कविता-कानन
सहमा सा सच
सच
कितना एकाकी है
सहमा सहमा सा
कोने में दुबका
कभी कभार
आना भी चाहे बाहर
तो पड़ती है दुत्कार
देखने सुनने तक को
नहीं होता
कोई तैयार ,
और झूठ
तकनीक के पंखों पर
प्रचार के कंधों पर
करता है विश्व भ्रमण
उसकी आभा से
होकर भ्रमित
सब स्वीकारते हैं
हँस हँस करते हैं ग्रहण
अंततः सच भी
हारा मनमारा सा
करने लगता है
उसी को नमन
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आजादी
आजादी का अर्थ
नहीं केवल
खुली हवा में श्वांस,
बेलगाम बकवास,
अभद्र हास परिहास,
कोटि जनों के कष्टों से
कुछ का विकास,
नैतिकता का निरंतर ह्वास,
आजादी तो सापेक्षिक है
परिस्थितिजन्य है
व्यक्ति कभी आजाद है
जेल से रिहाई पर
और कभी
शयन कक्ष
अथवा शौचालय में
द्वार भीतर से
बंद करने के पश्चात,
किसी अन्य की आजादी की
जहाँ न शह लग सके
न हो सके मात
– ओंम प्रकाश नौटियाल