स्त्री मुक्ति बनाम स्त्री विमर्श: निकिता जैन
‘स्त्री विमर्श’ हिंदी साहित्य का एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा बन गया है, जिस पर हर एक व्यक्ति बात करना चाहता है। देखा जाए तो आजकल हर कोई स्त्री विमर्श का जानकार बन गया है। स्त्री या उससे सम्बन्धित विषयों को लेकर मन में चाहे जो कुछ भी हो, लेकिन जब ज़बान खुलती है, तो ऐसा लगता है कि हाँ! यही तो वो शब्द हैं, जो स्त्री को मुक्ति दिलाने में मील का पत्थर साबित होंगे। लेकिन जैसा सोचते हैं, वैसा परिणाम कभी ‘स्त्री मुक्ति’ की राह में हमें देखने को नहीं मिला है। क्या कारण है कि अभी तक स्त्री विमर्श पर बातें, विचार-विमर्श बंद नहीं हुआ है। कहीं यह तो नहीं हम ‘मुक्ति’ के अर्थ को किसी और संदर्भ में ही देख रहे हों? ‘स्त्री मुक्ति’ आखिर है क्या? क्या कभी हमने इसे गहराई से जानने की कोशिश की है? अगर की होती या जान गए होते तो शायद ये विमर्श कब का बंद हो गया होता और स्त्री को मुक्ति मिल गयी होती। एक चिड़िया जब पिंजरे की कैद से आज़ाद होकर आसमान में पंख फैलाकर उड़ान भरती है, तब उसे इस बात की कोई चिंता नहीं होती कि अब वो कहाँ जायेगी या अब उसका डेरा कहाँ डलेगा। कोई बाज उस पर आँख गड़ाये बैठा है या उसे मार डालेगा इस बात की फ़िक्र उसे नहीं होती। क्योंकि अगर इन सब चीजों के बारे में वो सोचने लगी तो शायद कभी न उड़ान भर पाए। इस चिरैया की तरह ही स्त्री की ज़िन्दगी है। आज के स्त्री विमर्शकारों ने महिला के पिंजरे के पट तो खोल दिए लेकिन उसी के साथ उसके पांव में कुछ ऐसी बेड़ियाँ डाल दी हैं, जिनकी वजह से आज वो स्वतंत्र होकर भी स्वतंत्र नहीं है। वह अपने पैरों पर खड़ी है लेकिन उसे लगता है कि उसे अभी भी किसी कंधे की आवश्यकता है, ताकि ज़रा भी लड़खड़ाये तो उसे सहारा मिल जाए। गिरने का डर ही स्त्री मुक्ति की राह में सबसे बड़ा बाधक सिद्ध हुआ है और यह डर उसके मन में समाज ने ही पैदा किया है।
इस लेख को पढ़कर शायद कुछ लोग (हो सकता है पढ़ने वाला हर शख्स) सोचें कि ऐसा बिलकुल नहीं है, आज स्त्री घर से बाहर निकल रही है, काम कर रही है, पढ़ रही है, कमा रही है, इससे बड़ी स्त्री मुक्ति और क्या हो सकती है? लेकिन स्त्री की आजादी घर से निकलकर काम करने तक ही नहीं है, यह तो स्त्री राजा-महाराजाओं के काल से ही करती आ रही है। भले ही उनकी दासी बनकर या किसी और रूप में लेकिन उस ज़माने में भी स्त्रियाँ काम तो करती ही थी। फिर चाहे वो दाई हो, दासी हो या पुजारिन हो। तो फिर फर्क क्या है, आज की स्त्री में और पहले की महिला में काम तो वो ही सब हैं| हाँ! क्योंकि अब हम आधुनिक चीज़ों से लैस हैं तो बस स्त्री के काम करने वाले विशेषणों को भी बदल दिया गया है। नाटक एवं नृत्य की जगह अब वह फिल्मों और टी.वी. सीरियल्स में काम करती है तो एक्ट्रेस कहलाती है। सीधी-सादी गृहणी से अब वो पढ़ी-लिखी हाउस वाइफ बन गयी है। दाई से अब वह गायनोकोलोजिस्ट है। तो फिर बदला क्या? ये सब तो वह पहले भी करती थी और अब भी कर रही है, उपमान बदल गए काम तो वही हैं। मंदिर में अभी भी पुरुषों का वर्चस्व है। ज़्यादातर मंदिरों का रख-रखाव अभी भी पुरुष ही करते हैं, तब भी ऐसा ही था। तो फिर इतने सालों से हम जो स्त्री विमर्श के नाम पर एक अभियान चला रहे हैं वह बदला कहाँ? वह तो जस का तस वहीँ खड़ा है? हाँ, अगर स्त्री विमर्श के बुद्धिजीवी लोग ये कहें कि भूमंडलीकरण के दौर में नारी की छवि बदली है तो इस बात में सहमति दर्शायी जा सकती है लेकिन फिर स्त्री विमर्शकारों द्वारा ही चलाया गया जुमला सामने आ जाता है कि भूमंडलीकरण के दौर में स्त्री को उत्पाद बनाकर छोड़ दिया गया है और नारी इसी में धंसती चली जा रही है। एक तरफ आप आज़ादी की दुहाई देते फिरते हैं और दूसरी तरफ जब नारी उसको अपनी आज़ादी समझने लगती है तो आप कहते हैं कि ये स्वतंत्रता नहीं, यह तो परतंत्रता है। ढाक के वो ही तीन पात हैं। कान को सीधा पकड़ लो या घुमाकर कर पकड़ लो पकड़ तो कान ही रहें न!
‘स्त्री विमर्श’ आन्दोलन का कतई यह मतलब नहीं था कि यह आन्दोलन एक ऐसे मुकाम पर पहुँच जाए, जहाँ पर केवल ‘स्त्री’ है, विमर्श गायब है। जिस विमर्श पर हम रोज़ संगोष्ठियों या कार्यशालाओं में बहस-बाजी करते हैं वह विमर्श तो कहीं से नहीं लगता, हाँ! ऐसा ज़रूर लगता है कि हर कोई बस स्त्री की छवि मन में अपने अनुरूप बनाये बैठा और जिसे स्त्री की जो छवि सुहाती है, उसी के अनुसार वह इस विमर्श की व्याख्या करता है। असल में स्त्री विमर्श है क्या? केवल स्त्री की आर्थिक और शारीरिक ज़रूरतों पर बात करना, केवल भूमंडलीकरण के दौर में स्त्री को उत्पाद के रूप में चित्रित करना? यही है स्त्री विमर्श? यह स्त्री विमर्श नहीं है, यह तो एक बाह्य आडम्बर है, जिसे हम रोज़ देखते-सुनते हैं। स्त्री विमर्श कभी भी किसी एक विचारधारा के साथ चल ही नहीं सकता क्योंकि भारतीय स्त्रियाँ या दुनिया के किसी भी देश की महिलाएं किसी एक वर्ग से ताल्लुक नहीं रखती हैं। वह विभिन्न वर्गों से आती हैं और भारत जैसे बहुसंस्कृतिवाद देश में तो विभिन्न समुदायों से आती हैं इसलिए जिस स्त्री विमर्श के आईने में आप एक संभ्रांत,पढ़ी-लिखी शहरी महिला को देखेंगे उसी आईने में एक निम्न-वर्ग की अनपढ़ स्त्री को नहीं देख सकते। क्योंकि दोनों की मुश्किलें, परिस्थितियाँ एक-दूसरे से नितांत भिन्न हैं।
आजकल ज़्यादातर व्यक्ति भूमंडलीकरण का हवाला देकर ‘स्त्री मुक्ति’ की व्याख्या करने में लगे हैं, लेकिन वह शायद इस बारे में नहीं सोचते होंगे कि सभी स्त्रियों के लिए मुक्ति की परिभाषा एक हो ही नहीं सकती। क्यूंकि सभी महिलाएं अलग वर्गों से आती हैं तो उन सबके लिए मुक्ति के मायने भी बदल जाते हैं। किसी पढ़ी-लिखी महिला को आप ‘मुक्ति’ की परिभाषा के रूप में यह समझा सकते हैं कि तुम्हें अपने हक़ के लिए लड़ना चाहिए, गलत बातों पर पुरुष का विरोध करना चाहिए लेकिन ये ही सब बातें क्या किसी ग्रामीण क्षेत्र की कोई घरेलू स्त्री समझ पाएगी? एक शहरी महिला की मुक्ति शादी न करना, अपने अनुसार अपने जीवन जीने में हो सकती है लेकिन ज़रूरी नहीं ऐसा गाँव में रहने वाली स्त्री भी सोचे (ऐसा नहीं है कि वह नहीं सोच सकती, लेकिन किसी के विचार अलग भी हो सकते हैं) उस स्त्री के लिए तो मुक्ति शायद इसमें ही है कि उसका पति उससे प्यार से बात कर ले, उसके बच्चे पढ़-लिख जाएँ, उन्हें दो वक़्त का खाना मिल जाए बस यह सब होते देख लिया तो समझो उसे उसकी मुक्ति मिल गयी। यहाँ पर कोई उस स्त्री पर यह जोर नहीं डाल सकता कि नहीं तुम गलत सोच रही हो, तुम बेड़ियों में कैद हो तुम्हें इन सब से आज़ाद होने की आवश्यकता है क्योंकि यह एक स्त्री की अपनी मानसिकता है और जब तक आप उसे मानसिक रूप से स्वतंत्र होने का अधिकार नहीं देंगे, वह स्त्री मुक्त कैसे हो पायगी? लेकिन कुछ लोग इस बात पर गौर नहीं करते या नहीं करना चाहते कि समाज के हर वर्ग की स्त्री की मुक्ति को आप एक ही तराजू में नहीं तौल सकते और अगर ऐसी कोशिश करेंगे तो मुक्ति तो बहुत दूर की बात है, स्त्री विमर्श जिस पथ पर चल रहा है वह उससे भी भटक जाएगा। ‘मुक्ति’ का कतई यह अर्थ नहीं है कि आप सही-गलत दोनों परिस्थितियों में पुरुष के खिलाफ डंडा लेकर खड़े हो जाएँ। स्त्री मुक्ति का अर्थ है कि जिस माहौल में हम रह रहे हैं अगर उसमें स्त्री के खिलाफ कुछ गलत कहा जाता है या किया जाता है तो तब अपनी आवाज़ बुलंद करें और उसके खिलाफ बोलें। इसमें स्त्रियों की मदद कोई तीसरा आकर नहीं करेगा बल्कि उन्हें खुद ही करनी होगी। क्योंकि मुक्ति का अर्थ ही यह है कि आप किसी भी परिस्थिति में किसी के अधीन नहीं है या किसी के बिसर नहीं बैठे हैं कि कोई आकर आपका साथ दे। आपको अपनी मुक्ति की राह स्वयं ही बनानी होगी और हर वर्ग की स्त्री को अपनी मुक्ति के मायनों को परिभाषित करना होगा कि आखिर उसकी उसकी मुक्ति के मायने क्या हैं।
दरअसल आज के स्त्री विमर्श की सबसे बड़ी दुविधा यह है कि हर कोई नारी मुक्ति को अपने अनुसार परिभाषित करने लगा है और उस नारी से ही नहीं पूछा जा रहा है कि आखिर उसे चाहिए क्या? कई स्त्री विमर्शकार अक्सर यह कहते हुए मिल जाते हैं कि आज की महिला को शादी करने की कोई आवश्कता नहीं है, वो आत्मनिर्भर है अपना पालन-पोषण स्वयं कर सकती है। यह बात सही है कि आजकल की लड़कियाँ किसी पर निर्भर नहीं हैं, वह सब कुछ खुद ही कर सकती हैं, लेकिन हम शादी केवल किसी के सहारे के लिए करते हैं? भारतीय समाज में शायद लोग शादी को केवल आर्थिक, शारीरिक सुरक्षा ही समझते हैं इसलिए कुछ लोगों के विचार इस तरह के होते हैं। लेकिन अगर हम सच में मुक्ति की बात कर रहे हैं तो किसी भी स्त्री पर या किसी भी इंसान पर अपनी विचारधारा थोप कैसे सकते हैं? किसी को शादी करनी है या नहीं करनी यह उसका निजी मामला है और उसकी अपनी ज़िन्दगी है लेकिन स्त्री विमर्श के नाम पर ऐसी बातें करना समझ से परे है।
हाल ही में ‘पीकू’ फिल्म रिलीज़ हुई है, उसमें एक ऐसा ही प्रसंग सामने आता है, जहाँ दीपिका पादुकोण को उसके पिता ने हर तरह की आज़ादी दी हुई है। नौकरी से लेकर किसी के साथ सम्बन्ध स्थापित करने तक की और उनकी बेटी इस आज़ादी को भरपूर जी भी रही है, लेकिन जहाँ कहीं पर उसकी शादी की बात चलती है तो पीकू के पिता यही कहते दीखते हैं कि मेरी बेटी आत्मनिर्भर है उसे शादी करने की क्या ज़रूरत है जबकि पीकू की यह इच्छा है कि वो शादी करे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि फिल्म में पीकू के पिता के तर्क आज के स्त्री विमर्श को एक नई दिशा प्रदान कर रहे हैं लेकिन बात फिर वहीँ आकर रुक जाती है कि जो कुछ वो कह रहे हैं उसमें उनकी बेटी की मर्ज़ी नहीं है तो वो अपनी सोच उस पर थोप रहे हैं, फिर जो इंडिपेंडेंस का दावा करते हैं वो दावा तो झूठा साबित हो गया क्योंकि आप उसे उसकी मर्ज़ी से जीने ही नहीं रहे हैं। और जब किसी की सोच पर अपने तर्कों का बोझ लाद देंगे तो इंसान स्वतंत्र कैसे होगा या उसकी मुक्ति की परिकल्पना कैसे की जा सकती है।
शादी न करने से स्त्री को मुक्ति प्राप्त हो जाएगी? केवल शादी ही बाधा है नारी मुक्ति में? इन प्रश्नों का जवाब शायद हर किसी के पास हो लेकिन कभी गौर किया है कि जिस चिंतन पर चलकर हम मुक्ति की राह को परिभाषित कर रहे हैं, दरअसल वह चिंतन गलत दिशा में जा रहा है। शादी न करना पितृसत्ता से आज़ादी पाने का तरीका नहीं (कम से कम मैं ऐसा नहीं मानती) बल्कि अगर आप किसी के साथ ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं तो उसकी मानसिकता में परिवर्तन लाना ही आपको इस सत्ता से मुक्ति दिला सकता है। समस्या से भागना या उस समस्या का समाधान ढूंढना कौन सा ढंग सही है? अगर शादी न करना ही स्त्री को मुक्ति दिला सकता है तो फिर जितनी शादियाँ अभी तक हुई हैं, उन सब की शादियों को भंग कर देना चाहिए। यहाँ यह कहने का कतई यह अर्थ नहीं है कि शादी करना स्त्री जीवन के लिए ज़रूरी है, बल्कि यह ज़रूरी है कि यह उस लड़की पर छोड़ दिया जाए कि उसे शादी करनी है या नहीं, करनी है तो कब करनी है, किसके साथ करनी है, अपनी मर्जी से करनी है या माता-पिता की मर्ज़ी से। हम किसी की सोच को ज़बरदस्ती परिपक्व करने की बजाय उसको स्वयं ही बड़ा क्यूँ नहीं होने देते। स्त्री को आवश्यकता से अधिक सुरक्षात्मक वातावरण प्रदान करके समाज ने उसे पंगु बना दिया है। और जब स्त्री इस विकलांगता को त्यागने के लिए खड़ी होती है तो ‘स्त्री विमर्श’ सम्बन्धी, समाज सम्बन्धी विचार फिर उसे कशमकश में डाल देते हैं।
किसी को सलाह देना अलग बात है लेकिन बार-बार एक ही बात को रट्टू तोते की तरह कहना दूसरी बात है। ऐसा ही कुछ आजकल ‘भूमंडलीकरण में नारीवाद’ को लेकर हो रहा है। हर बार यह सुनने को मिलता है कि आज स्त्री मीडिया, ग्लैमर वर्ल्ड की चकाचौंध में कठपुतली बनकर रह गई है। उसकी सौन्दर्यता का व्यापार किया जा रहा है इत्यादि। यह सही है कि भूमंडलीकरण के दौर में स्त्री की छवि में परिवर्तन हुआ है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उसे यह नहीं पता कि वो क्या कर रही है? अक्सर यह कहा जाता है कि फिल्म इंडस्ट्री में नारी को एक शो पीस की तरह पेश किया जाता है यह बात सही है, लेकिन अब हालत बदल रहे हैं फिल्में अब वीमेन बेस्ड भी आ रही हैं। विद्या बालन जैसी अभिनेत्रियों ने यह साबित कर दिया है कि उन्हें फिल्मों में उनकी शारीरिक सुन्दरता के लिए नहीं बल्कि उनके अभिनय के लिए लिया जा रहा है। सभी अभिनेत्रियाँ निर्देशकों के हाथों की कठपुतली नहीं होती हैं और न ही अपनी इमेज के लिए वह उनके कहे अनुसार कार्य करती हैं। 90 के दशक की एक जानी-मानी अभिनेत्री शिल्पा शिरोडकर ने साफ़ तौर पर निर्देशकों और निर्माताओं से यह कह दिया था कि “आप को मुझे फिल्म में लेना है तो लीजिये नहीं लेना है तो मत लीजिए, लेकिन मैं अपना वज़न फिल्मों के लिए कम नहीं करुँगी।” इतने बोल्ड स्टेटमेंट के बाद भी शिल्पा को फिल्में मिलती रहीं और वो फिल्मों में आती भी रहीं । इस तरह के प्रसंग यह साबित करते हैं कि 21वीं सदी में नारी मात्र वस्तु नहीं है, उसे जानकारी है कि अपनी गरिमा तथा अपने अस्तित्व को कैसे बनाये रखना है। रही बात उत्पाद की तो इस वैश्वीकरण ने केवल नारी को उत्पाद नहीं बनाया है बल्कि पुरुष को भी उत्पाद बनाया है। आज के पुरुष भी स्त्री की भांति अपना अंग प्रदर्शन करने के लिए मजबूर हैं। हर फ़िल्मी हीरो अपनी बॉडी बना रहा है, बल्कि आजकल तो पुरुषों का अंग प्रदर्शन फिल्म की डिमांड है। पुरुष भी ‘लक्स’ ब्यूटी सोप का विज्ञापन कर रहे हैं (जिसमें पहले केवल महिलाएं आती थीं), अब तो बड़े से बड़ा एक्टर वेर्ल्पूल वाशिंग मशीन, विम बार जैसे न जाने कितने विज्ञापनों में नज़र आते हैं। जिन स्त्री चिंतकों को यह शिकायत रहती है कि यह विज्ञापन आधुनिकता के आईने में एक बार फिर स्त्री को उन्हीं घरेलू कार्यों की और धकेल रहा है तो उन्हें कुछेक विज्ञापन गौर से देख लेने चाहिए कि यह कार्य केवल स्त्री के लिए ही नहीं पुरुषों के लिए भी हैं। और कुछेक विज्ञापन इस दिशा में अच्छा काम कर रहे हैं।
‘नारी मुक्ति’ इसमें नहीं है कि हम बार-बार नारी को उत्पाद कह कहकर जो वो कर रही हैं, जिस क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं वहां से भी पछाड़ दें, बल्कि इस बात में है कि जिस क्षेत्र में वो कार्य कर रही हैं अगर उस क्षेत्र में उनका शोषण हो रहा है तो वह उसके खिलाफ आवाज़ उठाएं , जैसे आजकल की लडकियाँ हर क्षेत्र में अपने पारिश्रमिक और काम के घंटों को लेकर सचेत हो रही हैं। इस तरह के क़दमों के द्वारा ही स्त्री अपने आगे से ‘उत्पाद’ जैसे शब्दों का बहिष्कार कर सकती है और नारी मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त कर सकती है। अपनी मुक्ति की इस डगर पर यह ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है कि अगर हमें अपने मन मुताबिक स्वतंत्रता चाहिए तो हमें अपने कार्यक्षेत्रों में परिवर्तन लाना ही होगा, जो हमें पसंद नहीं है उसके लिए न कहना सीखना होगा। सामाजिक मानदंडों को उन्हें अपनी सुविधानुसार बदलना होगा। इसी पथ पर चलकर स्त्री अपनी मुक्ति प्राप्त कर पाएगी और यहाँ पर उसका साथ हम सब को देने होगा और फिर से एक बार ‘स्त्री विमर्श’ को सही रूप में परिभाषित करना होगा।
– निकिता जैन