यादें!
सुन रहे हो न?
पता नहीं क्यों! कुछ स्पंदन नहीं होता। कभी-कभी तो साँस अटकने सी लगती है। लगता है आखिर क्या होगा इतनी चहलकदमी करके। बीते दिनों की परछाईयाँ पीछा ही नहीं छोड़तीं जबकि बहुत नाटक करते हैं खुद से। नहीं, ये उम्र का उतार -चढ़ाव नहीं और कुछ ही है जो पल रहा है बेबात बेहूदी, बोझिल घटाओं की तरह जो बस कड़ककर रह जाती हैं। न बरसती हैं,न ही सुकूँ देती हैं। अरे भाई! ज़िंदा हो तो अपने ज़िंदा रहने का प्रमाण तो देते रहना होगा। वो चाहे किसी रूप में, किसी आकार में ही सही।
कोई नहीं मरा पड़ा है तुम्हारे लिए, साँस आ भी रही हैं या घुट ही गई हैं! तुम कौन सा किसी के लिए कुछ उपयोगी हो? सच कहूँ तो लगता है…हम बस अपने लिए ज़िंदा हैं, अपनों के लिए नहीं। वैसे कई बार मन की यही उमड़-घुमड़ कुछ तोड़ती-मरोड़ती सी सवालों की पिटारी भर के सामने आ खड़ा होती है।
पता नहीं जाने वाले कहाँ, किस दिशा में जाते हैं? और…’देख रहे होंगे’ का एक भरम सा छोड़ जाते हैं। जिन पौधों को मन भरके भी कभी नहीं देखा, आज वो ऐसे आकर्षित करने लगे हैं जैसे हम ही प्राण फूँक रहे हैं उनमें। टूटन की हद तक एक चीरती सी लकीर भीतर और भीतर धँसती चली जाती है। दुनिया के हिंडोले में झूलती परछाईयाँ कभी इधर, कभी उधर डोलती हुई भरम ही तो पैदा करती हैं। तुम नहीं हो तो ये सब आकर्षित करने लगा है। पेड़ों की छुअन से तुम्हारी छुअन का भरम ही तो है। “यार ! कभी इन पौधों की तरफ़ भी देख लिया करो …वैसे इतनी चबर-चबर, वैसे पौधों से बातें नहीं!”
कभी समझ ही न आया, ये पौधों से बातें कैसे की जाती हैं? मुँह एक तरफ़ झटककर आगे बढ़ जाना ज़रूर तुम्हें तकलीफ़ देता होगा। पर क्या करें! कुछ बातों में ट्यूबलाइट ही जो ठहरे! आज लगता है ,सच में! ये तो पकड़कर पास बुलाते हैं। खींचते हैं जैसे पल्लू और हम अटककर रह जाते हैं। पीछे मुड़कर देखने की मज़बूरी जैसे रास्ता रोककर खड़ी हो जाती है और एक नए सिरे से ज़िन्दगी को देखने की शुरुआत होती है। और जो शुरुआत होती है वो रुकती कहाँ है? वो तो बस एक आवारा बादल की तरह इधर-उधर भटककर पीछे छिपे कुछ जुगनू पकड़ने आगे-पीछे होती रहती है। कोई पूछे कभी बादल ने भी जुगनू पकड़े हैं? नन्हे से जुगनू की भला क्या बिसात! किसी की अँधेरी मुट्ठी में!
ये टमाटर की पौध निकल आईं, ये मिर्ची की और करेले की बेलों में कितने नन्हे-नन्हे पीले फूल और पाँच करेले लटके, बिलकुल नाज़ुक से! “सरसों के तेल में करेले का मज़ा कुछ और ही है!” अब लगता है, तुम्हारे सामने अगर ये पाँच करेले भी निकल आते तो गर्व करने लगते मुझ पर। एक बार फूल छू जाने से डाल से टूटकर टपक जाने पर कैसी ऑंखें तरेरीं थीं! वो भूल जाने वाली बात है अब तो, तब भी बेकार ही क्यों झंझोड़ती है! अब तो सामने सरसों के तेल में बने करेले और यह छुअन! शायद तुम बासी पराँठे या बासी पूरी से इन्हें चटकारे लेकर तृप्ति कर रहे हो।
दरअसल ये कोई भूख-वूख नहीं होती ,ये तो चटकारे होते हैं। पेट तो आदमी किसी भी चीज़ से भर लेता है। और पता है…एक मोगरे का बड़ा सा गमला, जिस पर ढेरों कलियाँ लदी पड़ीं थीं,जाने कैसे नज़र से चूक गया। छाँह में रखवा देने के बावज़ूद भी, कुछ नहीं हो सका उसका ,साँस नहीं लीं उसने। क्या तुम्हारे पास पहुँच गया है?
कोशिश के समंदर में हाथ-पैर मारकर उस गंध को महसूस करने का तरीक़ा शायद यही होता जा रहा है। पता नहीं, पर मन के बादलों पर कोई नई-पुरानी कहानी लिखी जाती है जिसमें से कहीं से कुछ पहचानी, बिन पहचानी गंध पटल पर बिसुरती हैं। एक कोशिश ज़ारी है उस गंध को पकड़कर रखने की।
अब लगता है ,सब कुछ होता रहता है, बस.. अपने आप। हमें बस उसका एक पात्र बनना होता है। बनना होता क्या है! हम बनकर ही आए हैं, विभिन्न किरदार निभाने के लिए। जो संवाद बोलने पड़ते हैं, वो भी तो हवा के साथ तैरते हुए मुख में भर जाते हैं, उनके चरित्र का भाग बन जाना होता है जो हमारे हाथ में कुछ है ही नहीं। बस…निबाहना भर…! जाने कब क्या याद आ जाए, फिर याद करूँगी। सुन रहे हो न?
– डॉ. प्रणव भारती