विमर्श
स्त्री लेखिकाओं द्वारा सृजित नाट्य साहित्य और उसमें अभिव्यक्त स्त्री चेतना
– सोनम कनौजिया
स्त्री लेखिकाओं ने स्त्री होने के कारण स्त्री विषयक विडम्बनाओं तथा समस्याओं को स्वयं भोगा है और इसी भोगे गये जीवन-यथार्थ को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है, “चूँकि साहित्य समाज का दर्पण होता है अत: आधुनिक स्त्री निर्मित साहित्य में जहाँ एक ओर स्त्री के अस्तित्व एवं अस्मिता विषयक संघर्ष को निरंतर दर्शाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर उसकी मुक्ति विषय चेष्टाओं तथा उसके मध्य उठने वाले स्वचेतना के स्वरों की भी निरंतर सशक्त अभिव्यक्ति की जा रही है। ताकि समाज में स्त्री अस्मिता के ठोस स्वरूप को गढ़ा जा सके।” स्त्री लेखिकाओं ने स्त्री मुक्ति का मार्ग खोजती हुई स्त्री जीवन से सम्बन्धित अनेक प्रश्नों को साहित्य में उकेरा है।
साहित्य की प्रत्येक विधा में स्त्री लेखिकाओं ने अपनी अलग पहचान बनायी है। इन स्त्री लेखिकाओं ने नाट्य विधा के क्षेत्र में भी अपना अप्रतिम योगदान दिया है। स्त्री लेखिकाओं के द्वारा यद्यपि नाट्य लेखन की परंपरा भारतेन्दु युग में श्रीमती लाली देवी द्वारा कृत नाटक ‘गोपीचन्द्र’ से प्रारम्भ हो गयी थी लेकिन शिक्षा का अभाव, पारिवारिक उत्तरदायित्व, समाज एवं परिवार के विरोध और वांछित प्रोत्साहन के अभाव आदि विशेष परिस्थितियों के कारण कालान्तर में हिन्दी नाट्य लेखन के क्षेत्र में स्त्री-लेखिकाओं का अभाव रहा है। स्त्री लेखिकाओं द्वारा नाट्य लेखन न करने के सामाजिक तथा रचनात्मक कारणों का उल्लेख करती हुई सुमन राजे लिखती हैं, “एक सूत्र तो निर्विकल्प रूप से स्वीकार किया जा सकता है और वह यह कि कथेत्तर गद्य खुले मैदान का गद्य है, इसीलिये महिला रचनाकारों ने उस ओर जाने का साहस कम किया है। कविता यदि दर्पण में देखकर पत्थर चलाना था तो कथा-साहित्य अपने रचे नाम-रूपों को अपने प्रतिनिधि के रूप में उतार देना लेकिन अन्य विधाओं के बीच की पर्देदारी को पसन्द नहीं करती। शायद इसीलिये गद्य के सन्दर्भ में महिला लेखन का अर्थ कथा-लेख नहीं रहा।” परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् शिक्षा, प्रेस, जनजागरण अभियानों, समाज-सुधार एवं स्त्री-मुक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप स्त्री लेखिकाओं ने कथा साहित्य के साथ-साथ गद्य की अन्य विधाओं (कविता, नाटक, समीक्षा, पत्रकारिता आदि) में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है। स्त्री नाटककारों में मन्नू भण्डारी, मृदुला गर्ग, मृणाल पाण्डे, कुसुम कुमार, ममता कालिया, शान्ति महरोत्रा, मीराकांत, प्रतिभा अग्रवाल, नादिर ज़हीर बब्बर, श्रीमती दीपा श्री मोहन, गिरीश रस्तोगी आदि ने अपने नाट्य-लेखन से हिन्दी नाट्य साहित्य को समृद्ध किया है।
नाट्य साहित्य के क्षेत्र में स्त्री नाटककार के रूप में मन्नू भण्डारी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मन्नू भण्डारी ने अपने नाट्य रचनाओं में स्त्री के स्वतन्त्र व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा की है। इस दृष्टि से मन्नू भण्डारी का नाटक ‘बिना दीवारों का घर’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस नाटक में स्त्री स्वातन्त्र्य की भावना को पारिवारिक दायित्व वहन के मूल्यों के ऊपर रखा गया है। नाटक में स्त्री पात्र ‘शोभा’ उच्च शिक्षा प्राप्त तथा उच्च पदासीन एक आदर्श गृहिणी है परन्तु उसके पति अजित की दृष्टि में शोभा केवल उसके परिवार की देखभाल करने वाली एक दासी है। उसने कभी भी शोभा की भावनाओं का सम्मान नहीं किया। शोभा अजित के इसी रूढि़वादी व्यवहार को देखकर कहती है कि “आपको घर का इतना ख़याल है, अपनी और अप्पी का ख्याल है पर कभी मेरा भी ख़याल किया है आपने? कभी मेरी भावनाओं को समझने की कोशिश की है? मेरी अपनी कुछ आकांक्षाएँ हैं, अपने जीवन के स्वप्न हैं। इस घर की चार दिवारी के परे भी मेरा अपना कोई अस्तित्व है, व्यक्तित्व है।” शोभा की बात को सुनकर अजित पुंसवादी दृष्टि से उसे दबाने का प्रयत्न करता है। परन्तु शोभा अपने निजी अस्तित्व को बनाये रखने के लिये अन्ततः पारिवारिक उत्तरादायित्वों का परित्याग करके चली जाती है। वास्तव में यह नाटक “स्त्री-स्वतन्त्र्य के संक्रमण काल का यह नाटक खास तौर पर पुरुष को सम्बोधित है और उससे सतत सावधानी की माँग करता है कि बदलते हुए परिदृश्य से बौरा कर वह किसी विनाशकारी संभ्रम का शिकार न हो जाए, जैसे कि इस नाटक का ‘अजित’ होता है।” पुसंवादी समाज में स्त्रियों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने पर भी पुरुषों की रूढि़वादी मानसिकता के कारण आज भी अनेक कारणों से अन्याय को सहन करना पड़ता है परन्तु स्त्री समाज का एक शिक्षित तथा जागरूक स्त्री वर्ग इन अन्यायों के विरुद्ध संघर्षरत है।
मृदुला गर्ग ने अपने नाटक ‘तुम लौट आओ’ में भी पति-पत्नी के दाम्पत्य जीवन को लेकर लिखा है। नाटक में ‘स्त्री द्वारा गर्भ-धारण की समस्या’ को कथ्य विषय बनाया गया है। नाटक की नायिका मीता आधुनिक विचारों वाली होती हुए भी अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक है किन्तु उसका पति महेन्द्र को चकाचौंध भरी जिदंगी से अधिक मोह है। इसी कारण वह अपनी पत्नी के गर्भवती होने पर प्रसन्न न होकर उसको वह गर्भपात करवाने की सलाह देता है, क्योंकि वह उस बच्चे को अपने विदेश जाने में बाधक मानता है। परन्तु मीता उसकी इच्छा के विरुद्ध जाकर बच्चे को जन्म देने का निश्चय करती है, तो महेन्द्र मीता को उसके निर्णय के साथ छोड़कर विदेश जाने का निश्चय लेता है, पर जा नहीं पाता है वरन् अपनी पत्नी तथा बच्चे के पास वापस लौट आता है। यहीं पर नाटक का अन्त हो जाता है। इस नाटक में मृदुला गर्ग ने वर्तमान समय में आधुनिकता के प्रति मोह रखने वाले युवकों की मनस्थित का तथा इस कारण से टूटते पारिवारिक सम्बन्धों की वास्तविकता को उद्घाटित किया है।
मृदुला गर्ग ने अपने नाटक ‘एक और अजनबी’ में भी स्त्री-पुरुष के दाम्पत्य जीवन को मनोविश्लेषणात्मक दृष्टि से उद्घाटित किया है। आज के उपभोक्तावादी समाज में प्रेम का स्थान काम-वासना की पूर्ति ने ले लिया है। मृदुला गर्ग ने इसी यथार्थ को नाटक के माध्यम से उजागर किया है। नाटक की नायिका ‘शानी’ आधुनिक विचारों वाली स्त्री है, जो अपने पूर्व प्रेमी इन्दर को छोड़कर जगमोहन नाम के दूसरे पुरुष से विवाह कर लेती है किन्तु विवाह के पश्चात् शानी जगमोहन को आदर-सम्मान नहीं दे पाती हैं क्योंकि वह एक आत्मकेन्द्रित तथा स्वार्थी पुरुष है उसके लिये प्रेम एक वासना-पूर्ति है जो क्षण भर में शान्त हो जाती है। यहाँ तक कि जगमोहन अपनी पदोन्नति के लिये अपनी पत्नी शानी और अपने बाॅस इन्दर के बीच सम्बन्ध को भी सहजता से स्वीकार कर लेता है। आज के उपभोक्तावादी समाज में “स्त्री-पुरुष के बीच के आत्मिक दैहिक सम्बन्ध भी सामाजिक व्यवहार की बलि चढ़ जाते हैं।” इस प्रकार आज उपभोक्तावादी समाज में प्रेम तथा विवाह की परिभाषा भी परिवर्तित हो गयी है। अब मानव अपनी पदोन्नति के लिये अपने दाम्पत्य जीवन में किसी तीसरे व्यक्ति के प्रवेश को भी सरलता से स्वीकार कर लेता है। इस बदलते हुए सामाजिक यथार्थ को मृदुला गर्ग ने इस नाटक में रेखांकित करने का प्रयत्न किया है, जिनमें उनको पूर्णत: सफलता भी मिली है।
मृदुला गर्ग के नाट्य-संग्रह ‘तीन कैदे’ में तीन नाटक संग्रहित हैं और तीन नाटकों में केन्द्रीय धुरी स्त्री-संवेदना ही रही है। प्रथम नाटक ‘कितनी कैदे’ में एक स्त्री के साथ बचपन में हुए यौन शोषण के कारण उत्पन्न असामान्य परिस्थितियों में उसकी काम भावना के जाग्रत होने की व्यथा कथा है। दूसरे नाटक ‘दूसरा संस्करण’ में स्त्री-पुरुष के वैवाहिक जीवन से उत्पन्न निराशा, तनाव एवं द्वन्द्व आदि की समस्याओं पर आधारित है। तीसरा तथा अन्तिम नाटक ‘दुलहिन एक पहाड़ की’ में पहाड़ के स्वच्छ वातावरण में रहन वाले रूढि़वादी परिवार में विवाह करके आयी नववधू के द्वारा प्राचीन रूढि़यों को तोड़ने तथा उस परिवार के वृद्धों की उन रूढि़यों के प्रति मानसिकता को परिवर्तित करने का प्रयत्न वर्णित है।
हिन्दी नाट्य साहित्य में स्त्री रचनाकार शान्ति मेहरोत्रा ने भी अपने नाट्य लेखन द्वारा अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है। उन्होंने ‘एक और दिन’ नाट्य संग्रह तथा ‘ठहरा हुआ पानी’ नाटक की रचना की है। ‘एक और दिन’ नाट्य संग्रह में ‘सूर्यदंश’ ‘एक थी मौसी’, ‘अपने-अपने दायरे’, ‘आतंक’, ‘तीसरा आदमी’ तथा ‘एक और दिन’ आदि सभी नाटकों का कथ्य भले ही भिन्न-भिन्न हो, लेकिन मूलतः यह स्त्री जीवन से ही सम्बन्धित है।
शान्ति मेहरोत्रा के नाटक ‘ठहरा हुआ पानी’ की केन्द्रीय धुरी स्त्री है। शान्ति मेहरोत्रा नाटक के आरम्भ में नाटक के विषय में लिखती हैं कि ‘ठहरा हुआ पानी’ अर्थात् अर्थहीन जीवन और उसकी अंतहीन व्यस्तता की कहानी। उपलब्धि? कुछ टूटे हुए सपने, कुछ बुझे हुए व्यक्ति, कुछ पटे हुए द्वार। नाटक की नायिका सीता को उस घर की छत के नीचे घुटन का एहसास है, वह उससे दूर भागना चाहती है, सहज जीवन जीना चाहती है किन्तु अमरबेल का जो अंश उससे चिपक रह जाता है। वह उसके अंतर को निरंतर सोखता ही चला जाता है।” इस प्रकार यह नाटक स्त्री जीवन में बाहर-भीतर चल रहे अन्तद्र्वन्द्व को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से रेखांकित करता है।
डाॅ0 कुसुम कुमार ने नाट्य साहित्य सृजन में अपना बहुविध योगदान दिया है। उनके नाटकों में ओम क्रांति-क्रांति, सुनो शेफाली, संस्कार को नमस्कार, दिल्ली ऊँचा सुनती है, रावण लीला, पवन चतुर्वेदी की डायरी, लश्कर चैक तथा प्रश्नकाल विशेष उल्लेखनीय है। इन सभी नाटकों में स्त्री-जीवन के विविध पहलुओं को कथ्य विषय बनाया गया है। कुसुम कुमार के नाटकों के स्त्री पात्र सुशिक्षित है।जो अपनी अस्मिता तथा अस्तित्व को लेकर सजग है, आज स्त्री को पिता, पति तथा पुत्र के रूप में पुरुषों के संरक्षण की आवश्यकता नहीं है वरन् वह स्वयं अपने आत्मसम्मान की रक्षा करने में सक्षम है। कुसुम कुमार केे नाटक ‘सुनो शेफाली’ में एक ऐसी ही आत्मस्वाभिमानी हरिजन युवती शेफाली के जीवन संघर्ष का चित्रण है। नाटक में शेफाली एक स्वाभिमानी युवती है। उसे किसी की दया-दृष्टि में जीवन-जीना स्वीकार नहीं है, इसीलिये वह उच्चवर्गीय बकुल से विवाह करने से इन्कार कर देती है, क्योंकि उसका आत्मसम्मान आहत होता है। शेफाली अपनी माँ से कहती है कि ‘‘वह क्यों शादी करना चाहते हैं मुझसे अभी-इस वक्त………..मै। खूब समझती हूँ। बाप बेटा अपनी समाज-सेवा की हथेली पर सरसों जमाना चाहते हैं…..एक हरिजन लड़की का उद्वार किया उन्होंने……………यही कहकर अपने लिए जिन्दाबाद के नारे लगवायेंगे…………और मैं ? ……….उनके विज्ञापन का वाक्य बनी।’’ इसीलिये शेफाली प्रेम तथा उदारता के नाम पर उसका राजनैतिक उपयोग करने वाले सत्यमेव दीक्षित जैसे भ्रष्ट राजनेता तथा उसके पुत्र बुकुल के समक्ष चुनौती बनकर खड़ी हो जाती है।
स्त्री नाटककारों में मीराकांत का नाट्यकार रूप में विशिष्ट स्थान रहा है। उन्होंने ईहामृग, नेपथ्य राग, कन्धे पर बैठा था शप, भुवनेश्वर दर भवनेश्वर, हुमा को उड़ जाने दो, अंत हाजिर हो आदि नाटकों की रचना करके स्त्री उत्थान के क्षेत्र में अपना अप्रतिम योगदान दिया है। मीराकांत ने अपने नाटकों मंे युग-युगान्तर से संघर्षरत स्त्री जीवन की व्यथा कोे मूल कथ्य विषय बनाया है। पुरुष प्रधान समाज मंे स्त्री कोे स्त्री होने की कीमत सदियों से चुकानी पड़ रही है और आज भी वह कीमत चुका रही है। पुंसवादी समाज स्त्री को केवल नेपथ्य में ही देखना चाहता है उसका मंच पर आना उसे अस्वीकार है। मीराकांत ने अपने नाटक ‘नेपथ्य राग’ में इसी कुट यथार्थ को खना तथा मेधा के माध्यम से वैशिष्टपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। मीराकांत स्त्री के प्रति इस रूढि़बद्ध दृष्टिकोण के सम्बन्ध में लिखती हैं ‘‘यह दृष्टिकोण पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारम्परिक रूप से शताब्दियों से बहता चला गया है और इसने जनमानस में अपनी जमीन तलाश ली है। इसी जमीन पर समय-समय पर कहीं-कहीं फूटते है पौंधे दर्द के, चुभन के, इस एहसास के कि खना शताब्दियों पहले भी नेपथ्य में थी और आज भी सही मायने में नेपथ्य में ही है।’’ पुरुष प्रधान समाज, संस्कृति, परम्पराएं व मूल्य स्त्री को सदैव घर की चहारदिवारी में ही रहना चाहते है। उन्होंने यह स्वीकार नहीं है कि स्त्री प्रत्यक्ष रूप में सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराये।
आरम्भिक दौर में स्त्री लेखन का उद्देश्य समाज में पुरुष के समान हक पाने का रहा है और समयानुसार स्त्री लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं के द्वारा समाज में समता प्राप्त कर भी ली है। पुसंवादी सामाजिक व्यवस्था से संघर्ष करके स्त्री लेखिकाओं ने समाज में अपनी अलग पहचान बनाने में सफल रही है आज स्त्री लेखिकाएँं केवल स्त्री जीवन की समस्याओं को लेकर केवल लेखन कार्य नहीं कर रही है अपितु अन्य सामाजिक समस्याओं को भी अपनी रचनाओं के द्वारा उजागर करके समाज के प्रति अपनी जागरूकता का परिचय दे रही हैं।
स्त्री नाटककार मृदुला गर्ग ने अपने नाटक ‘जादू की कालीन’ माध्यम से कालीन उद्योग में कार्य करने वाले बाल श्रमिकों के प्रति हो रहे शोषण को समाज के सम्मुख उजागर करने प्रयत्न किया है। आज के उपभोक्तावादी समाज में सब कुछ उपभोग वस्तु बनकर रह गयी है। इस उपभोक्तावादी समाज में एक माँ अपनी लड़की को बेचने से भी हिचकती नहीं है। नाटक में रमई अपनी पुत्री को बेचती हुई कहती है कि मेरी लड़की को लेके जाओ, बाबू सौ नहीं तो नब्बे दे देना। ले जाओ बाबू। नब्बे नहीं तो अस्सी दे देना।’’ वास्तव में यह नाटक उद्योगों तथा कारखानों आदि में कार्य करने बंधुआ बाल श्रमिकों के यातना, विवशता तथा उनके साथ हो रहे यौन-हिंसा के सत्य को उजागर करता है।
मन्नू भण्डारी ने अपने नाटक ‘महाभोज’ राजनैतिक परिवेश का यथार्थ चित्रण करने वाला नाटक हैै। इस नाटक के द्वरा मन्नू भण्डारी राजनीति में व्याप्त सामंती व्यवस्था तथा भ्रष्टाचर का जीवंत चित्रण किया है।
बहुमुखी प्रतिभा की धनी मृणाल पाण्डेय ने ‘मौजूदा हालात को देखते हुये ‘जो राम रचि राखा’ ‘आदमी जो मछुआरा नहीं था’ ‘काजर की कोठरी’ ‘चोर निकलकर भागा’ तथा ‘मुक्ति-कथा’ आदि नाट्य कृतियों में विविध सामाजिक समस्याओं को कथ्य विषय बनाकर अपनी सामाजिक सक्रियता का परिचय दिया है।
‘‘मौजूदा हालात को देखते हुये’ नाटक में वर्तमान राजनीति परिवेश में होने वाले चुनाव अभियान पर तीखा व्यंग्य किया है, कि इस प्रकार हमारे देश में कर्णधार जननायक लोकतंत्र के आदर्शों की आड़ में झूठ, छल-कपट हिंसा तथा सम्प्रदायिकता का सहारा लेकर चुनाव लड़ते है और कुर्सी पर अधिकार कर लेते हैं।
मृणाल पाण्डे का दूसरा नाटक ‘जो राम रचि राखा’ विजय दान देथा की राजस्थानी लोककथा पर आधारित कहानी ‘खोज’ से अनुप्रेरित है। नाटक की रचना उच्च वर्ग वाले विद्रोही युवक के अन्तर्विरोधी व्यवहार को केन्द्र में रखकर की गयी है। सामंती शासन-व्यवस्था तथा उसके प्रतिकार करने के संघर्ष में अन्ततः सत्ता ही विजयी होती है और जनसामान्य के अधिकारों के लिये आवाज उठाने वाला प्रतिनिधि पराजित होता है। यह कटु सत्य यह नाटक पाठक के समक्ष प्रस्तुत करता है।
मृणाल पाण्डे ने ‘आदमी जो मछुआरा नहीं था नाटक में मध्यवर्गीय परिवार के जीवन की त्रासदी राज-सत्ता की विडम्बना, उसका अन्तरिक विशेष शासन तंत्र का दुर्दमनीय प्रभाव तथा लोकतंत्र में प्रेम आदि को विशेषित किया है।
इस प्रकार वर्तमान समय में स्त्री लेखिकाओं ने हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं की भाँति नाट्य विधा के क्षेत्र में भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थानसुनिश्चित कर लिया है। स्त्री नाटककर ने केवल स्त्री जीवन से सम्बन्धित वरन् समाज के अन्य विषयों पर भी गंभीरता सेलेखक कार्य कर रही है। ये लेखिकाएंँ जो लिखती है, वह स्वयं के होने की सामाजिक उपस्थिति, सामाजिक दायित्वों तथा सरोकारों के निर्वाह के लिए लिख रही है।
– सोनम कनौजिया