ़िया कथ्य कमज़ोर भाषा और शिल्प के कारण अपनी सही छाप नहीं छोड़ पाता, अत: लेखक भाषा की शुद्धता, व्याकरणिक गठन, अल्पविराम, अर्धविराम आदि का सही उपयोग करें। यथास्थान इनका प्रयोग न करने से अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। साधारण और प्रचलित शब्द भी अगर अशुद्ध लिखे जाएँगे (जैसे पानी पीने का लोटा होता है, लौटा नहीं) तो ऐसे रचनाकार को कोई गम्भीरता से नहीं लेगा। गुड़िया का बहुवचन गुडियाएँ (लघुकथा- तो क्या) नहीं; गुड़ियाँ होता है। अल्हड शब्द तत्सम शब्द नहीं है। इसके साथ ता प्रत्यय लगाकर अल्हड़ता शब्द नहीं बनता। सही शब्द अल्हड़पन होगा। ऐसे ही ‘पहिए के नीचे उसकी गर्दन आती-आती बची हो’ ‘यहाँ’ आते-आते’ होना चाहिए; क्योंकि यह क्रियापद नहीं, क्रियाविशेषण है। विषयवस्तु और शिल्प पर मजबूत पकड़ ही लघुकथा को और प्रखर बना सकती है। लघुकथाकार की यही सजगता इस विधा को और अधिक सम्मानजनक स्थान दिला सकती है। यह संतुलन ही लघुकथा की शक्ति है।
अशोक जैन द्वारा सम्पादित लघुकथा को समर्पित अर्धवाषिक पत्रिका ‘दृष्टि’ के महिला लघुकथाकार अंक में माधव नागदा ने अपने आलेख ‘लघुकथा के रंगमंच पर भाषा का इन्द्रधनुष’ (पृष्ठ- 26) के माध्यम से हिन्दी-लघुकथा में भाषा का महत्त्व को दर्शाते हुए कहा है, “भाषा रचना की जान होती है और रचनाकार की पहचान…। आपके मतानुसार भाषा का मामला जिंदगी की तरह उलझा हुआ है। इसका ऐसा समाधान निकाल लेना संभव नहीं लगता, जो सर्वमान्य हो। जीवन की तरह भाषा की उलझनों को भी स्वीकार करके ही उसे लिखना-पढ़ना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि लघुकथा या किसी भी विधा को भाषा के नियमों में क़ैद करना संभव नहीं है। आप व्याकरण को भी महत्ता देते हैं।
बी. एल. आच्छा भाषा के महत्त्व को दर्शाते हुए कहते हैं कि, “रचना की अभिव्यक्ति भाषा में ही होती है और उसकी अर्थ-छायाएँ भी भाषा के माध्यम से व्यक्त होती है। इसलिए शब्दार्थ पर सारा जोर होता है। यही कि लेखक अपनी अनुभूति को व्यक्त करने के लिए शब्दों को अपने रंग में रंगने को विवश कर दे और वे ही शब्द पाठक को उसके मंतव्य का सद्द्भागी बना दे। संस्कृत में कहा गया है- ‘अन्यूनातिरिक्तत्वं मनोहारिणीव्यव स्थिति:।’ न कम शब्द न ज्यादा शब्द, पर जिन शब्दों में लिखी गयी रचना है, वह मनोहारिणी हो।
मधुदीप ने अपने आलेख ‘लघुकथा: रचना और शिल्प’ में कहा है कि लघुकथा की भाषा जनभाषा के नजदीक होनी चाहिए अर्थात लघुकथा में जयशंकर प्रसाद की जगह मुंशी प्रेमचंद की भाषा अधिक स्वीकार्य होगी क्योंकि उसे हमारा आज का पाठक बेहतर तरीके से समझ सकता है। यह तो सर्वमान्य है कि हम जिसके लिए लिख रहे हैं, उसे वह समझ तो आनी ही चाहिए। सपाट बयानी से हर लघुकथाकार को बचना चाहिए।
लघुकथा की भाषा पर इश्वर चन्द्र के आलेख ‘लघुकथा की भाषा’ (‘बहस के चौराहे पर’ संपादक: सतीश राज पुष्करणा, पृष्ठ- 49) में आप कहते हैं, “वस्तुतः लघुकथा का भाषापक्ष समृद्ध और विशाल है। आडम्बर, कृतिमता और प्रदर्शन की यहाँ गुंजाइश नहीं है। लघुकथाकार फूँक-फूँक कर भाषा प्रयोग करते हैं। कथ्य की अभिव्यक्ति सशक्त शब्दों के द्वारा सशक्त भाषा कभी-कभी निर्माण भी करते हैं। यों भाषा लघुकथा के कथ्य को रुचिर एवं आकर्षक रूप में प्रकट करती हैं– व्यक्ति, समाज एवं वातावरण से इसको पोषण मिलता है। लोकजीवन में इसे स्वीकृति प्राप्त होती है और संस्कृति इसे दीर्घायु करती है।
‘हिन्दी लघुकथा: शिल्प और रचना विधान’ आलेख के माध्यम से महावीर प्रसाद जैन ने भी लघुकथाओं में भाषा को महत्त्व देते हुए अपने विचारों को व्यक्त किया हैं, “जहाँ तक लघुकथा की भाषा का प्रश्न है, इसमें दो राय नहीं हो सकती है कि लघुकथा की भाषा किसी विशेष धरातल पर विद्ध्यमान नहीं है। जब कोई विधा सामाजिक सार्थकता या निस्सारता या जीवन की विसंगतियों क प्रकट करने में उपकरण के रूप में प्रयुक्त हो जाती है तब उसकी अभिव्यक्ति ऐसी होनी चाहिए कि वह सुपाह्य बन सके। अर्थात भाषा सरल किन्तु औदात्य विहीन न हो। अन्यथा ऐसी अभिव्यक्ति लघुकथा की रोचक समाचार या विवरण के समक्ष कर देगी, शास्त्रीय शब्दों के तार्ताम्यों को वैकल्पिक शब्दों के द्वारा प्रकट करने की क्षमता ही किसी व्यक्ति को साहित्यकार होने का गौरव प्रदान करती है। हमें लघुकथा को गूढ़ ग्रंथिय विधा नहीं बनाना है। लघुकथा सामाजिक भूमिका का तभी निर्वाह कर सकती है, जब उसका शिल्प आदमी के हालातों को सीधी-सच्ची बयानी सरल शब्द द्वारा कर सके और जिससे जनमत को उसकी संवेदना का भागिदार बनाता चला जाये।”
हिन्दी लघुकथा के सिद्धांत पुस्तक में भागीरथ ने अपने आलेख ‘लघुकथा लेखन की सार्थकता’ में कहा है, “लघुकथा चूँकि जीवन के यथार्थ को प्रतिबिम्बित करती है। आमजन तक पहुँचने की अपेक्षा रखती है अतः उसकी भाषा जनभाषा ही हो सकती है। और भाषा का सौन्दर्य भी तो यही है। भाषा संक्षेपण में भी सहायक होती है। इस सन्दर्भ में कभी-कभी लम्बे जटिल वाक्य तो कभी-कभी छोटे-छोटे अर्थगर्मी वाक्य भी रचनाकार की मदद कर सकते हैं। यह निर्भर करता है रचनाकार के कौशल पर तथा रचना कि आत्यन्तिक जरूरतों पर। भाषा की सांकेतिकता तथा व्यंजनात्मकता का लघुकथा में अतिमहत्त्वपूर्ण स्थान है। भाषा के ये उपकरण एक तरफ लघुकथा के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करते हैं, वहीँ लघुकथा में विस्तार को रोकने में समर्थ हैं। चूँकि लघुकथा भ्रष्ट व्यवस्था पर सीधे चोट करती है, विरोधाभासों एवं विसंगतियों को उघडती है, अतः इसकी भाषा भी दो टूक एवं व्यंग्यात्मक होती है। भाषा आँचलिकता से ओत-प्रोत हो सकती है किन्तु आँचलिकता का अतिरिक्त मोह अन्य हिन्दी भाषी पाठकों के लिए रचना को दुरूह बना देता है।”
अपने आलेख ‘लघुकथा शिल्प और संरचना’ में शमीम शर्मा कहती हैं, “लघुकथा जन साधारण के बहुत निकट है, अतः इसकी भाषा में क्लिष्टता, संस्कृतनिष्ठता, बौद्धिकता व दुरूहता का कोई स्थान नहीं है। लघुकथा के भाषागत वैशिष्टय पर यदि दृष्टिपात करें तो हमें कतिपय विशिष्टाएँ इस प्रकार उपलब्ध होती है-
1. सपाटबयानी, 2. स्वाभाविकता, 3. संक्षेपण, 4. पात्रानुकूलता, 5. विषयानुरुप्ता, 6. आँचलिकता, 7. मुहावरेदार, 8. विदेशी शब्द, 9. वाक्यों का अधूरापन, 10. ध्वन्यात्मक शब्दावली आदि।”
लघुकथा में भाषा के महत्त्व को डॉ सत्यवीर मानव, डॉ उमेश महादोषी, डॉ. रामकुमार घोटड, योगराज प्रभाकर और अन्य वरिष्ठजनों ने भी अपने-अपने ढंग से लिखा है।
प्राय: लघुकथों में विवरण और संवाद कथानक की आवश्यकता के अनुसार सटीक अनुपात में साथ-साथ चलते हैं, संवादों की भाषा पात्रों के चरित्र व स्थान और परिवेश के अनुसार बोली के रूप में लिखी जाती है| बहुत सारी लघुकथाएँ संवाद से शुरू होकर संवाद पर ही ख़त्म हो जाती हैं। ऐसी लघुकथाएँ सम्वाद्शैली की लघुकथाएँ कहलाती हैं। जहाँ संवाद होते हैं, वहाँ नाटकीयता स्वाभाविक रूप से आ जाती है, किन्तु संवाद-शैली में और नाट्य-शैली में कुछ भिन्नता भी होती है। संवाद शैली की लघुकथाएँ संवाद से शुरू होकर संवाद पर ही खत्म हो जाती हैं किन्तु नाट्य शैली में विवरण भी साथ चलता है और उसके संवादों में बोली नहीं अपितु नाटकीयता लिए हुए भाषा होती है।
इस प्रकार मैं अपने को कहने में सक्षम पा रही हूँ कि अन्य विधाओं की अपेक्षा लघुकथा में भाषा का महत्त्व अपेक्षाकृत अधिक बढ़ जाता है क्योंकि इसमें जिस भाषा का उपयोग किया जाता है, उसमें इसका सांकेतिक भाषा के साथ-साथ विराम चिह्नों का भी सटीक एवं संप्रेषणीयता का उपयोग होता है, जिससे कि आकारगत दृष्टि से लघु होते हुए भी लघुकथा अपने उद्देश्य को बहुत ही करीने से प्रस्तुत कर पाने में सक्षम होती है, यही सारी स्थितियाँ हिन्दी लघुकथा में भाषा के महत्त्व को बढ़ा देती है।
– कल्पना भट्ट