विमर्श
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की रचनाधर्मिता
– डाॅ. मुकेश कुमार
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना नयी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। इनका जन्म 15 सितम्बर सन् 1927 ई. को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में हुआ। इन्होंने धर्मवीर भारत व सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की छत्रछाया में रहकर अपनी काव्यदृष्टि का निर्माण किया। परन्तु इन्होंने ‘दिनमान’ का कार्यभार संभाला तब समकालीन पत्रिका के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को समझा और सामाजिक चेतना जगाने में अपना अनुकरणीय योगदान दिया। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जी का तीसरे सप्तक में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनकी प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं- काठ की घण्टियाँ (1959), बांस का पुल (1963), एक सूनी नाव (1966), गर्म हवाएँ (1966), कुआनो नदी (1973), जंगल का दर्द (1976), खूंटियों पर टँगे लोग (1982)। इस के साथ-साथ महत्त्वपूर्ण कविताएँ भी हैं- कॉफ़ी हाऊस में एक मेलोड्रामा, अहं से मेरे बड़े हो तुम, विगत प्यार, लिपटा रजाई में, मैंने कब कहा आदि।
‘पागल कुत्तों का मसीहा’ (1977), लघु उपन्यास ‘सोया हुआ जल’ (1977) प्रायोगिक उपन्यास तथा ‘बकरी’ प्रसिद्ध नुक्कड़ नाटक हैं। इसके अतिरिक्त ‘चरचे और चरखे’ लेखों का संग्रह है। ‘खूंटियों पर टंगे लोग’ प्रसिद्ध काव्य संकलन पर इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला है। इनकी कविताओं में समकालीन अनुभवों का रंग अधिक चटकीला है। इनके काव्य में व्यंग्य का हल्का पुट सर्वत्र व्याप्त मिलता है। देश की विसंगतियों और सामान्य मनुष्य की स्थिति उनकी कविताओं को केन्द्रीय विषय है। नयी कविता के रचनाकारों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।”1 सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जी ने ‘बकरी’ 1974 में एक नाटक लिखा, (लड़ाई 1979), (अब गरीबी हटाओ 1981) आदि। 23 सितम्बर सन् 1983 ई. को इनका देहान्त हो गया।
‘दिनमान एवं पराग’ का सम्पादन- “सन् 1964 में जब दिनमान पत्रिका का प्रकाश आरम्भ हुआ तो वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार सच्चिदानंद वात्सयायन ‘अज्ञेय’ के आग्रह पर वे पद से त्याग-पत्र देकर दिल्ली आ गये और ‘दिनमान’ से जुड़ गये। ‘अज्ञेय’ जी के साथ पत्रकारिता के क्षय से जुड़ गये। ‘अज्ञेय’ जी के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में काफी कुछ सीखा। 1982 में प्रमुख बाल पत्रिका ‘पराग’ के सम्पादक बने। इसी बीच उनकी पत्नी बिमला देवी का निधन हो गया। तत्पश्चात् सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की बहन यशोदा देवी ने आकर उनकी दोनों बच्चियों को मातृत्व भाव से लालन-पालन किया। पराग के संपादक के रूप में आपने हिन्दी बाल पत्रकारिता को एक नया शिल्प एवं आयाम दिया। नवम्बर 1982 ई. में ‘पराग’ का सम्पादन संभालने के बाद वे मृत्युपर्यन्त उससे जुड़े रहे।”2
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जी को तीसरे सप्तक में सम्मिलित किया गया है। तीसरे सप्तक में वक्तव्य के अन्तर्गत अपने काव्य सम्बन्धी अभिमत को व्यक्त किया है। क्योंकि कवि ने नये कवियों के रूप विधान के प्रति अधिक झुकाव का विरोध किया है। वो कहते हैं कि मैं विषय वस्तु को रूप
विधान से अधिक गहरा महत्त्व देता हूँ और यह मानता हूँ कि सम्पूर्ण नयी कविता ने रूपविधान से बहुत अधिक विषय वस्तु पर जोर दिया है।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जी कविता को दिल की गहराईयों में जीते हैं। काव्य की अनुभूति उनकी नस-नस में विद्यमान है। कभी यह महसूस होता है कि कविता शब्दों में नहीं उतर पा रही। फिर वो इन पंक्तियों में कहते हैं-
आग मेरी धमनियों में जलती है
पर शब्दों में नहीं ढल पाती।
मुझे एक जादू दो
मैं अपनी रग काटकर दिखा सकता हूँ।
कि कविता कहाँ है।”3
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की रचनाधर्मिता पर डाॅ. अशोक कुमार झा ने बहुत गहरी टिप्पणी की है, “काठ की घण्टियों से लेकर खूटियो पर टंगे लोग तक केवल एक काव्य यात्रा नहीं है। यह एक जूझते हुए आदमी की जिजीविषा है। एक चमकता हुआ शिलालेख है काले इतिहास के खिलाफ। एक मूर्त सर्जन है, अपनी धरती को बंजर होने से बचाता हुआ एक प्रामाणिक दस्तावेज है। तमाम बेमतलब जिन्दगियों को अर्थ की गरिमा देता हुआ। इन सबका होना ही सर्वेश्वर के होने की गारन्टी है।”4
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के काव्य सामाजिक विद्रोह, मूल्यों का विघटन, संत्रास, पीड़ा, यातना आदि से ही नहीं भरा हुआ है जबकि उसमें मानवीय प्रेम, भावना और सौंदर्य भी विद्यमान है। सर्वेश्वर जी की कविताओं में प्रेम की अनुभूतियों के विभिन्न प्रसंग विद्यमान हैं। कहीं-कहीं प्रकृति की सुन्दर छटा का भी वर्णन मिलता है।
अहं से मेरी बड़ी हो तुम
क्योंकि मेरी शक्तियों की
हर पराजय जीत की
अन्तिम कड़ी हो तुम
जहाँ रूककर
फिर नई मैं टेक गढ़ता हूँ।
चूंकि पैरों के तले मेरे न हो फिर भी
हर नए संघर्ष के विष शृंग चढ़ता हूँ
क्योंकि अन्तर में,
अतल गहरे-
आस्था के टूटते असहाय रथ के चक्र थामे।
नित खड़ी हो तुम।”5
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविताओं में कहीं दर्द की पीड़ा भी महसूस होती है। अधिकतर ऐसा प्रेम से सम्बन्धित कविताओं में होता है। प्रकृति के नये-नये उपमानों का सुंदर चित्रण मिलता है। इनकी कविताओं में नये-नये प्रतीक व उपमान विद्यमान हैं। उषा की पावन बेला के दर्शन होते हैं। कवि कहता है-
सुबह की तरह
हर क्षण ताज़गी से भरी
आलोकमय होती हुई
ये तुम्हारी मुद्राएँ
सन्ध्या के विविध
दृश्य-रंगों के परिधान-सी
यह तुम्हारी रूचि, ऋतुओं की तरह
यह तुम्हारा आना-जाना।
नियति की तरह।
यह तुम्हारा उठना-बैठना।
मुझे उस विराट सागर के सामने
हर क्षण खड़ा कर देता है
जिसकी लिए मेरी भुजाएँ
बड़ी-छोटी दीखती हैं।”6
“कवि के काव्य की सुबह हुई, फिर बनी ही रही उसकी लालिमा फिर कालिमा में नहीं बदलती। बेटी को जगाने के माध्यम से सम्पूर्ण गुप्त समाज को कवि ने जगाने की कोशिश की है। उन्होंने जागरण का शंखनाद कई प्रकृतिपरक रचनाओं में किया है। जैसे- पूर्णिमा प्यार, बसन्त स्मृति, सूरज नट, साँझ, एक चित्र, सूर्योदय, झाड़े की सुबह, सन्ध्या प्रश्नोत्तर, दस्तकारी की दुकान, बसन्त पूर्णिमा, मेघ, आए महक बसन्त आदि।”7
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, तीसरे सप्तक के कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के काव्य में नये-नये उपमानों एवं प्रतीकों के दर्शन होते हैं। उनमें लोकोन्मुखी चेतना है। प्रकृति के विभिन्न चित्रों का सुन्दर वर्णन किया है। इसी के साथ ग्रामीण जीवन का समावेश भी मिलता है।
आकाश का साझा बांधकर
सूरज का चिलम खींचता
बैठा है पहाड़
घुटनों पर पड़ी नदी-चादर सी
पास ही दहक रही है
पलाश के जंगल की अंगीठी।।8
सर्वेश्वर की आरम्भिक कविताओं में अस्तित्ववाद की पूरी शब्दावली और उसके अर्थ की स्वीकृति देखने को मिलती है। यथा ‘वरण की
स्वाधीनता’, ‘दर्द भय’, ‘निर्वासन’ आदि। जैसा कि कहा जा चुका है, अस्तित्ववाद के प्रभाव के समानांतर सर्वेश्वर को लोकवाद की धारा भी बहती दिखलाई पड़ती है। इस धारा के अन्तर्गत वे ग्रामीण जीवन के मानवीय और प्राकृतिक परिवेश का चित्रण करते हैं, जिसमें स्वभावतः एक ताजगी है। यहाँ वे अनेक प्रगीतात्मक कविताएँ भी लिखते हैं, जिनमें लोकगीतों की मस्ती और लयात्मकता के दर्शन होते हैं। “यह डूबी-डूबी साँझ। उदासी का आलम। मैं बहुत अनमनी चले नहीं जाना बालम।”9 उनका यह सुहागिन का गीत नई कविता के जमाने में बहुत लोकप्रिय हुआ।
‘काठ की घण्टियाँ’ में उनकी एक कविता है- ‘प्रेम नदी के वीरा’ जिसमें उन्होंने रूमानी लहजे में औरतों का आह्वान किया है कि वे पक्षियों की तरह हिल-मिलकर जिन्दगी का एक ऐसा गीत गाएँगे, जिसमें ध्वंस भी हो और निर्माण की आकांक्षा भी। इस क्रम में उन्होंने औरतों के जो अनेक चित्र अंकित किए हैं वे यथार्थ हैं-
तुम जो जुगनू-सी
हर क्षण अपनी रोशनी समेट लेती हो
क्योंकि परवश हो
और दूसरे क्षण जल लेती हो
क्योंकि औरत हो।10
“तुम- जो सफेदी मिली हुई
महीन गुलाबी चूडि़यों-सी
जवानी की नाजुक कलाई में भरी हुई
खनक रही हो।
और दिन, दोपहर, आते-आते
अपने अस्तित्व का आभास देती हो।
क्योंकि तुम ऊँचे घर की
सबसे ऊपरी मंजिल पर
पंख तोड़कर छोड़ दी गई हो।11
सामाजिक अंतर्वस्तु वाली सर्वेश्वर की ऐसी कविताएँ निश्चय ही अस्तित्ववाद के प्रभाव में लिखी गयीं। ये उनकी अन्य कविताओं की तुलना में अधिक मार्मिक है। उनकी लोक चेतना का विकास ही हमें उनकी कविताओं में देखने को मिलता है, जो अपनी परिधि में देश ही नहीं पूरे विश्व की युद्ध और शांति जैसी समस्याओं को समेटती हैं-
यह बंद कमरा
सलामी मंच है
जहाँ मैं खड़ा हूँ
पचास करोड़ आदमी
खाली पेट बजाते
ठठरियाँ लड़खड़ाते
हर क्षण मेरे सामने से गुजर जाते हैं।
लोकतन्त्र को जूते की तरह
लाठी में लटकाए
भागे जा रहे हैं सभी
सीना फुलाए।12
सारांश रूप में कहा जा सकता है कि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की रचनाधर्मिता सामाजिक चेतना, लोक चेतना, प्रेम की अभिव्यंजना एवं वस्तु जगत और भाव जगत के विविध आयामों से गुजरती हुई नये बिम्बों और प्रतीकों का अनुभव कराती है।
संदर्भ-
1. विश्वम्भर मानव, रामकिशोर शर्मा, आधुनिक कवि, पृष्ठ संख्या- 260
2. इंटरनेट
3. विश्वम्भर मानव, रामकिशोर शर्मा, आधुनिक कवि, पृष्ठ संख्या- 262
4. वही, पृष्ठ- 264
5. वही, पृष्ठ- 268
6. वही, पृष्ठ- 269
7. डाॅ. कालीचरण स्नेही, सर्वेश्वर और उनका साहित्य, पृष्ठ- 83
8. विश्वम्भर मानव, रामकिशोर शर्मा, आधुनिक कवि, पृष्ठ- 269
9. नंदकिशोर नवल, आधुनिक हिन्दी कविता का इतिहास, पृष्ठ- 457
10. वही, पृष्ठ संख्या- 458
11. वही, पृष्ठ संख्या- 458
12. वही, पृष्ठ संख्या- 458
– डाॅ. मुकेश कुमार