संस्मरण
स्कूली दिनों में लौटते हुए
लोग कहते हैं कि यह दुनिया बहुत बड़ी है, मगर मैं इसे नहीं मानता। ये दुनिया बहुत ही छोटी है वरना इस जीवन-यात्रा में हर्ष-विषाद, उम्मीदी-नाउम्मीदी, कामयाबी-नाकामयाबी की अंतहीन गलियों से गुज़रते हुए, किसी मोड़ पर अचानक बरसों के भूले-बिसरे दोस्त न मिल जाते। अतीत के अँधकूप में खो गये अनगिनत जाने-पहचाने रिश्ते कभी नहीं जुड़ पाते। कोई भूला-बिसरा कभी भी याद न आता। रूठकर अपनी राह बदल चुके प्रेमी-युगल अपनी ग़लतफहमियाँँ भुलाकर फिर से हाथ में हाथ थामे ज़िंदगी के सफ़र में साथ न चल पड़ते। रंग-बिरंगी चकाचौंध से भरी दुनिया घूम-घूमकर भी हमारे क़दम अपनी मिट्टी की सोंधी गंध के चुम्बकीय आकर्षण में बँधकर अपने गाँव की ओर न मुड़ जाते।
कभी सोचा भी नहीं था कि वर्षों बाद अपने घर से दूर उसी शहर में एक बार फिर आना होगा, जहाँ मेरा बचपन बीता था, जहाँ मैंने स्कूली शिक्षा पाई थी, जहाँ अपने छात्रावासी जीवन के अविस्मरणीय और बहुमूल्य पल गुजारे थे। करीब पच्चीस वर्षों बाद जब महाकवि दिनकर, बेनीपुरी और जानकी वल्लभ शास्त्री प्रभृत साहित्य मनीषियों से विभूषित और विश्वप्रसिद्ध लीची की अद्भुत मिठास से भरी इस नगरी में मैंने क़दम रखा, तो मुजफ्फरपुर ने जैसे बाहें फैलाकर मेरा स्वागत किया और अपने आलिंगन में लेकर पूछा कि कहाँ थे तुम इतने वर्षों तक? मैं क्या बताऊँ कि घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों, माँ-पिता के प्रति अपने दायित्वों, बच्चों के प्रति अपने संकल्पों का निर्वहन करते हुए कभी मुझे फुर्सत भी तो नहीं मिल पाई अपने बचपन से मुलाकात करने की!
मुजफ्फरपुर ज़िले का गौरव ज़िला स्कूल भव्य स्कूल, कैम्पस, विशाल हरा-भरा खेल का मैदान, प्रायोगिक उपकरणों और प्रदर्शों से सुसज्जित लैबोरेटरी, अनगिनत दुर्लभ ग्रंथों से परिपूर्ण लाइब्रेरी, बड़ा-सा सेमिनार हॉल, बड़े-बड़े क्लास रूम और क्लास रूम में सजी लकड़ी वाली बेंच-डेस्क की कतारें, लगा जैसे स्कूल मुझे बाँह पकड़कर फिर उसी क्लासरूम में बैठा लेने को आतुर हो। जी में तो आया कि एक बार फिर से छात्र बनकर वहीं रह जाऊँ। अतीत की स्मृतियाँ सिनेमा की रील की भाँति मेरी आँखों के सामने से गुज़रने लगी थीं।
हॉस्टल की उस छठवें नं. की खिड़की से मैंने अंदर झाँका तो स्मृतियों में खिड़की के सामने मेरी बेड, चौकी, रैक और टेबल दिख गयी। बरामदे में घूमते छात्रावास अधीक्षक उपाध्याय सर और उप अधीक्षक झा सर नज़र आ गये। उनका कठोर अनुशासन ग़ज़ब का था। छात्रावास की सारी दिनचर्या एकदम समय व नियम से चलती। जिसने उल्लंघन किया, उसकी पिटाई सुनिश्चित थी। शाम सात बजे से नौ बजे तक स्टडी पीरियड होता था। एकदम पिन-ड्राप साइलेंस और सिर्फ पढ़ाई। रात नौ बजे खाना खाने की घंटी लगती। उसके बाद दस बजे सोने की घंटी बजती और झा सर का सुपरविजन शुरू होता कि किस कमरे की लाईट जल रही है और कौन अभी तक जगा हुआ है। उनकी पदचाप और फट्टे की ‘ठक-ठक’ की आवाज़ का इतना खौफ था कि वह जिधर से गुज़रते, उधर के कमरों की लाइटोंं का बुझना क्रमागत रूप से शुरू हो जाता। किसी भी प्रकार की ग़लती और अनुशासनहीनता पर झा सर के फट्टे की मार शायद ही कोई छात्र अब तक भूला हो।
दशहरे और गर्मी की छुट्टियों का हम बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करते। माँ-पिताजी-भाई-बहनों की बहुत याद आती थी और इस इंतज़ार की खुशी में ही छुट्टी के दिन नज़दीक आ जाते थे। रक्षाबंधन पर मन रो उठता था। छुट्टी बस एक दिन की ही होती थी इसलिए हम घर नहीं जा पाते थे। डाक से समय पर बहन की राखी आ गयी तो ठीक वरना सूनी कलाईयाँ बड़ी अखर जाती थीं। याद आती है जाड़े में चार बजे सुबह जगाने वाली वो पगली घंटी। बड़े बे-मन से हम बरामदे में एटेंडेंस के लिए लाइन मेंं खड़े होते। कोई-कोई तो हम छात्रों द्वारा ही नींद में ही घसीट कर लाईन में लाया गया होता। कोई रजाई लपेटे हुए ही दीवार के सहारे सो रहा होता तो कोई कई बार नाम पुकारने पर भी जवाब न देता। बगल वाले के केहुनी या चाँटा मारने पर ‘येस सर’ की आवाज़ आती। फिर अगले एक घंटे में सामने वाले मैदान के कई चक्कर लगाना। बाप रे बाप! फिर मजाल है कि निंदिया रानी अपनी गोद में हमें सुला लें! खुले में एक ही जगह दस-बारह नल लगे हुए थे। वहाँ लाइन लगाकर नहाना। फिर नौ बजे खाने की घंटी और इसके साथ ही हमारा दिन शुरू।
ठीक प्रात: दस बजे सामने वाले बड़े-से मैदान में प्रार्थना होती थी और उसके बाद कक्षाएँ प्रारंभ हो जातीं। मेन गेट बंद हो जाता और किसी का भी अंदर आना प्रतिबंधित हो जाता। प्रिंसिपल डॉ. जयदेव सर छड़ी लिए बरामदे में निकलते और मुआयना करते। मजाल थी कि कोई भी छात्र बाहर नज़र आ जाये? उन दिनों हिप्पी बाल का ज़माना था। बड़े शौक से छात्र-युवा हिप्पी बाल रखने लगे थे। मगर हमारे स्कूल में इसकी अनुमति नहीं थी। जयदेव सर क्लास में अगर किसी छात्र को हिप्पी बालों में देख लेते तो उसके बाल पकड़ कर डेस्क पर ज़ोर से पटक देते थे। अगले दिन से बड़े बाल रखने का उसका सारा शौक हवा हो जाता। ज़िला स्कूल में कक्षाओं के नाम वैज्ञानिकों, लेखकों, साहित्यकारों के नाम पर रखने की परंपरा शायद जयदेव सर ने ही शुरू की थी। ग्यारहवीं कक्षा उन दिनों मैट्रिक कहलाती थी। मैं सेक्शन ‘ई’ में था, जिसे ग्यारहवीं ‘ब्राउनिंग ई’ कहा जाता था, प्रसिद्ध अँग्रेजी कवि राबर्ट ब्राउनिंग के नाम पर। आज की तरह स्कूलों, पब्लिक स्कूलों की भरमार नहीं थी मुजफ्फरपुर में। ज़िला स्कूल, चैपमैन, प्रभात तारा, मुखर्जी सेमिनरी आदि स्कूलों में ज़बरदस्त कंपीटिशन हुआ करता था और मैट्रिक बोर्ड की परीक्षाओं में इन स्कूलों के छात्र बिहार में स्थान पाते थे। शत-प्रतिशत रिजल्ट होना तो आम बात थी।
स्कूल में कक्षाएँ बड़ी घनघोर चला करती थीं- दस बजे से चार बजे तक- आठ घंटियाँ। परीक्षा के दिनों में हॉस्टल में हम छात्रों में प्रतिस्पर्धा होती कि कौन देर रात तक जग कर पढ़ता है और कौन सबेरे जल्दी उठता है। हॉस्टल के बरामदे, सीढ़ियों के कोनों, मेस के सामने वाली जगह और चैपमैन स्कूल से सटे बड़े से खेल के मैदान का कोना हॉस्टल के छात्रों से भर जाता। पेड़ों या दीवार के सहारे बैठे छात्र किताब-कॉपी लिए अपने-अपने उत्तर रट रहे होते। मैदान में खेलते-कूदते बच्चों से बिलकुल बेखबर। यह वो पल थे, जहाँ लगन, परिश्रम और तन्मयता से भविष्य की ठोस बुनियाद रची जा रही होती थी, सपने बुने जा रहे होते थे। यह स्कूल-छात्रावास का अनुशासन और माहौल ही था, जो हर छात्र को एक ही लक्ष्य के लिए तैयार करता था कि बस चलना ही है, पढ़ना ही है, संघर्ष करना ही है, अपनी संकल्प-शक्ति दिखानी ही है और जीवन में कुछ पाना ही है, कुछ बनना ही है। हॉस्टल की ओर की बाउंड्री में एक छोटा गेट हुआ करता था जिधर से हम बाहर निकलते थे। उसी तरफ के मोहल्ले में एक शिक्षक के पास हम हिन्दी की ट्यूशन पढ़ने जाया करते थे, नाम था उनका- श्री राम उदार शर्मा। वे प्रधानाध्यापक के पद से रिटायर्ड थे। उन दिनों मैट्रिक में लच्छेदार हिन्दी का ज़ोर था। शर्मा सर से हिन्दी पढ़ने विभिन्न स्कूलों के छात्र आया करते थे। उनकी भी बहुत याद आती है। उनकी पढ़ाई हिन्दी की छाप अमिट है।
यह सुनने में अविश्वसनीय और आश्चर्यजनक भी लग सकता है मगर हॉस्टल में हमारे नाम से आने वाली सभी चिट्ठी-पत्रियों की सेंसरशिप होती थी। उसके बाद हमें मिलती। हॉस्टल के कायदे-कानून तो इतने सख्त थे कि यदि उन्हें आज के स्कूल-कालेजों में लागू करने की कोशिश की जाए, तो रोज़ विरोध, हंगामे, प्रदर्शन और तोड़-फोड़ तक हों। हफ्ते में सिर्फ एक दिन रविवार को हमें बाहर जाने की छूट मिलती थी। नजदीक के छात्र अपने परिजनों-रिश्तेदारों से मिल आते थे। हम दूर वाले छात्र शाम को कल्याणी चौक तक जाते थे और कुछ मिक्सचर, चूड़ा, बिस्कुट आदि खरीद कर ले आते थे। रमना पानी टंकी के पास एक पोस्ट ऑफिस हुआ करता था। उसके बाद कल्याणी तक सड़क के दोनों ओर खाली ज़मीन थी, आज की तरह अत्याधुनिक दुकानों, शो रूम्स की श्रृंखला नहीं। उन दिनों कल्याणी चौक के कोने पर एक बड़ा-सा समसामयिक-राजनीतिक-सामाजिक कार्टून लगा करता था, जिसे देखने का लोभ-संवरण न तो हम कर पाते थे, न ही न शहरवासी। उस कार्टून के निहितार्थ पर हम छात्रों के बीच संंवेदनशील चर्चाएँँ होती थीं। आज तो कार्टून हास-परिहास-व्यंग्य-कटाक्ष के माध्यम से अभिव्यक्त रूपकों का भी हमारी चेतना और संवेदना पर कोई असर नहीं होता। बदलते वक्त नेे मानो हमारी सोच के दायरे को भी बदल दिया हैै। विशालता में हम लघुता की ओर उन्मुख हो चलेे हैं।
हवा में गूँजते उस कालखण्ड के ‘खइके पान बनारस वाला, अरे दीवानों मुझे पहचानो, ये रास्ता है ज़िंदगी, मुसाफिर हूँ यारों, वो मुकद्दर का सिकंदर, साथी रे तेरे बिना भी क्या जीना, ज़िंदगी तो बेवफ़ा है एक दिन ठुकराएगी, आदमी मुसाफिर है, फूल तुम्हें भेजा है ख़त मेंं’ आदि फिल्मी गीत कानों से होकर सीधे दिल में उतर जाते थे और ज़िंदगी का फ़लसफ़ा सिखाते प्रतीत होते थे। आज भी जब उन गीतों की स्वर-लहरियाँ सुनाई देती हैं तो मैं अक्सर खुद को हॉस्टल के उसी कमरे में खिड़की के पास बैठा हुआ पाता हूँ और स्कूल का एक किशोर छात्र बन जाता हूँ और लौट जाता हूँ अपने बचपन में।
ऐसा मेरा अनुभव है और मेरा मानना भी है कि एक छात्र के लिए खुद की लगन और मेहनत तो ज़रूरी है ही, स्कूल और स्कूली शिक्षा का उत्कृष्ट होना भी ज़रूरी है। विविध कारणों से विद्यालयों-महाविद्यालयों में छात्रोपस्थिति क्रमश: घट रही है। छात्र-शिक्षक अनुपात में असंतुलन पाया जा रहा है। स्वस्थ शैक्षणिक माहौल न बनने से छात्रों में पारस्परिक प्रतिस्पर्धा की भावना विकसित नहीं हो पा रही है, जिसका प्रतिकूल असर परीक्षा, परीक्षा-प्रणाली और छात्रों के व्यक्तित्व विकास पर पड़ रहा है। युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित हो रही है। व्यक्तित्व विकास का एक पहलू आत्मनिर्भर होना भी है। इसके लिए हर छात्र को अपने प्रारंभिक छात्र-जीवन में दो-चार वर्ष छात्रावास में ज़रूर रहना चाहिए। हम स्कूली जीवन में जो कुछ भी सीखते हैं, उसकी छाप जीवनपर्यंत हमारे व्यक्तित्व पर रहती है। स्कूल ही हमारी बुनियाद, हमारे चरित्र, हमारे भविष्य का निर्माण करता है। उसी मजबूत नींव पर महाविद्यालयीय, विश्वविद्यालयीय शिक्षा से उपलब्धियों की बुलंद इमारत खड़ी की जा सकती है। जितनी जल्दी हम इसे समझ जाएँ और इसकी महत्ता को अहमियत दें, उतना ही अच्छा।
– विजयानंद विजय