कविता-कानन
हवा से
किसी पुरानी पढ़ी
कविता की तरह
जिसके शब्द
धुंधले पड़ गए हो
या याद नहीं आ रहा हो
लेखक का नाम,
अचानक ही बाज़ार में
या सड़क पर
नज़र आ जाता है
अभिवादन करता कोई
और मन याद करने की
कोशिश करता है
कौन हो सकता है वो
जाना-पहचाना पर
अनजान-सा वो चेहरा
और फिर
स्मृतिपटल पर
किसी चलचित्र-सा उभरता
उस व्यक्ति के साथ
बिताया वक़्त
और धुंधली पड़ गई
कविता के शब्द
फिर से गूंजने लगते हैं
संगीत बन
चेहरे पर मुस्कुरहट बिखेरते
पर सिर्फ चंद क्षणों के लिए ही
किसी हवा के झोंके से
वो जो सिर्फ
पानी की सतह तो छू सकते हैं
पर नहीं उतर सकते गहराई में
मन उसांस भर चल देता है
अपनी नई राह पर फिर से
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पर्यायवाची
कुछ दिनों से
दूरी और निकटता
दोनों ही जैसे पर्यायवाची बन गए हैं
जितना हम किसी के निकट जाते हैं
उतना ही उससे दूर हो जाते हैं
और न जाने क्यों
जो लोग दूर हो जाते हैं
वह निकट महसूस होने लगते हैं
या तो दूरी निकटता की धुरी बन गई है,
या फिर निकटता, दूरी के कक्ष के
चारों तरफ घूमने लगी है
फिर भी
दूरी और निकटता के
पर्यायवाची बन जाने से भी
इन दोनों के मायने नहीं बदले
न तो दूरी कुछ कम हुई और
न ही निकटता कुछ बढ़ी,
पर इस सब से
सिर्फ मरने लगी है,
हमारे अंदर की सूक्ष्म भावनाएं
– हरदीप सबरवाल