विमर्श
हाशिये का समाज थर्ड जेंडर समुदाय : प्रमुख ऐतिहासिक आधार
– वंदना शर्मा
साहित्य में जितने भी विमर्श हैं या जो चल रहे हैं, उनका अपना एक इतिहास है, जिसमें उस विमर्श के आरंभ से लेकर वर्तमान अवस्था पर प्रकाश डाला जाता है तथा साहित्य में उसके स्थान और महत्त्व को उद्घाटित किया जाता है। किन्नर समुदाय का इतिहास भी आज का इतिहास नहीं अपितु लगभग 4000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। ऋग्वेद, पुराण, मनुस्मृति, वात्सायन के ‘कामसूत्र’ में इनका उल्लेख हुआ है फिर महाभारत, रामायण आदि अनेक पौराणिक, धार्मिक ग्रन्थों में भी इनका वर्णन किया गया है। इन ग्रंथों में इन लोगों को आदर की दृष्टि से देखा गया, जो वर्तमान वास्तविकता से एकदम परे है। पौराणिक और ऐतिहासिक प्रसंगों और संदर्भों का सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करने से पता चलता है कि वर्तमान समय में उपेक्षित और हिकारत की नज़र से देखे जाने वाले किन्नरों का प्राचीन समय में सम्मान था। देवताओं ने भी स्वयं इनका उल्लेख किया है। जब हमारा समाज श्रेणियों के विभाजित था तब भी इनके संबंध उच्च वर्गों के साथ देखने को मिलते हैं। इनका कोई विशेष लंबा इतिहास नहीं लिखा गया लेकिन कहीं-कहीं इनका उल्लेख मिलता है। उस समय लोगों को इनके बारे में इतनी जानकारी नहीं थी लेकिन धीरे-धीरे इनके बारे में पता चलने लगा, लोग लिखने लगे जिससे इन पर आलोचनाएँ लिखी गयी और वर्तमान स्वरूप में ये सबके सामने है। अनेक भाषाओं में इनके जीवन से जुड़े पहलुओं पर भी लिखा जाने लगा। कहानी, उपन्यास, नाटक आदि के माध्यम से इस समुदाय की जानकारी मिलने लगी। यदि इस समुदाय का अर्थ देखें तो इस प्रकार लिया जा सकता है-
कोशगत अर्थ:- अंग्रेजी शब्दकोश के अनुसार-
either the male or female devision of a species, especially as differntiated by social and cultural roles and behavior
अर्थात् किसी प्रजाति के नर या मादा का विभाज, विशेष रूप से सामाजिक और सांस्कृतिक और व्यवहार से भिन्न हो।
ऑक्सफ़ोर्ड के सातवें संस्करण में इस प्रकार दिया गया हैं:-
a person who feels emotionally that they went to live, dress etc. a member of the opposite sex
अर्थात् एक व्यक्ति जो भावनात्मक रूप से महसूस करता है कि वे लिंग के विपरीत सदस्यों के समान रहना, ड्रेस पहनना चाहते हैं।
किन्नर केन्द्रित वैचारिकी का विकास
किसी भी विचारधारा का जन्म एकदम से नहीं हो जाता अपितु धीरे-धीरे परिस्थितिवश वह विचार उत्पन्न होता है। वैचारिकी से तात्पर्य विचारधारा से लिया जाता हैं। विचारधारा शब्द अपने आप में एक विशेषता लिए हुए है। किसी विषय विशेष के विचार को आगे बढ़ाकर ही विचारधारा बनती है। उसके अपने मुद्दे एवं समस्याएँ होती हैं। विषय विशेष से तात्पर्य यहाँ किसी मुद्दे से लिया गया है, जिससे समाज और उस समाज से जुड़ा हुआ प्रत्येक व्यक्ति प्रभावित होता है। किन्नर जीवन की वैचारिकी पर विचार आज से नहीं अपितु बहुत पहले से ही होता आ रहा है। लेकिन हिंदी साहित्य में इसको प्रकाश में आये हुए ज्यादा समय नहीं हुआ है। किन्नर समुदाय से संबंधित समस्याओं और विशेषताओं ने धीरे-धीरे विचारधारा का रूप लेना शुरू किया। इसे कोई आंदोलनवादी विचारधारा नहीं कहा जा सकता, जिसमें क्रांति के माध्यम से सब कुछ फेरबदल किया जा सके अपितु इसे एक धारणा या विचार या एक प्रकार से यह कह सकते हैं कि मानसिकता, जिसे तुरंत बदला जाना असम्भव है; जो किन्नर समुदाय के जीवन से संबंध रखती है। एक ऐसी मानसिकता जो हमें उनके साथ सहज होने या रहने पर मजबूर करती है। किन्नर केन्द्रित वैचारिकी को हम इनके साथ जुड़े पहचान के संकट के साथ जोड़कर देखें तो अभी उसमें अवहेलना का भाव छिपा हुआ है। अब देखना यह है कि इस समुदाय पर विचार करने की स्थिति कहाँ से पैदा हुई? क्या हमारी संस्कृति के संवाहक ग्रंथों में भी इनका उल्लेख मिलता है? इन्हीं सब प्रश्नों से किन्नर समुदाय के इतिहास को समझा जा सकता है।
थर्ड जेंडर के साथ सबसे बड़ा संकट पहचान के संकट का है। देश आज़ाद होने के बाद सम्पूर्ण भारतीय समाज पहचान के संकट से गुज़रा है लेकिन जैसे-जैसे स्थितियाँ बदलती गयीं, व्यवस्था में सुधार आता गया और समाज में रहने वाले मनुष्य को सभ्य समाज का दर्जा मिलना प्रारंभ हो गया। जो असभ्य लोग थे, उनको कानूनों की दृष्टि से अपराधी ठहराया गया। किन्नर समुदाय अभी तक भी अपनी पहचान के संकट से जूझ रहा है। इनके हक़ में कानूनों का निर्माण भी हो गया फिर भी यह अपनी अस्मिता को खोजने में लगा हुआ है। इसके संदर्भ में चैनसिंह मीना इस प्रकार लिखते हैं कि- “सदी के अंत तक साहित्य में अनेक विमर्श उभरकर सामने आये मसलन दलित, आदिवासी, स्त्री आदि। दरअसल इन विमर्शों के अंतर्गत ‘अस्मिता’ या ‘पहचान’ का सवाल ही सबसे महत्वपूर्ण था। इसी तरह एक मानवीय समुदाय (किन्नर) है, जो अपनी पहचान के लिए प्राचीनकाल से ही संघर्षरत है।”
किन्नर कौन थे? कहाँ से आये? इसका पता एकदम सटीक रूप में अभी तक नहीं लगाया गया है। दुनिया में अलग-अलग प्रकार के लोग होते हैं। कुछ संख्या में कम होते हैं तो कुछ की संख्या अधिक होती है। किन्नर कम वालों की श्रेणी में आते हैं। किन्नर प्रकृति की खोज कैसे हुई, इसका पता लगाना अत्यंत कठिन कार्य है। इस खोज के बारे में देवदत्त पट्टनायक विचार प्रस्तुत करते हैं कि “जो हमें खोजने पर मिलता है, उसे प्राकृतिक समझा जाता है। जिसका हम आविष्कार करते है, वह अस्वाभाविक, बनावटी, मानव निर्मित या फिर संस्कारित यानी कृत्रिम समझा जाता है।” लेकिन किन्नर समुदाय न तो कृत्रिम है और न ही बनावटी अपितु इसे एक प्रकार की जैविक गड़बड़ी कह सकते हैं। इस बात से लेखक का यही मंतव्य है कि किन्नरों को प्राकृतिक कहा जाए या कृत्रिम, इसमें संशय है। इतिहास में हिजड़ों का उल्लेख मिलता है। मध्यकाल में राजा अपनी रानियों की सुरक्षा हेतु हरम में हिजड़ा सुरक्षाकर्मियों को रखते थे। सिकंदर लोदी ने पंद्रहवीं शताब्दी में हिजड़ों का खानकाह बनवाया था तो यह अनायास नहीं था। ‘हिजड़ों’ के प्रति यह एक आध्यात्मिक चेतना का उजास था। निश्चित रूप से समाज इनके प्रति ईमानदार नहीं रहा है। सामाजिक भेदभाव, सांस्कृतिक एकाकीपन तथा पारिवारिक रूप से इन्हें त्याग देने और नकारने के मध्य यह जिंदगी जीते हुए पुतले अपनी पहचान के लिए अब तक भटक रहे हैं। महाभारत में शिखंडी, वृहनल्ला के रूप में इनकी पहचान बनी तो कभी मिश्र, चीन, रोम में उच्च पदों पर आसीन रहे। इनका ‘न स्त्री और न पुरुष’ होने का दंश इतिहास में दिखता रहा है। वे जो हैं, उनकी पहचान अस्वीकार है। आधुनिकता के विकसित बौद्धिक बोध के द्वारा समय-समय पर कभी इनके द्वारा तो कभी अन्य समुदाय द्वारा आवाज उठाई जाती रही है।
अमरीकी देशों और यूरोपीय देशों द्वारा लगातार आन्दोलन और दमन के माध्यम से बौद्धिक जगत में इस संवेदना को उठाया गया और 21वीं सदी में इसे अध्ययन और मनन का विषय मान लिया गया। अधिकारों को लेकर क़ानूनी लड़ाई होती रही। जेंडर के रूप में दर्जा दिलाने की मुहीम वैश्विक स्तर पर होते रहने के कारण कुछ देशों में इसे विधिक मान्यता मिली है लेकिन अभी लड़ाई बाकी है। एल.जी.बी.टी. अध्ययन आज अध्ययन का मुख्य हिस्सा है। शायद यही कारण है कि इस क्षेत्र में हो रहे अध्ययन और सम्बंधित पुरस्कारों की ओर बौद्धिक जगत की आँखे लगी रहती हैं।
संस्कृत व्याकरण में तीन लिंग निर्धारित हैं- पुर्लिंग, स्त्रीलिंग व नपुंसक लिंग। अब तक भारतीय समाज में दो लिंगों को ही मान्यता प्राप्त है। लेकिन अब तृतीय लिंग, जिसे तृतीयपंथी या थर्ड जेंडर के नाम से भी जाना जाता है, को मान्यता मिल चुकी है। इस तृतीय पंथी समुदाय का इतिहास अलग-अलग स्तरों पर वर्गीकृत किया गया है। इस विचारधारा को आगे बढ़ाने का कार्य अंग्रेजी साहित्य का माना जाता है लेकिन उससे भी पूर्व मिथकीय आधारों की चर्चा की जाती है। समाज का दोहरापन, जो कभी नहीं मिटने वाला है। इसके लिए समाज ही जिम्मेदार नहीं है, समाज में रहने वाला प्रत्येक वह व्यक्ति जिम्मेदार है जो दोहरे आवरण को ओढ़े हुए रहता है। जो सदियों से लिंग आधारित संस्कृति की धारणाओं में जीता आ रहा है। तीसरे मानवीय संघर्ष की प्रेरणा इस विचारधारा से मिलती है। उनकी अस्मिता का संघर्ष ही हमें इस वैचारिकी पर विचार करने की प्रेरणा प्रदान करता है।
इस प्रकार से उपेक्षित किन्नर समुदाय को अलग-अलग दृष्टिकोणों से परिभाषित किया जा सकता है। कुछ इन्हें जैविक गड़बड़ी मानते हैं तो कुछ इन्हें प्रकृति की विकृति करार दे देते हैं लेकिन यह समुदाय अभी-अभी ही अचानक से पैदा नहीं हुआ है इसका उल्लेख तो मिथकों, कोशों में भी किया गया है। इनके नाम और इनके प्रति प्राचीन और नवीन धारणाओं में भी काफी अंतर दिखाई पड़ता है, जो इस प्रकार है। चित्रा मुद्गल इनके प्रति संवेदनशीलता प्रकट करती हुई कहती हैं कि “दुनिया भर में तिरस्कृत, दमित, शोषित, अधिकारच्युत वंचितों, यहाँ तक कि आधी आबादी और दलितों को भी हाशिये ने अपने भीतर मुट्ठी भर हाशिया उपलब्ध कराया है लेकिन यह क्रूर विडंबना है कि लिंग वंचितों को हाशिये में भी कोई हाशिया नहीं मिला। धर्म, समाज, राजनीति और स्वयं मनुष्य ने मनुष्य होकर मनुष्यों पर सदियों से जो यह अमानुषिक अन्याय किया है, सामाजिकता से उन्हें बहिष्कृत-तिरष्कृत कर उनसे, उनके मानवीय रूप से जीने का अधिकार छीन लिया है। जरूरत नहीं चेतने की, कि कलंक लिंग वंचित नहीं, कलंक तो वे स्वयं है, सभ्य समाज के माथे पर, जो रोज आईना देखकर भी अपने माथे पर उसकी कालिख को देख नहीं पा रहें हैं।” वैदिक संस्कृति के अनुसार किसी मनुष्य को पुरुष, स्त्री या नपुंसक तीन प्रकृति में से एक में देखा जाता रहा। उस काल के ग्रंथों में ‘जेंडर’ को ‘प्रकृति’ के रूप में उल्लेखित किया गया है। कामसूत्र में भी इसकी व्याख्या की गयी है। हमारे शास्त्रों में चार पुरुषार्थ बताए गये हैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। मोक्ष की प्राप्ति के लिए पहले प्राथमिक तीनों पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम आवश्यक हैं। इन तीनों के द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है। जिसमें भी काम प्रमुख पुरुषार्थ के रूप में वात्स्यायन ने बताया है। वात्सायन ने पुरुष प्रकृति, स्त्री प्रकृति और तृतीय प्रकृति का उल्लेख किया है। मनु ने मनुस्मृति में इसे जैविक रूप से व्याख्यायित करते हुए कहा है कि “उच्चकोटि के पुरुष से लड़के का जन्म होता है, स्त्री के प्रभावी होने पर बच्ची का जन्म होता है और यदि दोनों प्रकार समान है तो तीसरे प्रकार के बच्चे का जन्म होता है अथवा बेटा-बेटी जुड़वा होते हैं, यदि दोनों कमजोर होते हैं तो वे कमजोर अथवा परिमाण में विफल होते हैं तो तृतीय प्रकृति के मनुष्यों की उत्पति होती है।”
सिद्धों ने भी अपने ग्रन्थ ‘सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति’ में संतान उत्पति को इस प्रकार बताया है-
“शुक्रधिकेषु पुरूष, रक्ताधिका कन्यका, समशुक्र-रक्ताभ्याम नपुंसक: ।”
अर्थात् संभोग के परिणामस्वरूप यदि गर्भाशय में पिता का वीर्य अधिक संचित हो जाता है, तो पुरूष शरीर उत्पन्न होता है, यदि माता का रज अधिक होता है तो कन्या का जन्म होता है और यदि रज और वीर्य की मात्रा समान होती है तो नपुंसक संतान उत्पन्न होती है।
ऋग्वेद में- ऋग्वेद में थर्ड जेंडर का उल्लेख मिलता है। जब इंद्र अपने आपको स्त्री के रूप में परिवर्तित कर लेते हैं। दूसरी कथा में प्रयोगी के पुत्र ईश्वर द्वारा शापित होने के बाद स्त्री बन जाता है।
सूक्त 10 में भी नपुंसकतावश नियोग की अनुमति का उल्लेख मिलता है। यह सूक्त यम-यमी अर्थात् पति-पत्नी का संवाद है। पति नपुंसक होने की स्थिति में अपनी पत्नी को नियोग की आज्ञा देता है।
मत्स्य पुराण एवं वायु पुराण-
पुराणों में किन्नर देवी को गायक कश्यप की संतान और हिमालयवासी बताया गया है। वे नृत्य-कला में प्रवीण थे, गायन भी जानते थे। मत्स्य पुराण में इनका वास हिम्मवाण पर्वत बताया गया है तथा वायुपुराण के अनुसार किन्नर अश्वमुखों के पुत्र थे।
मनुस्मृति-
मनुस्मृति के तृतीय अध्याय में भी किन्नरों के बारे में उल्लेख प्राप्त होता है।
“देन्यदानवयक्षाणा गन्धर्वोंगरक्षसाम। सुपर्ण किन्नराणाम च स्मृता बर्हिषदोत्रिजा:।”
अर्थात् अत्रि के पुत्र बर्हिषद दैत्य, दानव, यक्ष, गंदर्भ, नाग, राक्षस, सुपर्ण और किन्नरों के पितर हैं। अर्थात् यहाँ पर किन्नर शब्द का उल्लेख हुआ है, इससे इस बात का पता चलता है कि उस समय पूर्व भी किन्नर शब्द प्रचलित था।
कामसूत्र- वात्सायन
कामसूत्र चौथी शताब्दी में लिखा गया, जो जिसमें वात्सायन ने चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में ‘काम’ की महत्ता सिद्ध की है। ‘कामसूत्र’ पुस्तक को लेकर लोगों की ग़लत मानसिकता बनी हुई है, इसमें धर्म और अर्थ के साथ काम को भी मोक्ष प्राप्ति के प्रमुख साधन के रूप में बताया गया है। इस ग्रन्थ में किन्नरों के लिए ‘तृतीय प्रकृति’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इसमें एक स्थान पर इस प्रकार उल्लेख है-
“भिन्नत्वातृतीया प्रकृति: पश्चिमित्येके।
तृतीया: प्रकृतिरनपुंसक: स्त्रीत्वपुनस्त्वाभावा भावादिभ्येते।”
अष्टाध्यायी-पाणिनि
प्राचीन भाषा विद्वान् पाणिनि ने अपनी पुस्तक ‘अष्टाध्यायी’ के ‘खिल-भाग’ में लिंगानुशासन के बारे में बताया, जिसमें स्त्री एवं किन्नर अथवा नपुंसक के भेद को इस प्रकार स्पष्ट किया है-
“स्तनकेशवती स्त्री स्याल्लोमश: पुरूष: स्मृत:।
उभयोरंतरं यच्च तदभावे नपुंसकम।।”
अर्थात स्तन, केशवाली ‘स्त्री’ तथा रोएं वाला पुरुष कहा जाता है, जिसमें इन दोनों के भेद का अभाव हो, वह नपुंसक अर्थात ‘हिजड़ा’ कहलाता है।
संदर्भ ग्रंथ-
अंग्रेजी शब्दकोश, विकिपीडिया
ऑक्सफोर्ड एडवांस लीनर्स डिक्शनरी’, सेवेंथ एडिसन-
चैनसिंह मीना, थर्ड जेंडर अस्मिता संघर्ष और वर्तमान परिदृश्य, सरस्वती, सं.महेश भारद्वाज, अप्रेल-सित.(2018)
देवदत्त पट्टनायक, शिखंडी और कुछ किन्नर कहानियाँ, पृ.सं.- 21
चित्रा मुद्गल, ‘सरस्वती’ आरंभिक पृष्ठ से- अप्रेल-सित, 2018
मनुस्मृति से-
महायोगी श्रीगोरक्षनाथ, सिद्ध-सिद्धांत पद्दति, अनुवादक-स्वामी द्वारिका दास शास्त्री, वाराणसी-2014
मनुस्मृति, तृतीय अध्याय
वात्सायन, ‘कामसूत्र’, पंचम अध्याय, पृ.सं.- 173
लिंगानुशासन, (शब्दों के लिंग ज्ञान करने का शास्त्र) संस्कृत भाषा
– वंदना शर्मा