कविता-कानन
सात प्रेम कविताएँ
मैंने चाहा था
प्रेम
एक ऐसे अनंत लंबे स्वप्न की तरह
जो कभी टूट न पाये!
दोनों किनारों के बीच
लबालब भरपूर पानी की तरह
जो कभी चुल्लू भर भी कम न हो!
हम देखते रहें
एक-दूसरे को युगों तक
और कभी तृप्त न हों!
हम जब हों हजारों मील दूर,
एक-दूसरे को तब भी
पहचान लें
हमारी साँसों के स्पंदन!
हवाएँ हमें छू कर
महसूस करें सुगंध
और फूलों को ज़रूरत पड़े
हमारे रंगों की!
हम जियें तरंगों में
देह में हों सिर्फ़ व्यक्त!
हमारे पैर थिरकते रहें
अनवरत और पृथ्वी पर न पड़े
ज़रा-सा भी बोझ
हमारे होने का!
हम ढूँढते रहें
एक-दूसरे को हर क्षण
रहते हुए एक-दूसरे के
आलिंगन में आबद्ध!
मैंने चाहा था प्रेम!
अकथ!
निशब्द!
निर्द्वंद!
यहाँ तो शोर बहुत है!
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मैंने तुम तक चाहा पहुँचना
जैसे हाथ से लिखी
चिट्ठी पहुँचती है!
और रास्ते में गुम गया कहीं!
मैंने तुम्हें चाहा समझना
जैसे पुरातत्व में प्राप्त शिलालेख
अज्ञात लिपि में लिखा हुआ कुछ!
और नाकाम रहा!
मैंने कहना चाहा तुमसे कुछ
जैसे शून्य में ठहरी हुई
पथराई आँखें!
और खड़ा रहा एक बुत की तरह!
कुछ तो छूट गया है
तुम्हारे मेरे बीच
जैसे छूट जाती है अक्सर ट्रेन
आँखों के सामने से
प्लेटफार्म पर पहुँचते पहुँचते!
ओ…!
सुन यात्री,
यात्रा का टिकट था मेरे पास
तेरे साथ!
प्लेटफार्म का नहीं!
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कई वजहें थीं
उससे न मिलने की!
हमारे बीच
क्षीण पड़ती जा रही थी ख़ामोशी
और बोझिल शब्दों के तले
दबती जा रही थी सहज साँसें!
एक-दूसरे के सान्निध्य में
समय आ अड़ा तिर्यक और
चुके जा रहे थे स्पर्श!
हमारी आँखों की संपन्न प्रतीक्षाएं
सपनों को कर रही थीं ख़ारिज़!
हमारे आँसू
भूल चुके थे अपना अर्थ!
कई वजहें थीं उससे न मिलने की और
उन्हीं के बीच से निकालनी थी हमें
मिलने की कोई वजह!
अचानक उसने कहा,
कुछ भूल रहे हो?
मुझे भी याद आया अचानक,
अरे हाँ, मैं तो भूल ही गया था!!
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तुमने मेरे कंधों पर
टिका रखा था अपना सिर
और मैं ढूँढ रहा था
अपने भीतर खोई हुई चीज़ें!
तुमने बाँधना चाहा मुझे
आलिंगन में और मैं
ताक रहा था मुक्ति की राह!
तुम चूमना चाहती थी
ठहरे हुए लम्हों को और मैं
ठिठका खड़ा था
दो वक्तों की दहलीज़ के बीच!
तुम्हारे अधरों पर रुकी हुई थी
प्रतीक्षा और मैं
बँधा हुआ था अपनी तेज़ रफ़्तार के साथ!
तुमने फूलों के बीच
संजो रखा था अपना वुजूद
और मैं दफ़्न रहा
किसी मरुस्थल की रेत में!
हाय!
क्यों छला रे ख़ुद को तूने!
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तुझ तक नहीं पहुँच पाया
मेरा बढ़ा हुआ हाथ,
शायद तेरी तरफ काफ़ी गहरा हो अँधेरा
मैं तो जलाए रखता हूँ
एक नन्हा-सा दीप हरपल
शायद उसकी किरणों का पथ
अहम की दीवारों से टकरा कर
लौट आता हो वापस
मैं तो कब का विसर्जित कर चुका हूँ
स्वयं को होम की हुई
ठण्डी राख
शायद नहीं पहुँच पाई
तुम्हारी दृष्टि तक
हवनकुंड से बहते धुएं की अजस्र धारा
मैं तो कब का ख़ारिज़ कर चुका हूँ
चुके हुए समय की वर्जनाओं को
जो रही हमेशा विरुद्ध
दो मुस्कानों के बीच बने
राजमार्ग से गुज़रने के
शायद तुम ही ने छोड़ दिया
अब मुस्कुराना
चल छोड़,
आ…
आजा, जैसे आता है
उमड़ कर घनघोर बादल
बिलकुल साफ़ आस्मान में अचानक
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बहुत दिन हो गये तुम्हारी आवाज़ सुने!
शायद इसीलिए नहीं टूटता अब सिलसिला शोर का
जो ठहर जाता था तुम्हारी आवाज़ सुन कर
और ख़ामोशी मुस्कुराती रहती थी
ख़ाली कमरे के शून्य में चिड़िया की तरह इधर से उधर उड़ते हुए
ढूँढ रहा हूँ कि सुन सकूँ दुबारा वो आवाज़
हवाओं में किसी खुली रह गई किताब के पन्नों की फडफडाहट में!
या कि सुन पाऊँ घड़ी की टिकटिक में
बेहद नाज़ुक ख़ामोशी के भुरभुरे क्षणों में!
या फिर अपने भीतर के निविड़ अँधेरे कोनों की दरारों बीच छिपे झींगुरों की
एकलय अनवरत धुनों में
हाँ, ऐसी ही आक्रांत जगहों पर खोई हुई है तुम्हारी आवाज़
मैंने नरम हवाओं से तैयार किया है तुम्हारे लिए संगीत
पकड़ लाया हूँ ब्रह्मांड से आँसुओं से भी अधिक तरल धुनें
कि लौट आए वही आवाज़ लय, ताल, सुर मिलाते हुए
और पा सकूँ उदासी के ख़ामोश शोर से मुक्ति
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बहुत चाहता हूँ तुम्हें!
कभी आओ,
रेत पर बैठ कर बनायें
रेत के घर
जिन्हें ढहाते हुए
थाम लें तुम्हारे अजस्र स्पर्श
और जिन्हें सँवार दें
तुम्हारी खिलती हुई साँसें
कभी आओ,
छूने दौड़ें तितलियाँ
एक को भी पकड़े बग़ैर,
और सूंघें तमाम फूलों को
एक को भी तोड़े बिना
कभी आओ,
तोड़ दें शोर की हदें
ख़ामोशियों को गुँजाते हुए
बग़ैर एक भी स्वर निकाले
कभी आओ,
मिटा डालें दृष्टा और दृश्य के बीच
सारे संभ्रम और छूट जायें
कुछ देर अपने स्व से
एक-दूसरे के साथ किसी
अदृश्य में बँधे हुए
कभी आओ,
चाहने के लिए!
कि चाहतें यूँ ही नहीं उमड़ आतीं!
वे रात भर झरती हैं
ओस की बूंदों-सी
हरी भरी घास पर चमकते हुए
ख़ुशी के आँसुओं जैसी
– कृष्ण सुकुमार