विमर्श
समसामयिक रचनात्मकता के अन्तः आवरण का आख्यान
(उदय प्रकाश की कहानी ‘आवरण’ को पढ़ते हुए)
– विनय मिश्र
चित्राधारित कथा रचने का कौशल समकालीन हिंदी कहानी में उदय प्रकाश की अपनी निजी विशेषता है। इनकी आवरण कहानी (प्रभाकर श्रोत्रिय के संपादन में, पूर्वग्रह-125 के अप्रैल-जून 2009, अंक में प्रकाशित) एक चित्र का संवेदनसिक्त आख्यान है। यह कहानी ‘एक कविता पुस्तक के आवरण चित्र’ के ब-ज़रिये अपने समय के परिवेश, परिस्थिति और रचनात्मकता की श्लेषात्मक–बहुकोणिक वास्तविक यथार्थ की विश्वसनीय अभिव्यक्ति में सफल और सार्थक मानी जा सकती है।
आवरण कहानी में कथावाचक प्रकाशित होने वाली अपनी पहली कविता पुस्तक के आवरण चित्र के लिए अपने चित्रकार मित्र से एक चित्र माँगता है। चित्रकार मित्र अपने जीवन का सबसे कीमती और सबसे अलग चित्र वापस करने के मार्मिक अनुरोध के साथ कथावाचक को देता है। वह चित्र “कलर पेंटिंग नहीं कलम से बनाया गया स्केच था। वह स्केच लकड़ी के फ्रेम के भीतर था। उसमें सैट– आठ साल का एक बच्चा था, जिसकी आँखों में अजीब-सी भय और निरीहता थी।” (पृष्ठ.20, पूर्वग्रह-125 अप्रैल-जून 2009)। यह एक चित्र का संवेदनशील और बारीक विवरण है। दो चित्रों का बारीक विवरण ‘वॉरेन हेस्टिंग्स का साड़’ कहानी में भी है। हाँ, आवरण कहानी में कोई चित्र नहीं दिया गया है। लेकिन यदि उदय प्रकाश की रचना पुस्तकों को गौर से देखा जाए तो संभवतः यह ‘तिरिछ’ कहानी संग्रह का आवरण चित्र प्रतीत होता है। इस आवरण चित्र का रेखांकन प्रदत्त सूचना के अनुसार प्रसिद्ध चित्रकार मंजीत बावा ने किया है।
आवरण कहानी में अनेक प्रयास के बावजूद चित्र के वापस न मिलने के कारण चित्रकार ‘ब्रेन हेमरेज’ के कारण ‘कॉमा’ में चला जाता है। ध्यान देने की बात है कि मनजीत बावा भी तीन साल तक ‘कॉमा’ में रहे और वर्ष 2008 में उनकी मृत्यु हुई।
कविता पुस्तक के आवरण चित्र के लिए चित्रकार द्वारा जो चित्र या स्केच दिया गया, वह चित्रकार का प्राण है। कथावाचक को लगता है कि “मुझे उस चित्र को सौंपते हुए वह (चित्रकार मित्र) मुझसे अपने प्राणों की भीख माँग रहा है।” (वही, पृष्ठ- 21)। यह चित्र चित्रकार के लिए जीवन है, संजीवनी है, सृजन की शक्ति है, चित्र बनाने की उत्प्रेरणा है, प्रेरक उद्दीपन है। कथावाचक भी चित्रकार की इस वैचारिक मनोभावना को शिद्दत से महसूस करता है। कथावाचक ब-खूबी जनता है कि यह चित्र चित्रकार के लिए अनमोल है, वहीं प्रकाशक के लिए महज एक रद्दी का टुकड़ा भर है, मूल्यहीन है।
साल-दर–साल बिताते जाने पर भी वह स्केच नहीं मिलता है। प्रकाशक अक्सर बहाने बनाकर कथावाचक को टालता रहता है। उस ‘स्केच’ के अभाव में चित्रकार वांछित और इच्छित चित्र नहीं बना पाता। “मेरी दिक्कत यह है कि मैं उस स्केच के बिना वैसी पेंटिंग्स नहीं कर पाता, जैसी मैं चाहता हूँ।” (वही, पृष्ठ- 24)। यह ‘स्केच’ या चित्र चित्रकार की रचनात्मकता और जीवन, दोनों को बनाये एवं बचाए रखने के लिए नितांत अनिवार्य और अपरिहार्य है। चित्रकार ने कहा था- “यह चित्र मेरे बेटे का है, जो मेरे मरने के बाद किसी को कुछ बता नहीं पाएगा। मैं उसी के लिए जीना चाहता हूँ।” (वही, पृष्ठ- 20)। इस चित्र के ज़रिये ही चित्रकार अन्य चित्र बनाने में सक्षम होगा। बेबस निरीह बेटे की स्थिति-परिस्थिति को संसार के सामने उजागर कर सकेगा। दूसरा कोई नहीं, स्वयं बेटा भी नहीं। यहीं लगता है कि बच्चा और उसका स्केच गरीब-बेबस सामान्य जन हैं, जिनकी व्यथा कथा को रेखांकित करने के लिए ही चित्रकार दुःसह मानसिक-आर्थिक प्रताड़नाओं के बीच भी जीना चाहता है। चित्रकार जैसी वत्सल-आत्मीयता एक सच्चे रचनाकार की ही हो सकती है। वह रचनाकार, जो दुःख और दरिद्रता के बीच जी रहे जन सामान्य की तरफ से बोलता है, जिनकी तरफदारी में कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती। ये जनसामन्य इतने लाचार और असहाय हैं कि अपनी लाचारी के कारकों को स्वयं कह नहीं सकते। इनका जीवन रचना में या चित्र में संवेदनशील रचनात्मक लोगों द्वारा ही अभिव्यक्त हो सकता है।
कहानी में एक पौधे के ‘स्केच’ की भी व्यथित कर देने वाली कथा है। चित्रकार की डायरी में ‘जल जमनी’ नामक वनौषधि पौधे का एक ‘स्केच’ है। “उस स्केच में वह पौधा अपनी मृत्यु के बिलकुल करीब लग रहा था। उसका जीवन लगभग बुझने के अंतिम पल में था।” (वही, पृष्ठ- 20) यह कैंसर जैसे संक्रामक रोगग्रस्त पौधे का ‘स्केच’ है, जिसे चित्रकार किंडूरी की पहाड़ियों पर जाकर रोज देखा करता था और वह बेहद दुखी होता था। चित्रकार उस पौधे को बचाने की हर संभव कोशिश करता है। वह चाहता है कि पौधे की जड़ों में कोई अच्छा डि-इन्फेक्टीसाइड देकर उसे बचा लिया जाय। लेकिन एहसास हो जाता है कि यह पौधा अब बच नहीं सकता। कारण कि “असल में कैंसर या कोई दूसरी संक्रामक बीमारी इस पौधे की जड़ों को नहीं, जमीं की मिट्टी को लग चुकी है और यह तेजी से फ़ैलती रही है।” (वही, पृष्ठ- 20)। यही चित्रकार के लिए सबसे बड़े डर, दुःख और दहशत की बात है क्योंकि सवाल केवल एक-दो या कुछ-एक पौधे का मरणात्मक बीमारी की ज़द में आने का नहीं है बल्कि भयावह संक्रामकता की चपेट में पूरी ज़मीन ही है। गहरे अर्थों में यह पौधा, आज की नई रचनात्मक पौध है। ऐसी प्रतिभावान और सर्जनशील तथा ईमानदार पौध को पनपने के लिए उचित पोषण और अनुकूल परिस्थितियाँ लगभग नहीं हैं। इसका कारण आज का क्रूर, निर्मम, बर्बर, समयसेवी और चापलूसी-पसंद होता जा रहा समय और समाज है, जहाँ नई रचनात्मकता लगभग दम तोड़ रही है या अपनी अंतरात्मा और सिद्धांतों से समझौता कर समयसेवी और चापलूस बन रही है। यह आज का सत्य और यथार्थ है। इसे उदय प्रकाश की गहरी दूरदृष्टि से सहजता से देखा जा सकता है।
चित्रकार हताशा और निराशा के बीच भी लुप्त, गुम और नष्ट हो रहे भाव, जीवन ,परिवेश और रचनात्मकता को बचने आखिरी क्षण तक कोशिश करता है। ‘जल जमनी’ के बीमार पौधे को देख वह कहता है- “मैंने सोचा था कि जो पौधा अब हमारी धरती से विलुप्त होने वाला है, कम से कम उसका रंग बचाकर मैं अपनी किसी पेंटिंग में इस्तेमाल कर लूँगा। अब इसी तरीके से हम चीजों को बचा सकते हैं। असल में जब इतनी चीजें ख़त्म हो रही हैं, किसी तरह हम उनकी स्मृतियाँ ही बचा सकें तो बहुत है।” (वही, पृष्ठ- 19)। संवेदना का ऐसा आत्मीय और मार्मिक बोध ही चित्रकार या किसी रचनाकार को महत्त्वपूर्ण और महान बनाता है। प्रसिद्धि या विस्तृत लोकप्रियता उसकी संवेदना और जन प्रतिबद्धता को और भी सघन बनाती है।
आवरण कहानी में चित्रकार के चित्रों की इंटरनेशनल मार्केट रेटिंग के बावजूद भी, वह उस ‘स्केच’ के लिए बेहद चिंतित और व्याकुल है। कथावाचक के अनेक प्रयत्नों यहाँ तक कि प्रकाशक के प्रति हिंसक होने के बावजूद भी वह ‘स्केच’ नहीं मिलता। चित्रकार एक फिर दुबारा जब उस बच्चे का वही स्केच बनाने की कोशिश करता है, तब ही उसे ‘ब्रेन हेमरेज’ का आघात होता है और वह ‘कॉमा’ में चला जाता है। अगले दिन ‘आदिवर्ण’ कलादीर्घा में चित्रकार की एकल चित्र प्रदर्शनी, जो पूर्वनिर्धारित थी, का सफल आयोजन होता है। उस चित्र प्रदर्शनी में दीवार के ठीक बीचो-बीच एक चौकोर-सी जगह डरावने ढंग से खाली छोड़ दी गयी थी। नीचे शीर्षक के साथ कागज़ कि पट्टी पर लिखा हुआ था- ‘चाइल्ड एंड हिज पोस्थ्युमस फ्यूचर’ ‘पेंटिंग मिसिंग’।” (वही, पृष्ठ- 25)
‘शिशु और उसका मरणासन्न भविष्य’ शीर्षक वाला गुम हुआ या न बन सकने वाला चित्र भयावह भविष्य के संकट का संकेत है।
‘असामयिक मृत्यु की ओर अग्रसरित भविष्य’ उस चित्र की, प्रकारांतर से इस कहानी की भी महत्त्वपूर्ण नब्ज़ है। दूषित होते प्राकृतिक परिवेश और मूल्यहीन तथा संवेदनहीन होते समसामयिक समाज में पनपने वाली नई रचनात्मकता के मरणासन्न भविष्य का विषादपूर्ण मार्मिक संकेत है।
संवेदनशील रचनाकार ही नई रचनात्मक पीढी के प्रति बेहद चिंतित और दुखित रहते हैं। मरणासन्न संकटग्रस्त भविष्य इन्हें हमेशा निराश और परेशान करता रहता है।
यह चित्र प्रकारांतर से यह कथा या आख्यान– नई रचनात्मक पौध, सम्पूर्ण प्रकृति तथा निरीह साधारण जन की कथा है। यही जीवन सच्चे, ईमानदार और संवेदनशील रचनाकार की रचना का प्राण होता है। उनके रचनात्मक ज़मीन की ऊर्वरा शक्ति होती है। चित्र का गायब होना गरीब-बेबस सामान्यजन के जीवन को साहित्य से बेदखल करने की साजिश मानी जानी चाहिए। हर संवेदनशील और सच्चा रचनाकार इस जीवन के बगैर रचना कर ही नहीं सकता। उस जीवन को रचना में व्यक्त करने के लिए विकल रहता है। यही कारण है कि चित्रकार और कथावाचक दोनों उस चित्र को पाने के लिए विकल हैं। इस समय की विडम्बना यही है कि रचना की दुनिया में बहुसंख्य लोग सत्ता के दम पर दाखिल हो रहे हैं, रचना की गुणवत्ता या संवेदनशीलता के बल पर नहीं। ऐसे लोग रचना के नाम पर लफ्फाजी करते हैं। अपनी रचना में और जीवन में भी ढकोसला, चाटुकारिता तथा अर्थहीन प्रशंसात्मकता के लिए शब्दों-वाक्यों का निरर्थक अंबार लगते हैं। इन्हीं परिस्थितियों में घिरा कथावाचक कहता है- “जिस भाषा में मैं लिखता था, उसमें ऐसे लेखक बहुत बड़ी संख्या में आ गये थे, जिनकी कारों में लाल-पीली बत्तियाँ लगी होती थीं। वे सरकार द्वारा सत्तावान बना दिए गए थे।” (वही, पृष्ठ- 24)। कालजयी रचना की उपादेयता सर्वसाधारण के जीवन, संसार, समाज, परिवेश से संभव होती है। यही धीरे-धीरे गुम और नष्ट होती जा रही है। इस कहानी का महत्त्वपूर्ण इशारा इसी ओर है।
कहानी में जनजीवन और पर्यावरण पर छाया संकट सामान्य नहीं है, वह लगभग समापन या मृत्यु के करीब है। कहानी में असामयिक मृत्यु-हत्या-संक्रामक जानलेवा रोग से ग्रस्त अनेक प्राकृतिक सामाजिक उपादान है। परिस्थितियाँ, परिवेश और पर्यावरण अत्यंत दूषित होकर गंभीर संक्रामकता की चपेट में इस कदर आ चुके हैं, जहाँ से बचना संभव नहीं लग रहा है। इसका एहसास हर सवेदनशील और सच्चे रचनाकार को होता है। कहानी में चित्रकार बेटे और पौधे दोनों के जीवन को देख बेहद हताश, निराश और परेशान है। जैसा परिवेश, परिस्थितियाँ और समाज बन रहा है, उसमें हर साधारण, बेबस, सत्ताहीन जीवन घनघोर संकट में है। इसी स्थिति के मद्देनज़र चित्रकार कथावाचक से कहता है- “क्या तुम्हें नहीं लगता कि जिस समय में हम लोग जी रहें हैं, उसमें हम लोग घटनाओं और चीजों को सिर्फ देख भर सकते हैं? कुछ कर नहीं सकते?” (पृष्ठ- 20) इस कथन में इस दौर की मार्मिक भयावहता और एक खास किस्म की असहायता को सुना, समझा और महसूस किया जा सकता है।
कहानी में एक कवि की एक ठेकेदार द्वारा दिन दहाड़े, सरेआम हत्या की जाती है। “उस शहर के सात हज़ार लोग कवि की हत्या को किसी बॉलीवुड की फिल्म या टी.वी. सीरियल की शूटिंग की तरह देख रहे थे।” (वही, पृष्ठ- 16) इस घटना में आज के समय की वीभत्स, दहशतनाक, हिंसक तथा समाज में फ़ैल रही सम्वेदनहीनता और सामूहिक प्रतिरोध के अभाव की गूँज सुनी जा सकती है। यह संवेदना का सिकुड़ते जाना है, नष्ट होना है। यह कथा मात्र नहीं, आज का कटु सत्य भी है। इसी घटना के बाद शहर का एक विद्वान ठेकेदार की कार में बैठ एक आयोजन जाते हुए कहता है- “मरने वाले के साथ कोई मर नहीं जाता।” (वही, पृष्ठ- 16) यह संवेदनशून्यता की पराकाष्ठा है, अतिशय चाटुकारिता है, व्यक्ति के अंतरमन में ईमानदारी, निर्भीकता और बेबाकी का मरना है।
यह कवि ही कथावाचक को एक प्रकाशक से मिलवाता है। तीस वर्ष पहले उजाड़-सा दिखने वाला प्रकाशक आज एक बड़ा व्यापारी तथा साहित्यिक दुनिया की बड़ी हस्ती बन गया है। इसी कहानी में एक और दूसरा प्रकाशक भी है, जिसने कथावाचक के पहले कविता संग्रह का प्रकाशन किया था। और उसी ने उस महत्त्वपूर्ण चित्र को, जो कथावाचक के चित्रकार मित्र का प्राण-सा था, लापरवाही से गुम कर दिया था। इन तीस वर्षों में प्रकाशक तो निरंतर धनवान होते गये लेकिन विडंबना यह कि सत्ताहीन प्रतिभावान, ईमानदार, जनप्रतिबद्ध रचनाकार के हालात बदतर ही हुए हैं। कथावाचक की स्थिति भी ठीक नहीं है। प्रकाशक भी ऐसे लोगों की बजाय उन सत्ताधारियों को ही तवज्जो देते हैं। कहानी में प्रकाशक द्वारा एक पुलिस अफसर की जो साधारण-सी कविता पुस्तक छपती है, उसकी छः हज़ार प्रतियाँ जा चुकी हैं। प्रकाशक कहता है– “चार बार प्रिंट का आर्डर देना पड़ा। राजभाषा विभाग, ग्रन्थ अकादमी, तेरह केंद्रीय विश्वविद्यालय, रेलवे बोर्ड, अड़तालीस लाइब्रेरीज…..। चार भाषाओं में उसका अनुवाद हो रहा है। होम मिनिस्टर और गवर्नर ने विमोचन किया। कोई अखबार नहीं, जहाँ उसकी रिव्यु नहीं आई।” (वही, पृष्ठ- 22) ध्यान रहे यह रचना की लोकप्रियता नहीं, बल्कि सत्ता की शक्ति का प्रभाव है। प्रतिभावान रचनाकार को महत्त्व न देना प्रकाशकीय दुनिया के एक बड़े भाग के अन्तःआवरण का सत्य है। नई रचनात्मक पौध के लिए ज़मीन की संक्रामकता इसे ही माना जाना चाहिए।
आवरण कहानी पर मोहनदास, मेंगोसिल जैसी महत्त्वपूर्ण कहानियों के शिल्प का गहरा प्रभाव मौजूद है। कथाकार उदय प्रकाश कथावाचक के रूप में कहानी के एक पात्र हैं। साहित्यिक, राष्ट्रीय, वैश्विक सूचनाएँ कई सांकेतिक रूप में तथा कई बार सीधे-सीधे व्यक्त हुई हैं, जो बदले और बदलते समय की स्पष्ट व्याख्या करती हैं। कहानी जगह-जगह इटैलिक अर्थात तिरछे अक्षरों में हो जाती है। अक्षरों के टेढ़े-मेढे होने का सम्बन्ध रचनाकार के अन्तः मन की बेचैनी और अकुलाहट से है। उसकी स्मृति से है। “स्मृति का मतलब ही होता है, समय में पीछे की ओर लौटना। उलटी दिशा में लौटना। ऐसे में जैसे लिपियाँ तिरछी हो जाती हैं, वैसे हमारे अपने चहरे भी टेढ़े-मेढे हो जाते हैं। लेखन तो वैसे भी एक ऐसा पेशा है, जिसमें लगातार और बार-बार स्मृतियों में रहना और आना जाना पड़ता है। इसीलिए आपने ज्यादातर पाया होगा कि लेखकों और कवियों के चेहरे टेढ़े-मेढ़े होते हैं।” (वही, पृष्ठ- 18, 19) सच्चे रचनाकार की रचना में दम होता है चेहरा चाहे जैसा हो। ‘जेइ मुख देखा तेइ हँसा, सुना ते आये आंसु’। (जायसी) इस कहानी में चित्रकार उस बच्चे के चित्र को दुबारा बनाने का प्रयास करता है। “और ऐसा करते हुए वह तिरछा और टेढ़ा-मेढ़ा होने लगा होगा। वह इटैलिक्स में बदलने लगा होगा। उसके शरीर के हर अंग तिरछे होने लगे होंगे। उसके गुर्दे, लीवर….उसकी शिराएँ और धमनियाँ, उसका ह्रदय…और बहता हुआ रक्त। फिर अंत में उसका मस्तिष्क और वहाँ मौजूद सारी स्मृतियाँ। अचानक उसका चेहरा किसी कमज़ोर नाजुक आइने के कई टुकड़ों में तिड़क गया होगा।” (वही, पृष्ठ- 25) इसके बाद वह मृत्यु के करीब ‘कॉमा’ में चला जाता है। यह चित्र, चित्रकार या रचनाकार की संवेदना है, भाव है, भावना है ,सहानुभूति है, अनुभूति है और अनुभव भी है। चित्र को गायब करना, एक तरह से ईमानदार, सृजनशील रचनाकार के लेखन को हो नहीं, उसके मन-मस्तिष्क पर सेंसर लगाना है, प्रतिबंधित करना है।
निरंतर विषाक्त, संक्रमित और मृत्यु की ओर अग्रसरित भविष्य को देख कथावाचक चिंतित और दुखित तो जरूर होता है लेकिन आखिरी उम्मीद और संभावनाओं की खोज में है। कथावाचक संक्रमित जीव, जीवन, परिवेश और रचनात्मकता को बचा लेने के लिए कहीं चले जाना चाहता है। एक तरह से ‘माइग्रेट’ कर जाना चाहता है। कथावाचक कहता है- “मेरा यहाँ से जाना वैसा नहीं होगा, जैसे किसी एन.आर.आई. या कॉलसेंटर या किसी एम.एन.सी. का जाना होता है। यह जाना वैसा भी नहीं होगा जैसा विजय माल्या आई. पी. एल. की क्रिकेट टीम लेकर दक्षिण अफ्रीका या इंग्लैंड चला जाता है। यह जाना वैसा होगा जैसे कोई अश्वत्थ वृक्ष, पीपल प्लाक्ष या बरगद धरती में दूर-दूर तक दसों दिशाओं में फ़ैली अपनी जड़ें समेट ले और कहीं और चल दे……। या जैसे गंगा या यमुना अपने उद्गम से सारा जल स्रोत समेट ले और जीवित रहने के लिए कहीं और चल दे।” (वही, पृष्ठ- 25) यह एक नए प्रकार के निर्वासन की योजना है, आकांक्षा है, गहराई से देखें तो बाध्यता भी। यह प्रतिभा, संवेदना और रचनात्मकता का पलायन या गहरे अर्थों में निर्वासन है।
(नव) पूँजीवाद के दौर में जहाँ प्रकृति से लेकर साधारण मनुष्य का जीवन और रचनात्मकता भी भीषण खतरे में है। इसी प्रकार के निर्वासन से ही जीवन बच सकता है। पूरे पारिस्थितिक तंत्र, समाज और रचनात्मकता को बचाए रखने के लिए परिवेश को बदलना होगा, मूल्यों की विश्वसनीयता कायम करनी होगी और संवेदनात्मकता को संजोये रखना होगा। विषम परिस्थितियों के बीच भी कथावाचक की उम्मीद कायम है। उसे उम्मीद है कि उसका चित्रकार मित्र ‘कॉमा’ से वापस आ सकता है। “वह खोया हुआ स्केच मिल जाय और मैं तीन साल से कॉमा में पड़े अपने दोस्त के कान में फुसफुसाकर यह खबर दूँ तो वह अब भी वापस जीवन में लौट सकता है। यही वह सम्भावना है, जो हमारे जीवन में अब तक किसी कदर बची हुई है।” (वही, पृष्ठ- 25) ऐसा इसलिए है क्योंकि उदय प्रकाश विषम, विषाक्त और संक्रमित होते परिवेश, समाज और रचनात्मकता के अन्तः आवरण को पूरे शिद्दत से रेखांकित करते हुए भी निराशा या हताशा के नहीं, संभावनाओं के रचनाकार हैं।
– विनय मिश्र