विमर्श
सामाजिक संघर्ष के आईने में किन्नर समाज
– अकबर शैख़
मानव समाज की संरचना में मुख्य दो घटक हैं- स्त्री और पुरुष। इसके अतिरिक्त तीसरा घटक भी है, जिसे हम किन्नर, हिजड़ा, उभयलिंगी, थर्ड जेंडर, जनाना, कोचावाडू आदि कहते हैं। उर्मिला पोड़वाला के अनुसार- “ऐसे मानव किन्नर कहलाते हैं, जो लैंगिक रूप से न नर होते हैं न मादा। आमतौर पर न तो पुरुष और न ही महिला, ये एक तीसरे लिंग के रूप में पहचाने जाते हैं।”1 प्रारम्भिक काल से ही समाज में किन्नर की अवधारणा रही है लेकिन सामाजिक दृष्टि से वे महत्त्वहीन थे।
किन्नरों की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति का प्राक्कलन करें तो हम पाते हैं कि इनकी सामाजिक उपयोगिता केवल शासकों अथवा नवाबों के हरमों तक सीमित थी। इनका सामाजिक अस्तित्व केवल इतना ही था। मुख्यधारा के लोंगों में व्याप्त परंपरागत धारणाओं के कारण आज 21वीं सदी में भी उनकी दशा एवं दिशा ज्यों की त्यों बनी हुई है। जिसका प्रत्यक्ष अवलोकन 21वीं सदी के साहित्य से कर सकते हैं। हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं में किन्नर समाज के संघर्षमयी जीवन का चित्र अंकित किया गया है। गरिमा संजय दुबे द्वारा रचित कहानी ‘पन्ना बा’ में किन्नरों की वेदना को मेहसूस कर सकते हैं। “कोई काम पर रखे नहीं, कोई माता-पिता इस अभिशाप को साथ रखने को राजी नहीं, कोई नौकरी नहीं, कोई पढ़ाई नहीं, बेचारा मनुष्य जिए भी तो कैसे?”2 समलैंगिक होने के कारण कोई उसे अपने पास रखना नहीं चाहता। परंपरागत एवं रूढ़िवादी मानसिकता के कारण उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। सदियों से चले आ रहे इस खेल में किन्नर समाज को भी घसीटा गया है। इस तरह किन्नर जीवन की समस्याओं पर समकालीन लेखकों का ध्यान गया और उन्होंने अपनी लेखनी चलाई।
भारतीय संविधान में भारत के प्रत्येक नागरिक को समरूप अधिकार प्राप्त है। संविधान के मुताबिक सामान्य व्यक्ति की तरह वे भी शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, नौकरी प्राप्त कर सकते हैं, सरकारी योजनाओं का लाभ भी उठा सकते हैं। आदिवासी, दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक आदि की तरह उनके मौलिक अधिकार छीन लिए गए हैं। अन्य पिछड़े वर्गों की तरह किन्नर वर्ग भी समाज में पिछड़ा हुआ है और समाज में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। अस्मिता विमर्श की इस दौड़ में किन्नर समाज भी शामिल हो गया है। समलैंगिक वर्ग ने अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए कई लड़ाइयाँ लड़ीं। जनता एवं कानून के समक्ष अपने अधिकारों की भीख माँगी। तब जाकर 15 अप्रैल 2014 को भारतीय उच्चतम न्यायालय ने उन्हें तृतीय लिंग के रूप में मान्यता प्रदान की। समलैंगिक वर्ग ने कानूनी तौर पर अपने मौलिक अधिकार प्राप्त कर लिए, लेकिन सामाजिक तौर पर अधिकारों को प्राप्त करना अभी शेष है। वर्तमान दौर में किन्नर समाज अपने अधिकारों से वंचित रहने के कारण सामाजिक स्तर पर अनेक समस्याओं का सामना कर रहा है, जिसे निम्नलिखित बिन्दुओं में स्पष्ट किया गया है-
पारिवारिक एवं सामाजिक स्वीकृति की समस्या
बच्चों की किलकारी से घर और आँगन दोनों खिल उठता है। इसकी इच्छा माता-पिता में होती है। जब प्राकृतिक विकृति के कारण बच्चा किन्नर रूप में पैदा होता है तो यही माता-पिता उस शिशु से अपना पिंड छुड़ाना चाहते हैं। किन्नर रूप में जन्म लेना कोई पाप नहीं है और न ही उसमें उनका कोई दोष है क्योंकि वह तो ईश्वर की देन है। लेकिन फिर भी माता-पिता सहित परिवार के अन्य सदस्य भी उससे अपमानित व लज्जित महसूस करते हैं। लोक-लाज की वजह से उन्हें डाँटा-फटकारा जाता है, मारा-पिटा जाता है। प्रतिदिन उसका मानसिक शोषण किया जाता है। उसे घृणित, तिरस्कृत, हेय की दृष्टि से देखा जाता है। ऐसी स्थिति में बच्चा परिवार से कटकर, एकांत जीवन में विचरण करने लगता है। अधिकतर माता-पिता बच्चे को मार डालते हैं, कूड़ेदान में फेंक देते हैं या उनके समुदाय को सौंप देते हैं। यहीं से शापित बच्चों की समस्याओं का प्रादुर्भाव होता है।
आमिर खान द्वारा संचालित कार्यक्रम ‘सत्यमेव जयते’ में सिमरन नामक किन्नर का साक्षात्कार लिया गया, जहाँ सिमरन ने अपनी दुख एवं संघर्षरत कहानी सुनाई। “मुंबई की पारसी कॉलोनी के एक परिवार में जन्मा लड़का, जिसे बचपन से ही लड़कियों की तरह सजने-सँवरने का शौक था। लड़कियों के कपड़े पहनना और उनकी तरह रहना उसे भाता था। जिस उम्र में लड़के लड़कियों की तरफ आकर्षित होते हैं उस उम्र वो लड़कियों जैसा बनने के सपने देखता था। लेकिन परिवार को उसके तौर-तरीकों पर ऐतराज था। कभी हावभाव को लेकर तो कभी चाल को लेकर। उसे लगातार परिवार की ओर से तानाकशी का सामना करना पड़ता था। लड़का अंदर ही अंदर घुट रहा था। अपनी पहचान को लेकर गहरे असमंजस में था। लेकिन आसपास के लोगों ने न उससे बात की और न ही उसे समझा तथा स्वीकार करने की कोशिश की। हालात इतने बिगड़ गये कि लड़के के पास घर छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं था। घर छोड़ देने के कई सालों बाद सिमरन के रूप में उसे अपनी असली पहचान मिली।”
सिमरन अकेली ऐसी किन्नर नहीं है, जो मानसिक शोषण के कारण घर छोड़कर चली गयी। बल्कि वह तो सम्पूर्ण किन्नर बच्चों का प्रतिनिधित्व कर रही है। जिनसे बाल्यावस्था में ही नैतिक एवं आर्थिक समर्थन छिन जाता है। परिवार और समाज बच्चों को मातृत्वविहीन जीवन जीने के लिए विवश कर देता है। ऐसे स्थिति में बच्चा लगातार अपने अस्तित्व को बनाए रखने की कोशिश करता है। लेकिन किसी टूटी वस्तु की तरह उसे निकाल कर फेंक दिया जाता है। इतना ही नहीं मानसिक प्रताड़ना के कारण बच्चा आत्महत्या कर लेता है या तो किन्नर सिमरन की भांति नए रिश्तों की तलाश में निकल पड़ता है। इस तरह पारिवारिक एवं सामाजिक स्वीकृति की समस्या उनके द्वार पर दस्तक देती है और द्वारा खुलने तक यह सिलसिला चलता रहता है।
शिक्षा की समस्या
भारतीय संविधान के भाग 3 अनुच्छेद 14, 15, 16 और 21 में लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को रोका गया है। लेकिन आज भारत का हर व्यक्ति इन नियमों का अतिक्रमण कर रहा है। समानता, बंधुत्व, प्रेम, त्याग, समर्पण आदि का पाठ पढ़ाने वाली व्यवस्था ही लिंग के आधार पर भेदभाव कर रही है। जिसे हम ‘तीसरी ताली’ उपन्यास में देख सकते हैं। लेखक प्रदीप सौरभ के शब्दों में “जेंडर स्पष्ट न होने के कारण हम दाखिला नहीं दे सकते हैं…यह स्कूल सामान्य बच्चों के लिए है, बीच वाले बच्चों को दाखिला देने से स्कूल का माहौल ख़राब हो जाता है।”3 मुख्यधारा के लोगों की धारणा है कि स्कूल में किन्नर बच्चों को दाखिला नहीं देना चाहिए। इससे स्कूल का वातावरण दूषित हो सकता है। उनका असर अन्य बच्चों पर भी पड़ सकता है। पहले, कक्षा की अंतिम पंक्ति में निम्न वर्ग और अछूतों को बैठाया जाता था, वहाँ भी किन्नरों के लिए आज कोई स्थान नहीं है। उन्हें द्वार से ही लौटने के लिए मजबूर किया जाता है।
बेरोजगार की समस्या
शिक्षा के अभाव और सभ्य समाज के तथा कथित उच्च मानसिकता के कारण वे बेरोजगार हैं। उन्हें पेट भरने के लिए भटकना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति के समक्ष हाथ फैलाना पड़ता है। संवेदनहीन व्यक्ति के समक्ष हाथ फैलने का दर्द एक किन्नर ही समझ सकता है। स्टेशन, बस अड्डा, बाज़ार आदि जगहों पर वे भीख माँगते हैं। जब किसी व्यक्ति को पैसे नहीं देने होते हैं तो वह मुँह मोड़ लेता है या अपनी आलीशान कार का शीशा चढ़ा लेता है। यहाँ तक कह देता है कि हट्टा-कट्टा तो है, काम करके पैसे क्यों नहीं कमाता! ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमने ही उन्हें नौकरी नहीं दी और हम ही उन पर काम न करने का प्रश्न चिह्न लगा रहे हैं। हमेशा से ही ये समाज, किन्नर समाज को काम न करने पर ताने कसता आया है और जब वे काम माँगने के लिए जाते हैं तो उन्हें जलील कर देते हैं।
तमाम जद्दोजहद के उपरांत किसी किन्नर को नौकरी मिल भी जाती है तो सभ्य समाज उसे स्वीकारता नहीं। प्रतिदिन उसका मानसिक शोषण कर नौकरी छोड़ने पर विवश कर देता है। “वर्ष 2015 में बनी देश की पहली किन्नर प्रिन्सिपल ने 23 दिसंबर, 2016 को अपना त्यागपत्र दे दिया। कोलकाता के कृष्णागर महिला कॉलेज में मानबी बंद्योपाध्याय को प्रिन्सिपल का पदभार सौंपा गया था। इनकी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर इन्हें यह पद दिया गया था, परंतु कॉलेज के सहकर्मियों तथा छात्रों के सहयोग न मिलने के कारण इन्होंने मानसिक तनाव से मजबूर होकर त्यागपत्र दे दिया।”4 मानबी बंद्योपाध्याय की तरह गिने-चुने किन्नर हैं, जिन्होंने अथक परिश्रम से नौकरी हासिल की है। अन्य नागरिकों की तरह किन्नरों में भी इतनी क्षमता है कि वे देश के विकास में अपना योगदान दे सके। लेकिन उनकी योग्यता का कोई मोल नहीं है। इसलिए भीख माँगने और वेश्यावृत्ति के अलावा उनके पास दूसरा विकल्प नहीं है। अब किन्नरों की वेशभूषा भी पैसे कमाने का माध्यम बन गयी है। प्रजासत्ता न्यूज़ के अनुसार “विश्व विख्यात तीर्थ स्थल श्री नयनादेवी में 2 व्यक्तियों को नकली किन्नर बनना महँगा पड़ गया।” पिटाई के दौरान जब युवकों को नग्न किया गया, तब इस बात का खुलासा हुआ कि ये किन्नर नहीं बल्कि किन्नरों के भेस में लड़के हैं, जो महीने भर से यात्रियों से पैसे एंठ रहे थे। इसी कारणवश असली किन्नरों पर भी शंका जताई जा रही है। अतः सबसे बड़ी समस्या जीविकोपार्जन की है।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि उक्त समस्याओं के अतिरिक्त भी स्वास्थ्य, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता आदि अनेक प्रकार की समस्याओं से किन्नर समाज जूझ रहा है। सामाजिक अवहेलना से द्रवित, मौलिक अधिकारों से वंचित, शोषित, प्रताड़ित किन्नर समाज, समाज की मुख्य धारा में शामिल होने के लिए छटपटा रहा है। समाज के हाशिये पर खड़े किन्नर को समाज की मुख्य धारा में शामिल करने के लिए अनेक प्रयास किए जा रहे हैं। जब तक समाज की अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति के दृष्टिकोण एवं विचारों में परिवर्तन नहीं आता तब तक इस प्रकार के विमर्श व्यर्थ हैं। समाज में किन्नरों के अस्तित्व को स्थापित करने के लिए लैंगिक भेदभाव का परित्याग कर लोगों में शिक्षा, जानकारी, सूचना आदि का प्रचार-प्रसार करना चाहिए। वहीँ दूसरी ओर किन्नर समाज को भी समाज के अनुरूप मानवीय मूल्यों को आत्मसात करना होगा। ताकि वे भी समाज के साँचे में ठीक तरीके से बैठ पाएँ। किन्नर कोई दूसरा प्राणी नहीं है। वह भी मनुष्य ही है और सामान्य व्यक्ति की तरह समाज का एक हिस्सा है। यह तो हमारे दृष्टिकोण का दोष है। किन्नर प्रवृत्ति हमारे दृष्टिकोण एवं विचारों में है। जिस दिन इन विचारों का परित्याग करेंगे, उस दिन समाज में कोई किन्नर नज़र नहीं आएगा।
संदर्भ-
1. संपादक डॉ॰ विजेंद्र प्रताप सिंह, रवि कुमार गोंड, भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी विमर्श, पृ.- 158
2. गरिमा संजय दुबे, पन्ना बा
3. प्रदीप सौरभ, ‘तीसरी ताली’, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2011, पृ.- 42
4. पार्वती कुमारी, ‘किन्नर समाज तीसरी ताली’, वाणी प्रकाशन 2019, पृ.- 106
– अकबर शेख