विमर्श
हिंदी की अनंत यात्रा
– प्रो. प्रदीप के. शर्मा
भाषा किसी देश की पहचान और परिचय होती है। बोली-भाषा मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। विदेशी भाषा की अपेक्षा व्यक्ति अपनी बोली भाषा में अपने विचारों-भावनाओं का साधिकार, अच्छे तरीके से अच्छी शैली में प्रस्तुत कर सकता है क्योंकि वह आत्मा से जुड़ी होती है। फिर भाषा का सवाल देश की अस्मिता से भी संबंधित है। इस देश का दुर्भाग्य है कि अपने ही देश में अपनी ही भाषा और बोलियों की दुर्दशा हो रही है। आज के युग के कुछ बेटे-बेटियाँ अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं, वैसा ही सलूक हम हिन्दी से कर रहे हैं। इसके लिए और कोई नहीं हम स्वयं ही ज़िम्मेदार हैं। अपनी माँ से हम दासी-सा व्यवहार कर रहे हैं। जबकि मातृ-भूमि, माँ और मातृभाषा को लेकर किसी भी प्रकार का कोई भी समझौता नहीं होना चाहिए। एक विदेशी भाषा, जो कि हमें हर पल अपनी गुलामी के दिनों की याद दिलाती है, उसे राजभाषा और राष्ट्रभाषा के समकक्ष स्वीकार करना दासत्व की हीन भावना का परिचायक है। देश को आज़ाद होने को तिहत्तर साल हो गये। हमने अंग्रेज़ों की भौतिक गुलामी से तो आज़ादी पा ली लेकिन अंग्रेज़ी रहन-सहन, भाषा और पाश्चात्य संस्कृति की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए बंदरी के मरे बच्चे के समान इसे कस कर सीने से चिमटाए रखने में गर्व और गौरव का अनुभव करते हैं। अंग्रेजी के मानसिक दासत्व को न केवल हम ढो रहे हैं, वरन् भावी पीढ़ी को भी हम मलाई परत वाली नौकरियों के लालच में गुलाम बनाने में लगे हुए हैं।
इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि हिन्दी की लड़ाई हिन्दीवालों की अपेक्षा अहिन्दी भाषी राष्ट्रनायकों ने जम कर लड़ी थी। बंगाल के राजा राममोहन राय, बंकिम चन्द्र चटर्जी, केशवचन्द्र सेन, गुजरात के स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गाँधी आदि ने भी अनुभव किया कि यदि हम अपनी बात को भारत के कोने-कोने में पहुँचाना चाहते हैं तो हिन्दी से अच्छा माध्यम और कोई नहीं हो सकता। सन् 1918 में गाँधीजी की अध्यक्षता में इंदौर में जो हिन्दी साहित्य सम्मेलन हुआ था, उसमें हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव पास हुआ था। उसी सम्मेलन में ही दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार के लिए दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना की प्रस्ताव पारित हुई थी और गाँधीजी ने अपने कनिष्ठ पुत्र देवदास गाँधी को इसी काम के लिए मद्रास भेजा था।
गाँधीजी ने उस समय की बहुचर्चित समाचार पत्रिका ‘नवजीवन’ में लिखा था ‘अगर स्वराज्य करोड़ों भूखों मरनेवालों, निरक्षरों, बहिनों और दलितों के लिए है तो एक मात्र हिन्दी ही देश की राष्ट्रभाषा हो सकती है। तमिलनाडु में राष्ट्रीयता की अलख जगानेवाले तमिल के राष्ट्रकवि सुब्रह्मण्य भारती ने कहा था, “हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।” महाराष्ट्र के सन्त विनोबा ने कहा था, “हम सब एक हैं यह भाव पैदा करने के लिए कोई साधन होना चाहिए। राष्ट्रभाषा ही वह साधन है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी हमारे अंतर्मन की भाषा है।”
हिन्दी स्वभाव से धर्मनिरपेक्ष और प्रकृति से संघीय है। उसके साथ हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और चरित्र जुड़े हुए हैं। रामधारीसिंह दिनकर ने कहा था- “संस्कृत ने हिन्दी को एक खास ढंग से विकसित कर उत्तर भारत को एक ऐसी भाषा दी है, जो थोड़ी बहुत सभी भाषाओं में समझी जाती है। सुगमता और सरलता उसकी प्रकृति है।” डॉ. कामिल बुल्के ने कहा था- “हिन्दी एक शक्तिशाली भाषा है। उसके विकास के साथ देश का विकास अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।”
स्वतंत्रता के बाद पिछले 73 वर्षों से हम 14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ के रूप में मनाते आ रहे हैं। परंतु लक्ष्य प्राप्ति में हम कहाँ तक सफल हुए हैं? 26 जनवरी, 1950 के पहले ही संविधान सभा ने फैसला ले लिया था कि- हिंदी ही राजभाषा होगी। 15 साल तक अंग्रेज़ी उसके साथ चलती रहेगी और उसके बाद सिर्फ हिंदी ही रहेगी। 1965 तक आजादी का उफान अपना आवेग धीरे-धीरे क्षीण होता गया और-भाषा की भी अपनी राजनीति जन्म ले चुकी थी- हिन्दी को लेकर भी राजनीति आरंभ हो गयी थी- संसद में अंग्रेजी को जारी रखने की व्यवस्था कर दी गई। जब तक देश के सभी प्रांतों के लोग हिंदी को न अपना लें या अंग्रेजी को जारी रखने का विचार बदलकर हिंदी को स्वीकार न कर लें तब तक अंग्रेजी बरकरार रहेगी। इस तरह भारत में दो भाषाएँ चलती रही- हिंदी और अंग्रेजी। 1950 में हिंदी राजभाषा बनी थी और अंग्रेजी सहभाषा, यह स्थिति अब भी है पर केवल संविधान में। असलियत में हिंदी सह भाषा रह गई है, अंग्रेजी ही राजभाषा के रूप में चल रही है।
आज हिंदी प्रांतों में ही कान्वेंट शिक्षा लगातार बढ़ रही है। संपन्न और शिक्षित वर्गों के लिए स्कूली शिक्षा भी अंग्रेज़ी माध्यम से ही हो सकती है न कि हिंदी। अंग्रेजी आज एक भाषा के रूप में नहीं बल्कि एक माध्यम के रूप में पढ़ाई जा रही है। देश में अब एक नई पीढ़ी तैयार हो रही है जिसकी अपनी कोई भाषा या संस्कृति नहीं है। जो पैंतीस की जगह थार्टी फाइव समझती है। जिसके उच्चारण हिंदी की नहीं अंग्रेजी की वर्तनी के हिसाब से तय होते हैं।
परंतु यह भी नहीं है कि हिंदी का विकास नहीं हो रहा है- प्रयोग नहीं हो रहा है। हिंदी जनभाषा है इसलिए राजभाषा बनी है। राजभाषा के रूप में उसका प्रयोग भी बढ़ रहा है। यह सर्वविदित है कि जब भी अंग्रेज़ी का मोह ख़त्म होगा, हिंदी ही उसका विकल्प हो सकती है। आजादी की लड़ाई जिस राष्ट्रीय एकता को लेकर लड़ी गई थी, उसमें हिंदी को सभी भाषा-भाषियों ने स्वीकार किया था और वह जनचेतना का वाहक बनी, जिसके कारण 26 जनवरी, 1950 में हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया। आज विज्ञान, प्रौद्योगिकी और तकनीकी क्षेत्रों में हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है। उसकी समेकित शब्दावली तैयार की गयी है। यदि हम अपनी मानसिकता बदल लें तो स्कूली स्तर पर ही नहीं उच्च शिक्षण और तकनीकी संस्थाओं में भी हिंदी माध्यम को अपनाया जा सकता है। बस इसके लिए हमें मानसिक रूप से तैयार होना है। बस बदलना है तो हमें अपनी मानसिकता।
आइये, आज के इस हिंदी दिवस के पुनीत अवसर पर हम सभी भारतीय यह संकल्प लें कि हिंदी हमारी अस्मिता है, पहचान है। इसे उसका उचित हक़ दिलानएँ और गाँधीजी के स्वप्नों को साकार करें। जय हिंद! जय हिंदी!
– प्रदीप के. शर्मा