लघुकथाएँ
सुसंस्कार
सोमवार की सुबह थी। प्रताप सिंह अपने इकलौते बेटे के लिए लड़की देखने मित्र सोमनाथ, पत्नी सुभद्रा व बेटे नितिन के साथ रामलाल जी के घर गए। रामलाल जी शहर के एक बड़े विद्यालय में हिंदी के अध्यापक थे। नितिन काफी पढ़ा लिखा व होनहार लड़का था। अब तो वह एक अच्छी कंपनी में नौकरी भी करने लगा था। रिश्ते तो नितिन के लिए बहुत आ रहे थे मगर प्रताप सिंह व सुभद्रा बहुत सोच-समझकर निर्णय लेना चाहते थे।
चाय पानी का दौर चल रहा था। हंसी-मजाक करते-करते माहौल बहुत खुशनुमा हो चला था। तभी रामलाल जी के बेटे ने किसी काम से बाहर जाने के लिए अपने मां-बाप से पूछा।
“मां! मुझे किसी काम के लिए शहर तक जाना होगा।”
“ठीक है बेटा! मगर शाम तक हर हाल में जल्दी लौट आना और कुछ भी ऐसा मत करना जिससे हमारी इज्जत पर कीचड़ उछले।” लड़के की मां ने बेटे को प्यार से समझाते हुए कहा।
प्रताप सिंह ने पत्नी सुभद्रा की ओर मुस्कुराते हुए देखा। जिस घर में बच्चों को ऐसे संस्कार दिए जा रहे हों, उस घर की लड़की को अपनी बहू बनाने के लिए वे एक-दूसरे को आश्वस्त कर चुके थे।
बात आगे बढ़ी और दो महीने बाद शादी तय हो गई।
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धार्मिक व्यापार
गोमती नगर में रामकथा का आयोजन किया गया था। पांडाल खचाखच भरा पड़ा था। कथावाचक रंग-बिरंगी पोशाक पहने, माथे पर चंदन का लेप लगाये सभी भक्तजनों को भक्ति-सिंधु में डुबाने की हरसंभव कोशिश कर रहा था। चेहरे पर अति सौम्यभाव लाकर वह मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की विनम्रता और दया भाव के किस्से सुनाए जा रहा था।
मई महीने की कड़कती धूप पड़ रही थी। अचानक बिजली चली गई। कथावाचक के माथे पर पसीने की एक खुराफाती बूँद उसके चेहरे के मेकअप को खराब करने के लिए बेताब थी। जैसे ही उसने गमछे से उस पसीने की बूंद को पोंछा चंदन के लेप का डिजाइन बिगड़ गया। अब कथावाचक का क्रोध सातवें आसमान पर था।
“यह कैसी-कैसी बुकिंग कर देते हो तुम?? न ढ़ंग की कोई व्यवस्था, ना खाने-पीने की बढ़िया सुविधा और ऊपर से पैसे भी कम मिलेंगे। अगली बार बुकिंग में
कोई चूक हुई तो तुम्हें टीम से निकाल दूंगा!!!” अपने कथा प्रभारी पर कथावाचक टूट पड़ा।
बिजली दोबारा आ गई। कथा फिर से शुरु हो गई थी।
– मनोज कुमार शिव