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स्वतंत्रता आन्दोलन में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका: डॉ. लक्ष्मी गुप्ता
पत्रकारिता एक मिशन है। यह विशिष्ट लक्ष्य को समर्पित होती है। प्रख्यात पत्रकार बाबू विष्णु पराड़कर के अनुसार “सच्चे भारतीय पत्रकार के लिए पत्रकारिता केवल एक कला या जीविकोपार्जन का साधन मात्र नहीं होना चाहिए, उसके लिए वह कर्त्तव्य साधन की पुनीत वृत्ति भी होनी चाहिए।”
हिन्दी-पत्रकारिता का जन्म स्वाभिमान के संचार, स्वदेश प्रेम एवं आंग्ल शासन के प्रबल प्रतिरोध हेतु हुआ। स्वतंत्रता आन्दोलन के सूत्रधार की भूमिका इतनी आसान नहीं थी। ‘स्वराज्य’ नामक पत्र के संपादक के लिए प्रकाशित विज्ञापन दृष्टव्य है- “स्वराज्य अखबार के लिए एक संपादक चाहिए जिसे दो जून सूखी रोटी, एक गिलास सादा पानी तथा हर संपादकीय पर दस वर्ष की सजा मिलेगी।”
भारतीय पत्रकारिता का उद्भव एवं विकास स्वतंत्रता सेनानियों के चिन्तन, मनन एवं स्वाधीनता प्राप्ति हेतु उठाए गए सक्रिय कदम का इतिहास है। “मेरा ख्याल है कि ऐसी कोई भी लड़ाई, जिसका आधार आत्मबल हो, अखबार की सहायता के बिना नहीं चलाई जा सकती।” (महात्मा गांधी)
पत्रकारिता के भीष्मपितामह पराड़कर जी के अनुसार- “हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सब प्रकार से स्वातंत्रय-उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य यह है कि हम अपने देश का गौरव बढ़ावें, अपने देशवासियों में स्वाभिमान का संचार करें, उनको ऐसा बनावें कि भारतीय होने का उन्हें अभिमान हो। संकोच न हो। यह स्वाभिमान स्वतंत्रता की देवी की उपासना करने से मिलता है।” अतः राष्ट्रीय एवं मानवीय मूल्यों से सन्दर्भित सत्कार्य ही पत्रकारिता है।
भारत में पत्र-पत्रिकाओं का आरम्भ 29 जनवरी, 1780 से माना जा सकता है। इस समय जेम्स अगस्टस हिंकी ने ‘हिकीजबंगला-गजट’ तथा ‘कलकत्ता जैनरल अडवरटाइज़र’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ कर भारतीय पत्रकारिता की नींव डाली। हिन्दी के प्रथम समाचार पत्र होने का गौरव व हिन्दी-पत्रकारिता के प्रारंभ का श्रेय ‘उदन्त-मार्तण्ड’ को प्राप्त है। यह साप्ताहिक पत्र 30 मई, 1826 को जुगल किशोर शुक्ल ने कलकत्ता के कोलू टोला मोहल्ले से निकाला। तत्पश्चात् कलकत्ता से ही राजा राम मोहन राय द्वारा ‘हिन्दू-हेराल्ड’ सम्पादित हुआ, जो ‘बंगदूत’ के नाम से जाना जाता है। उत्तर प्रदेश में श्री गोविन्द नारायण दत्ते ने ‘बनारस अखबार’ (सन् 1845 ई.) श्री तारा मोहन मिश्र ने बनारस में ‘सुधाकर’ (सन् 1850 ई.) पत्र, मुंशी सदासुख लाल ने आगरा से ‘बुद्धि-प्रकाश’ (सन् 1852 ई.) नामक पत्र निकाले। स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध नेता अजीमुल्ला खाँ ने 1857 ई. में दिल्ली से ‘पयामे-आजादी’ नामक एक राष्ट्रीय अखबार निकाला। ‘पयामे-आजादी’ के पश्चात ‘धर्म प्रकाश’, ‘सूरज प्रकाश’, ‘सर्वोपकारक’ आदि पत्र निकले। सन् 1868 में काशी के बाबू हरिश्चन्द्र ने ‘कवि वचन-सुधा’ नामक मासिक पत्र 15 अक्टूबर 1873 ई. को ‘हरिश्चन्द्र मैगज़ीन’ तथा 1 जनवरी 1874 को ‘बालबोधिनी’ पत्रिका निकाली। वे पहले लेखक थे जिन्होंने ‘नेशनेलिटी’ का प्रयोग किया था। उन्होंने एक लेख में लिखा- “हे देशवसियो! इस चिरनिद्रा से चौंको, इसके (अंग्रेज़ों के) न्यास के भरोसे मत फूले रहो, ये विद्या (अंग्रेजी शिक्षा) कुछ काम न आवेगी। यदि तुम हाथ व्यापार सीखोगे तो तुम्हें कभी दैन्य न होगा, नहीं तो अन्त में यहाँ का सब धन विलायत चला जायेगा और तुम मुँह बाए रह जाओगे।”
1 सितम्बर, 1877 ई. को प्रयाग से बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिन्दी प्रदीप’ नाम का मासिक पत्र निकाला।
“शुभ सरस देश सनेह पूरित, प्रगट है आनन्द भरे।
नीच दुसह दुर्जन वायु सौ मणिदीप सम थिर नहिं टरै।
सुखविवेक विचार उन्नति कुमति सब यामै जरै।”
ये पंक्तियाँ ‘हिन्दी प्रदीप’ के सिद्धान्त व उद्देश्य की प्रकाषक हैं। राष्ट्रीय चेतना के विकास की दृष्टि से ‘हिन्दी प्रदीप’ का जन्म एक क्रान्तिकारी घटना थी। सन् 1913 में महात्मा गाँधी की दक्षिण अफ्रीका में हुई गिरफ़्तारी का समाचार गाँधी के चित्र के साथ प्रकाशित करते हुए ‘हिन्दी प्रदीप’ ने लिखा-
“दीन है किन्तु रखते मान हैं,
कब मांगते किसी से दान हैं?
न्याय से चाहते अपना अधिकार हैं,
भव्य भारत वर्ष की सन्तान हैं?”
17 मई, 1878 ई. को कलकत्ता से ‘भारत मित्र’, 13 अप्रैल 1879 को ‘सारसुधानिधि’ पत्र निकाला। पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र ने ‘उचित वक्ता’ (7 अगस्त 1887), प्रतापनारायण मिश्र ने ‘ब्राहमण’ (1883) बाबूराम कृष्णवर्मा ने ‘भारत जीवन’ (3 मार्च 1884 ई.), राजारामपाल सिंह ने लन्दन से ‘हिन्दुस्तान’ (1885 ई.), पं. रामगुलाम अवस्थी ने जबलपुर से ‘शुभ चिन्तक’ (1887 ई.), पं. अमृत लाल चक्रवर्ती ने ‘हिन्दी-बंगभाषी’ (1890 ई.) बाबू देवकीनन्दन खत्री ने ‘साहित्य सुधानिधि’ (1 जनवरी 1883 ई.) तथा नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ (1896 ई.) प्रकाशित की गई। सन् 1900 ई. में प्रकाशित हुई ‘सरस्वती’ पत्रिका। हिन्दी पत्रकारिता की गौरव-गंगा यदि ‘सरस्वती’ कही जाए तो महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को भगीरथ संपादक के अतिरिक्त और क्या कहेंगे?
सन् 1907 ई. में डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे ने ‘हिन्दी-केसरी’ (1907 ई.) तथा पं. गणेशशंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ (सन् 1910 ई.) प्रकाशित किया। ‘प्रताप’ नामक पत्र का कार्यालय तो देश पर मर मिटने वाले नवयुवकों का प्रेरणा एवं प्रशिक्षण केंद्र बन गया था। 1907 ई. में ‘विश्वमित्र’ का प्रकाशन हुआ। यह एक तेजस्वी पत्र था। 5 सितम्बर, 1920 को शिव प्रसाद गुप्त ने दैनिक ‘आज’ तथा सन् 1923 में निराला जी के संपादकत्व में ‘मतवाला’ का प्रकाशन हुआ। ‘हिन्दी पंच’ (1926 ई.) ‘सेनापति’ (1920 ई.) में प्रकाशित हुए। सन् 1928 में श्री रामानन्द चट्टोपाध्याय ने ‘विशाल-भारत’ को जन्म दिया। सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी यशपाल जी ने इसी समय जेल से छूटते ही ‘विप्लव’ नामक साहित्यक पत्रिका का श्रीगणेश किया। सन् 1907 ई. में प्रकाशित ‘नृसिंह’ मासिक पत्र उग्र राष्ट्रवाद का समर्थक शुद्ध राजनीतिक पत्र था। सन् 1908 ई. में मालवीय जी ने प्रयाग से क्रान्ति का अगुवा ‘अभ्युदय’ नामक साहित्यिक पत्र निकाला। गाँधी जी स्वयं सिद्धहस्त पत्रकार थे। वे स्वयं ‘यंग इण्डिया’, ‘नव-जीवन’ तथा ‘हरिजन’ तीन पत्र चलाते थे। ‘कर्मयोगी’ पत्र के संपादकीयों में अंग्रेजों के विरूद्ध आग बरसती थी। यह पत्र राष्ट्रीय भावना की धुरी पर घूमता रहा। इससे प्रभावित होकर आगरकर जी ने राष्ट्रीय पत्र ‘स्वराज्य’ निकाला। प्रेमचन्द जी द्वारा संपादित ‘हंस’ एक क्रान्तिकारी पत्र था।
गोरखपुर जनपद ने हिन्दी साप्ताहिक ‘स्वदेश’ के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता को खुली चुनौती दी। ‘स्वदेश’ का प्रकाशन उस समय हुआ, जब हिन्दी पत्रों का कोई नाम लेता नहीं था। पराधीन भारत के देशवासियों में राष्ट्रप्रेम जागृत करने हेतु ‘स्वदेष’ ने अपने मूल सिद्धान्त को सभी अंकों के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित किया-
“जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।”
द्विवेदी जी ने हर संपादकीय टिप्पणी का प्रारंभ इन पंक्तियों से किया-
“स्वार्थ लाभ के लिए आत्म बलि हम न करेंगे।
जिस स्वदेश में जिए, उसी पर सदा मरेंगे।”
‘गीतांजलि’ के मुखपृष्ठ पर भी यही ख्वाहिश है-
“सूख जाये न कहीं पौधा यह आजादी का,
खून से अपने इसे इसलिए तर करते हैं।”
तत्कालीन पत्रकारिता का मूल स्वर स्वदेश प्रेम था। ‘ज्ञान-शक्ति’ ने स्वदेश प्रेम की भावना का प्रसार पूर्वी उत्तर प्रदेश में किया। राष्ट्र की पतित अवस्था पर पश्चाताप करते हुए मूनिस ने लिखा:-
“ऐ कौम देख तो तेरी हालत को क्या हुआ?
हैरत में आइना है कि सूरत को क्या हुआ?
हमको जलील, सुस्त व मजबूर देखकर,
‘परताप’ कह रहा है, हयैयत को क्या हुआ?”
पराड़कर जी ने सन् 1930 में ‘रणभेरी’ में लिखा- “ऐसा कोई बड़ा शहर नहीं रह गया है, जहाँ से एक भी “रणभेरी” जैसा परचा न निकलता हो। शुरू में वहाँ सिर्फ “कांग्रेस बुलेटिन” निकलती थी। फिर रिवोल्ट, रिवोल्यूशन (विप्लव), बेलवो, फितूर (द्रोह), ग़दर, बगावत, बदमाश अंग्रेज सरकार’ आदि निकलने लगी। दमन से द्रोह बढ़ता है, इसका यह अच्छा सबूत है। पर नौकरशाही के गोबर भरे गन्दे दिमाग में इतनी समझ कहाँ? वह तो शासन का एक ही अस्त्र जानती है- बन्दूक।”
शहीद मंगल पाण्डेय ने स्वर में स्वर मिलाकर यहाँ के निवासियों ने अजीमुल्ला खाँ के ‘पयामे-आज़ादी’ का गीत गाया-
“आया फिरंगी दूर से ऐसा मन्तर मारा।
लूटा दोनों हाथों से प्यारा वतन हमारा।
आज शहीदों ने तुमको अहले वतन ललकारा।
तोड़! गुलामी की जंजीरें बरसाओ अंगारा।।”
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री राजाराम अचल के संपादकत्व में ‘विजय’ पाक्षिक का प्रकाशन 26 जनवरी 1938 से प्रारंभ हुआ, जिसके मुखपृष्ठ पर ये पंक्तियाँ अंकित थीं-
“अभिलाषा तेरी किसे नहीं, कौन जोहता राह नहीं।
क्या कोई भी ऐसा जग में है, जिसे विजय की चाह नहीं?”
“स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है”- तिलक
“मैं तो अपने देश में रामराज्य लाना चाहता हूँ। मेरे स्वराज्य का यही अर्थ है।”- महात्मा गांधी
“विजय की सफलता के लिए मेरी शुभ कामना है, आशा है ‘विजय’ कांग्रेस का संदेश जिले के कोने-कोने में पहुंचाने का प्रयत्न करेगा।”- जवाहर लाल नेहरू
“लेकर पूर्ण स्वराज्य स्वप्न अपना पहचानें।
आजादी या मौत यही प्रण मन में ठाने।”- अंचल
उक्त अंश पाक्षिक पत्र की ‘तेजस्विता’ का द्योतक है। पत्र की कामना प्रथम अंक में ही द्रष्टव्य है- “माँ! स्वाधीनते अभी तू कितनी दूर है! तुम तक पहुँचने में अभी कितने दिन लगेंगे? आज़ादी की देवी! अब हम बेदार हो चुके हैं। अब हमें कोई पराधीन नहीं रख सकता।”
इस प्रकार तत्कालीन पत्र-पत्रिकाएं स्वतंत्रता आन्दोलन का आइना हैं, सजग प्रहरी हैं, सचेतक हैं, उद्बोधक हैं। ये पत्र-पत्रिकाएँ पराधीन भारत की जनता में नवचेतना की संवाहक रही हैं। स्वतंत्रता आन्दोलन में इन पत्र-पत्रिकाओं तथा इनके संपादकों, लेखकों व पत्रकारों का सक्रिय योगदान रहा है। “पत्रकारिता वास्तव में एक चुनौती है, जिसके आवश्यक गुण हैं- उत्तरदायित्व, अपनी स्वतंत्रता बनाए रखना, सत्य प्रकट करना, निष्पक्षता, समान और सभ्य व्यवहार।” समाचार पत्र युग के ऊष्मामापी ‘थर्मामीटर’ हैं तो वातावरण की सघनता-विरलता मापक ‘बैरोमीटर’ भी। इसीलिए प्रसिद्ध शायर अकबर ने इलाहाबादी कहा था-
“खींचों न कमानों को, न तलवार निकालो।
जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो।”
– डॉ. लक्ष्मी गुप्ता