कथा-कुसुम
सम्वेदना की जलतरंग
आज जब कारावास सहते सहते ( लॉकडाउन) ड़ेढ़ महीना बीत चुका है, मुझे फूल की बहुत याद आ रही है। वैसे तो उसका नाम फूलकुमारी था पर मैं उसे प्यार से फूल कहा करती थी। उसे मेरे घर काम करते हुए अभी पन्द्रह दिन ही हुए थे पर उसने घर को जैसे चमका दिया था। खासकर सड़क की ओर खुलने वाली दो खिड़कियाँ । वह रात दिन उन पर से एक ना मालूम सी अनदेखी धूल झटकती रहती और पुँछ जाने के बाद खिड़की की ग्रिल पकड़ कर जैसे शून्य में कुछ खोजती रहती ।
कभी- कभी मैं देखती , वह एक निर्धारित समय पर आकर खिड़की पर खड़ी हो जाती, उधर से काम पर जाने वाली दो लड़कियों से वह धीरे – धीरे कुछ बतियाती रहती। ऐसा ही वह शाम को उनके लौटने के समय पर करती।
ये उसके मनोरंजन की एक दैनिक प्रक्रिया थी। एक प्रतीक्षा थी, कुछ अनछुए और अनकहे लम्हों को जी लेने की तलब थी पर अब उसका यूँ खिड़की पर खड़ा रहना मुझे अखरने लगा। आखिर क्या देखती रहती है ये सारे दिन।
‘फूल, जितनी देर बाहर तकती रहती हो, कुछ काम ही कर लिया करो’
जबकि मैं भी जानती थी, वह सारा काम निपटा कर ही अपने सपनों को पंख देती है।
‘दीदी, वह सामने वाले घर के पेड़ में कितने सुन्दर फूल आये हैं, ऐसा लगता है जैसे अंगूर के गुच्छे लटक रहे हों’
पगली, वह अंगूर के गुच्छे नहीं, अमलतास है।
सचमुच सामने वाले घर का अमलतास फूलों से लदा पड़ा था। मेरा तो कभी ध्यान भी नहीं गया और ये जरा सी काम करने वाली लड़की…. शायद फूलों को ही देखती रहती होगी। मैंने मन को मनाया।
मैं सोचने लगी, मेरा ध्यान कभी क्यों नहीं गया उन सुनहरी गुच्छों पर। पूरा पेड़ लदा पड़ा था। उसके पास में ही गुलमोहर दहक रहा था। मेरे घर में एक भी बड़ा पेड़ नहीं था बस चम्पा, चमेली, मोगरा, रातरानी दिन भर और रात भर महकते रहते थे। हरसिंगार के फूल झरते रहते थे, मधुकामिनी इठलाती रहती थी। बड़े बड़े गमलों में लाल , पीले, गुलाबी गुलाब झूमते रहते थे। आज सामने के घर में अमलतास देखकर अपने सारे पेड़ पौधे बौने से लगने लगे।
दूसरे ही क्षण उसने अपने मन से ये विचार निकाल दिया और सोचने लगी कितने सुन्दर हैं, उसके आँगन के ये तरू। सुगन्धित , खिले खिले।
‘फूल, अब चल, काम पर लग या सारे दिन अमलतास के गुच्छों को ही घूरती रहेगी’
‘जी मेमसाब’
पर ये क्या, जल्दी जल्दी वह काम निपटाती और फिर खिड़की पर जाकर खड़ी हो जाती।
एक दिन माया को फूल के खिड़की में खड़े रहने का रहस्य समझ में आ ही गया।
लाल पीले गुच्छों के पीछे था एक कमरा और उस कमरे में थी एक खिड़की। जो खुलती थी माया के घर की तरफ और एक दिन माया ने उस खिड़की पर खड़ी एक परछाई को देख लिया और देखकर पहचान भी लिया, वह देव था। सामने वाले घर में रहने वाली मिसिस अवस्थी का बेटा। माया के होश -हवास गुम। सारी कहानी उनके ज़हन में घूम गयी। जिन लड़कियों से वह बात करती थी, वह सामने वाले घर में काम करती थीं। इसका मतलब वह बिचौलिए का काम कर रही थीं।
अब क्या करे माया? क्या सुधा को बता दे कि उसका राजकुवँर एक कामवाली के साथ प्यार की पींगे मार रहा है या रहने दे, कहीं सुधा उसे ही दोष न देने लगे कि वह अपनी काम वाली को निकाल बाहर करे। फूल को ही समझाना होगा कि ये सब ठीक नहीं है। कल को कुछ ऊँच नीच हो गयी तो देव का कुछ ना बिगड़ेगा, वह बड़े घर का लड़का है पर उसकी इज्जत धूल में मिल जायेगी।
दोपहर को माया जब पलंग पर लेटी तो दिमाग फूल और देव की तरफ़ ही घूम रहा था। फूल का तो वह समझ सकती थी पर देव ! इतने बड़े घर का इकलौता बेटा ! पर ये भी सच है कि फूल को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वह एक काम करने वाली लड़की है, वह इतनी खूबसूरत और गोरी थी कि कई बार उसके घर आने वाले लोग , उसे माया की कोई रिश्तेदार की बेटी समझ लेते थे । क्या करे माया, कुछ समझ नहीं आ रहा . कह ही देगी, फिर जो होगा देखा जायेगा।
‘नहीं माँ , मैं आत्मन से कोई बात नहीं कर रही थी ‘ माया ने कहा पर उसकी आँखें बता रही थीं कि वह झूठ बोल रही है।
‘ देख माया, तेरी शादी की बात बहुत उच्च कुल के घराने में चल रही है, किसी इश्क- विश्क के चक्कर में मत पड़ना। तू अपने पापा को जानती है, तेरे साथ उस बन्दर की भी चमड़ी उखाड़ कर रख देंगे और फिर तुझे उस भिखारी के अलावा और कोई नहीं मिला’
तड़प कर उसने माँ को देखा।
पचास साल की उमर में ये माया क्या सोच रही है। जिन स्मृतियों के अवशेष भी नहीं बचे थे, आज अचानक राख झाड़कर सशरीर उसके सामने खड़ी हो गयी हैं।
ड़म ड़म ड़म ड़म की आवाज सुनकर सारे बच्चे गली में जमा हो गये हैं, बन्दर का खेल दिखाने वाला आया है ।
‘ माँ, पैसे दो ना, मुझे बंदर का नाच देखने जाना है’
‘ गली में जायेगी? आवारा बच्चों के साथ ताली बजायेगी ? चुपचाप खिड़की में से देख, हमारे घर की लड़कियाँ ऐसे गलियों में नहीं भटकतीं’
‘ पर सब तो जाते हैं’
‘ पर तुम नहीं’
‘ क्यों, मैं कुछ अलग हूँ क्या’
‘ हाँ’
मन मसोस कर वह बन्दर का नाच नहीं पर उसे घेरकर खड़े हुए दूसरे बच्चों को देखती है। काश वह भी, उनमें से एक होती। वहाँ खड़े बच्चों में भी एक है जो बंदर के स्टंट नहीं देख रहा, वह खिड़की में खड़ी उदास प्रतिमा को देख रहा है। वह नीचे क्यों नहीं आती?
वह नीचे से इशारा करता है, नीचे आओ न। वह धीरे से ना में सिर हिलाती है , नहीं. माँ नहीं आने देगीं। समय अपनी रफ्तार से बहता रहा। आज बारहवीं का रिजल्ट है, इसके बाद कॉलेज । माया खुश है, अब कॉलेज के तीन साल बचपन के साथी आत्मन के साथ। यहाँ कौन रोकेगा उसे । अब आजादी के साथ बात करेगी। घर के सामने रहते हुए भी माया को आत्मन से सिर्फ इसलिए बात करने की इजाजत नहीं थी क्योंकि वह पैसे वाला नहीं था। माँ को कहीं ये ड़र था कि इतना सौम्य, सुन्दर, प्रतिभावान आत्मन कहीं उसकी राजकुमारी के मन में ना बस जाये। पर वही हुआ जो माँ नहीं चाहती थी, आत्मन और माया का मूक प्रेम पनपता रहा, मौन संवाद चलते रहे, समय मुठ्ठी से रेत की तरह सरकता रहा। कॉलेज शुरू हुआ और मौन शब्दों में परिवर्तित हो गया। अब उन दोनों के पास अनगिनत बातें थीं, कभी ना खत्म होने वाले किस्से कहानियाँ थे।
‘माया, कॉलेज के बाद मैं सी. ए की तैयारी फिर नौकरी, वचन दो , विवाह नहीं करोगी. मेरा इन्तजार करना’
‘अभी मुझे एम. ए करना है, तुम नहीं आओगे तो डबल एम. ए कर लूँगी, फिर भी नहीं आये तो पीं . एच. डी कर लूँगी. पर तुम्हारा रास्ता देखूँगी ‘
सपने थे ये जो दोनों ने देखे . आज जो माया फूल के लिए करने जा रही थी, वही किसी ने उसके लिए किया था। पापा को आकर बता गया था कि तुम्हारी लाड़ली किसी से इश्क लड़ा रही है। आगे की कहानी फिर यंत्रणा के सिवा कुछ भी नहीं है।
आनन – फानन में दूसरे शहर में जाकर उसकी शादी आर्मी ऑफिसर से कर दी गयी। इस शहर से उस शहर भटकते हुए , दो जुँडवा पुत्रों की माँ बनकर वह भूल गयी कि कभी उसने किसी से प्यार किया था। अब वह आर्मी में सेवा करने वाले मेडिकल ऑफिसर की गरिमामयी पत्नी थी , उसका एक रूतबा था , एक रौब था।
इतने बरसों बाद आत्मन की याद आयी है जो बूँद बूँद आँखों से बहकर गालों को भिगो गयी है । नहीं कहेगी वह सुधा से कुछ भी। जो फूल की नियति होगी वह जाने । उसके कुछ दिन बाद ही वह काम छोड़कर चली गयी और कुछ दिन बाद ही कोरोना का कहर और लॉकडाउन । हाथ से काम करते करते फूल की अक्सर याद आ जाती थी। समय ने घर में बंदी बना दिया, धीरे धीरे चार महीने बीत गये।
एक दिन सुना, सामने वाले घर में , देव की शादी पंडित को घर पर बुलाकर , घर में ही सम्पन्न करवा दी गयी। ये खुशखबरी भी सुधा ने माया को फोन पर दी ।साथ ही ये भी जोड़ दिया जब कोरोना का कहर कम हो जायेगा तब ग्रैंड पार्टी रख देंगे।
‘अरे कौन है लड़की, कहाँ की है, क्या नाम है’
इतने प्रश्नों का उसने एक ही जवाब दिया, उसका नाम आहुति है, लव मैरिज है।
माया के दिल से सौ मन की शिला हट गयी । अच्छा हुआ वह एक पाप करने से बच गयी, नहीं तो उसके फूल के विषय में बताने के बाद उसकी क्या फजीहत होती, वह सोच भी नहीं सकती।छ: महीने बाद सुना देव और आहुति आस्ट्रेलिया चले गये।
दो साल बीत गये। सामने वाले घर में आज बड़ी रौनक है।दो साल बाद देव और आहुति, नन्हे मेहमान को लेकर वापिस घर आ रहे हैं। पूरा घर फूलों से सजाया गया है। संध्या का समय है तो बड़े बड़े पेड़ों पर रंग – बिरंगे बल्ब जगमगा रहे हैं। माया आकर खिड़की के पास खड़ी हो गयी।खिड़की के काँच पर पड़ी किरचें और धूल किसी की याद दिला गयीं। उसका भी विवाह हो गया होगा, शायद बच्चे भी, शायद किसी और के घर की खिड़की अब जगमगा रही होगी।फूल की याद मन भर गयी है।
कार का हॉर्न बजा और वह सोच से बाहर निकली। ड्राइवर दरवाजा खोल कर खड़ा है और धीरे से , बड़ी नज़ाकत से आहुति ने कदम बाहर रखा है।कंधे तक झूलते बाल. आँखों पर चढ़ा हुआ धूप का चश्मा,एकदम दुबली पतली खूबसूरत काया, गोरा रंग . लो वेस्ट जीन्स, कोल्ड शोल्डर टॉप और हाई हील में वह किसी राजकुमारी से कम नहीं लग रही थी।
लग रहा था जैसे चाँद जमीं पर उतर आया हो। पर ये चाँद कुछ पहचाना पहचाना सा कैसे लग रहा है। आहुति ने उसे देखकर हाथ हिलाया और बड़े आभिजात्यपूर्ण तरीके से हल्का सा मुस्कुरायी। वह स्मित! एक पल में पहचान गयी माया, ये तो फूल है। फूल और आहुति! आहुति और फूल !माया वहीं रखी कुर्सी पर ना बैठ जाती तो चक्कर खाकर गिर पड़ती।
विसंगतियों से भरे इस समाज में आदर्श का यह सर्वोच्च रूप था। रबारी समाज की, घर घर काम करने वाली लड़की एक ब्राह्मण कुल की बहू सिर्फ इसलिए बन पायी क्योंकि उसके माता पिता ने अपने पुत्र के प्रेम को समझा।नहीं तो कितने ही प्रेम सिर्फ जातिवाद और गरीबी- अमीरी की सड़ी हुई मान्यताओं के चलते दम तोड़ देते हैं।
सुधा माथे पर पल्लू रखकर , बेटे- बहू की आरती उतार रही थी। दिये की प्रकम्पित होती हुई लौ मैं आहुति का चेहरा किसी देवालय में रखी हुई मूर्ति सा लग रहा था।माया का मन सुधा के पैर छूने को तड़प उठा।
माया की आँखों की कोर में आज फिर से कुछ बूँदो ने शोर मचाया है। हवा का हल्का सा झोंका उसे छू कर निकल गया है। स्मृतिशेष रह गया एक नाम फिर से पलकों से गुजरता हुआ दिल के किसी खाली कोने में समा गया है।
– निशा चंद्रा