कविता-कानन
हरकारा
आदत है तुम्हारी
केवल बुराईयाँ भर देखने की
किसी में
कितना कोसते हो तुम
नन्हीं टिटहरी को
उसके चिल्लाने पर
तुम्हें दिखता है केवल
उसका चुभता कर्कश स्वर
नहीं महसूसते कभी तुम
उसका करुण क्रन्दन
उमस, लू, नौ-तपा के बाद
वो बनाती है अपना घोंसला
बारिशों की आमद की पदचाप सुनने के लिये
वो रखती है नीड़ में
खेतिहर की सूखी उम्मीद को भिगोने के लिये अंड़े
क्यूँकि
आज भी गाँव-देहात, पिछड़े इलाकों में
नहीं होते हैं
सभी भौतिक-वैज्ञानिक सुख-साधन
वहाँ यौवन पर पकने आती बालियों के सौभाग्य को
आज भी बादलों की बारात की बाट जोही जाती है
भुरभुरी चटखी पगडंडियाँ,
ऊष्मा से दरकती खेतों की मेड़ें,
खेतिहर की आसमान को तकती पीलिया आँखें
अनुमान लगाती हैं मानसून का
प्रकृति प्रदत्त हरकारों द्वारा
टिटहरी उन्हीं हरकारों की फौज में से एक
काली-सफेद गणवेश धारी है
उसके बनाये घोंसले सांकेतिक ध्वजा हैं
और उसका टिरटिराता स्वर तुरही है हरकारे की
यदि वो घोंसला खेत के तल, मेड़ से सटकर
या जमीन पे उगी झाड़ी पर बनाती है तो
कम बारिश की सनद दे रही होती है
यदि वो घोंसला ऊँचे पेड़ पर या छत पर बनाती है
तो झमाझम बारिश के मानसूनी संदेशे गढ़ती है
उसके घोंसले में अंड़ों की गिनती ही
बारिश से तर होते महीनों की होती है
उसका करुण क्रन्दन; कर्कश या मनहूस नहीं है
वो रुदन है- डर का
एक चीख है- ममता की
उसके घोंसले पर मंडराते
गिद्ध दृष्टि के विरूद्ध
वो आक्रोश है उसका
ठीक वैसे ही, जैसे कि
कोई स्त्री अपनी अस्मिता पर या अपने बच्चों पर
गड़ी गिद्ध प्रवृत्ति के विरुद्ध
करती है तीव्र स्वराक्रोश
तरेरती है भीषण तेवर
टिटहरी भी उसी आक्रामक औरत-सी होती है
युद्धघोष करती हुई
तुम कोसते हो उसे
क्यूँकि
आदत है तुम्हारी
केवल बुराईयाँ भर देखने की
किसी में
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पानी
पानी
आँख का
और
धरती का
अंतिम श्वाँस ले रहा है
समय रहते
यदि चेता न गया
तो मनुष्यता
शीघ्र ही
खुदाई में मिली
सभ्यता का
वो जीवाश्म अवशेष
बनकर रह जायेगी
जिसका तर्पण
किंचित ही संभव नहीं।
पानी
आँख का
और
धरती का
अंतिम श्वाँस ले रहा है।
– प्रीति राघव प्रीत