कविता-कानन
सृजन
अक्सर जब भी पाया है
दिशा हीन खुद को
चूकते शब्दकोश और
जकड़ती विचार शुन्यता
महसूसती हूँ कि
अब न हो सकेगा
कोई सृजन मुझसे
तभी तुम्हारा
शुष्क और उष्ण संप्रेषण
भावनाविहीन भाव
यूँ तपा जाता है
मेरे आत्मसागर को
कि उठने लगती है भाप
संवेदना बनकर
बहुत ऊपर
मन मस्तिष्क तक
फिर बन आँसूओ की बूँद
भिगोने लगती है अंतस
मन-मरूभूमि बन जाती है उर्वर
और हो ही जाता है एक सृजन
जग को खुशबू देती
मगर
नागफनी बोती मुझमें
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बड़ी बेटी
अपने अरमानों के पर से
उच्च मनोकांक्षाओं की मंजिल पाने
समेटती आत्मबल
सपनो के बादलों पर
तैरना चाहती हूँ
मगर
इससे पहले की उड़ पाऊं मैं
काट दिए जाते हैं मेरे पर
दार्शनिकता की कैंची से
चला दिया जाता है रोलर उपदेशों का
बाँधकर खोखले आदर्शों की जंज़ीर में
छोड़ देते हैं मुझे
ताउम्र
पर कटे, तड़पने को
सपनों के खंडहर मे भटकने को
क्यों…आखिर क्यों?
शायद इसलिए कि
मैं बेटी हूँ
अपने घर की बड़ी बेटी
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औरतें जीती हैं दोहरापन
औरतें जीती हैं दोहरापन
पहले पहल का प्रेम
और बाद में
कर्तव्यों की बलिबेदी
रोज के चौघड़िए का
एक क्षणांश
भावों के कंकर फेंकता ही है
मन मे उठता है ज्वार भाटा
कि काश वो रुहानी छुअन
कभी पूरा करती देहयात्रा
और सम्पूर्ण समर्पण से संवरी
खुद को निहार पाती,
पूर्ण होते देखती
मगर
हर रोज का चौथा पहर
उसे ले जाता है सिर्फ देहयात्रा पर
कोई रुहानी एहसास नहीं
होता है सिर्फ एक कर्तव्य
पिता की पगड़ी से चलकर
अपने बच्चों के भविष्य तक
समर्पण होता है पर
समपूर्णता नहीं और न
संवरने का भाव ही
जाने क्या होता है कि खुद को
निहारने से बचाती है निगाहें
और चलती रहती हैं
अपनी हीं परछाई से बचतीं
सभी आयामों में
प्रेतछाया-सी
– अपराजिता अनामिका श्रीवास्तव