कथा-कुसुम
सता
ऑपरेशन थियेटर में, उस जली देह को देखकर, डॉक्टर वृंदा बेहोश होने जैसी हो गई। बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपने आपको संभाला। उस व्यक्ति का पूरा शरीर लगभग जल चुका था। समूची देह काली पड़ गई थी, उसमें से मांस जलने की गंध आ रही थी। बचने की उम्मीद एक प्रतिशत भी नहीं थी,परंतु जीवन अभी शेष था। वह डॉक्टर थी और अंतिम सांस तक उसे जीवित रखने का प्रयास करना ही था।
आश्चर्य यह था,जहां देह जल कर राख होने की तैयारी में थी,वहां उसके सुकुमार चेहरे पर जलने का एक भी चिह्न नहीं था। वह पैंतालीस पचास बरस का बड़ा ही आकर्षक पुरुष था। गोरा रंग, हल्की सफेदी लिए हुए घुंघराले बाल। ऐसा तो क्या हुआ होगा जो इसे जलने की ज़रूरत पड़ी।
आवश्यक ट्रीटमेंट के बाद उसकी देह को कांच की पेटी में रख दिया गया। सांसे अभी भी चल रहीं थीं ।जीवन मृत्यु का संघर्ष अपनी चरम अवस्था पर था।
ऑपरेशन थियेटर से बाहर आकर जब वृंदा को अनुज के जलने का कारण पता चला,तो अनुज के प्रति श्रद्धा से उसका मन नतमस्तक हो गया। जब नर्स ने उसे आकर बताया था कि किसी पुरुष की जली देह आई है तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ था क्योंकि आज तक उसके हॉस्पिटल में जली हुई स्त्रियां ही आईं हैं,कुछ स्वेच्छा से ,कुछ अनिच्छा से। आज ये अनहोनी कैसे हो गई?
अनुज अपनी पत्नी की जलती चिता में कूद गया था,उसके साथ सता होने के लिए। सता! कितना अजीब लगता है बोलते,सुनते हुए भी। क्योंकि हमारे कानों को अनादि काल से बस एक शब्द सुनने की आदत है,सती। सता शब्द! कितना अगाध ,असीम प्यार करता होगा वह अपनी पत्नी से,जिसके अनंत में विलीन होने पर वह स्वयं भी मर जाने को व्याकुल होकर उसकी धधकती चिता में कूद गया।
दिल के अंतर्तम कोने तक वृंदा को ठंडक महसूस हुई। चलो एक आदमी तो ऐसा निकला जिसने साबित किया कि सती होना सिर्फ स्त्रियों का ही हक़ नहीं है या फिर सिर्फ औरतें ही प्यार करना नहीं जानती,पुरुष भी होते हैं जो किसी के लिए जान देना जानते हैं।
आज तक बेचारी औरतें ही सती होती रहती हैं। वह जो जिंदा रहते हुए भी पल पल एक अदृश्य चिता में सुलगती रहती हैं,वह जिन्हें ज़बरदस्ती चिता में कूदने के लिए मजबूर किया जाता है। सती प्रथा कब की समाप्त हो चुकी है।अब औरतों को पति ही सती कर देता है,कभी उसकी साड़ी में आग लग जाती है,कभी गैस खुली रह जाती है। ऐसे में अनुज का आना,वृंदा को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर रहा है।
वार्ड बॉय को कॉफी लाने को कह कर वृंदा अपने चैम्बर में आ गई। वह काफी थक चुकी थी। कुर्सी पर माथा टिका कर उसने आंख बंद कर ली। अनुज के प्यार ने उसे आज अनंत की याद दिला थी। अनंत,उसका पति। आंखों की कोर से दो आंसू ढलक कर उसके गालों को भिगो गए। वृंदा भी तो उन्हीं औरतों की श्रेणी में आती है जो ना जी पाती हैं ना मर पाती हैं। उसे भी तो अग्नि की एक अदृश्य लपट हर समय निगलने को तैयार रहती थी। वह लपट थी,अनंत की आंखे और गंदी ज़ुबान। अनंत एक फैक्टरी का मालिक था लेकिन पढ़ाई सिर्फ बी. ए तक की थी,वहीं वृंदा डॉक्टर थी। विवाह के आरंभ के दिनों में,अपने मित्रों से उसे मिलवाते हुए उसे बड़ा गर्व होता था,
” इनसे मिलिए,ये हैं मेरी पत्नी वृंदा। डॉक्टर वृंदा।”
उसके मित्रों,मित्र पत्नियों की आंखों में उसके लिए अतिरिक्त सम्मान उमड़ पड़ता। वही सब कुछ समय बाद उससे सहन नहीं हुआ। अब वह सबके सामने उसका अपमान करने का एक भी मौका नहीं छोड़ता।
कभी घर में पार्टी होती तो सभी उसके बनाए खाने की तारीफ़ करते, पर अनंत!चुपचाप बैठा खाता रहता। उसके पूछने पर की खाना कैसा बना है, वह कहता
“खाना तो मिसिस शर्मा बनाती हैं, लाजवाब। उंगलियां चाटते रह जाओ। वह कट कर रह जाती। उसे उबारने के लिए कोई कह देता, अरे अनंत खाना तो बहुत बढ़िया बना है तो वह तिलमिला कर कहता,
“अजी छोड़िए,जो हाथ चीर फाड़ करने के लिए बने हैं,उनसे कभी अच्छा खाना बन सकता है भला। देखो दहीबड़े कितने सख़्त बने हैं और खीर कितनी मीठी है।”
अपमान से वृंदा के आंसू आ जाते। दहीबड़े अनंत के मुंह पर मारने की उसकी इच्छा मन में ही घुटकर रह जाती।
ज़िंदगी वृंदा के लिये धीमे धीमे सुलगती रात भर की चांदनी नहीं बल्कि चंद घड़ियों में भड़कती हुई अलाव की आग थी। वृंदा को कविताएं लिखने का शौक था। जब भी समय मिलता,वह लिखने बैठ जाती।अनंत को उसमें भी आपत्ति थी।
” जब भी फुर्सत मिले ये काग़ज़ कलम लेकर बैठ जाती हो,आज मेरे कुछ मित्र खाने पर आ रहे हैं, उठो खाना बनाओ”
“प्लीज़ अनंत, उन्हें कल खाने पर बुला लेना,आज मेरा एक इमरजेंसी केस है और ये कविता भी आज पूरी करके एक पत्रिका में भेजनी है।”
” लो मैं भेज देता हूं”
इतना कहकर वह जब तक कुछ समझे उसने उसके हाथ में से डायरी छीनकर ,एक एक पन्ना फाड़कर ,उनके टुकड़े टुकड़े करके पूरे कमरे में उछाल दिए।
अकेले कमरे में वह ना जाने कितनी देर बैठी रही, स्तब्ध, शोकाकुल। लग रहा था घर में जैसे किसी की मृत्यु हो गई हो। सच भी तो था, मृत्यु ही तो हुई थी,उसकी रचनाओं की,उसकी संवेदनाओं की। नवम्बर महीने की गुलाबी ठंडी थी। आज उसने सोच लिया था कि बस बहुत हो गया। वह किसी बात में कम नहीं है। डॉक्टर है,अलग रहकर भी अच्छी से अच्छी ज़िंदगी जी सकती है ,फिर क्यों उसके जुल्म सहे। अब निर्भय होकर परिस्थितियों का सामना करेगी।बहुत सह लिया।अब नहीं। मानसिक रूप से वह बहुत थकी हुई थी। अनंत भी गुस्से में कहीं बाहर चला गया था। वह भी समुद्र तट पर चली आई। कितनी शांति थी यहां। समुद्र की लहरों से अठखेलियां करती हवा जैसे कुछ गुनगुना कर कह रही थीं। क्षितिज से कुछ ऊपर उठा हुआ वह मुस्कुरा रहा था, दिवाकर। नीले समुद्र में उसकी रश्मियां पानी से खेलती हुई,वृंदा के अशांत चित्त को आह्लादित कर रही थीं। धीरे धीरे जैसे सूर्य पानी के अंदर ही डूब जाने को व्याकुल हो रहा था। वह उन अलभ्य , अकल्पनीय क्षणों में विभोर हो डूबी रही। खोई रही उन अनादि काल से चले आ रहे सृष्टि के बनाए सुंदरतम प्रकृति चित्रों में।उसके बगीचे में खिले हुए चांदनी के फूल, छत से दिखते चांद सितारे,नीम के वृक्ष पर बने,हवा में कांपते हुए,नन्ही सी चिड़िया के घोंसले। अनंत समय से उछालें मारता हुआ ये सागर। कितना सुंदर है सब कुछ।शांत चित्त से सब कुछ भूलकर वृंदा घर लौटी तो वह गुस्से में तना हुआ खड़ा था।
” कहां गई थी”
” घूमने”
” अकेली”
” क्यों घूमने के लिए किसी का साथ होना ज़रूरी है”
अनंत को आश्चर्य हुआ। ऐसी निर्भयता की उसे आशा नहीं थी।पहली बार वह विचलित हुआ। उसे लगा वृंदा के भीतर कुछ है,कुछ ऐसा जो उसकी पहुंच से बाहर है। शायद इसी डर से वह उसे हमेशा डराने में लगा रहता है।
गुस्से में वह फिर घर छोड़ कर चला गया। जब वापिस आया तो उसके ह्रदय में शूल उठ रहे थे। जब तक वृंदा कुछ करती ,उसके प्राण पखेरू उड़ गए। कुछ समय तक वृंदा का चित्त बड़ा ही अशांत रहा। उसे बार बार ये ही लगता रहता था कि यदि उस दिन वह उसके सामने तन कर ना बोली होती तो शायद वह नहीं मरता उसके निर्भय होकर बोलने से शायद उसका अहंकार आहत हुआ और ये ही वह बर्दाश्त नहीं कर सका।
अब दिन रात वह अपने मरीजों में व्यस्त रहती। वही उसका परिवार थे,वही मित्र।उसके हॉस्पिटल में जो भी आता,जाते हुए मुस्कुराते हुए उसके साथ एक अनाम सुखद रिश्ता बांधते हुए जाता।
” डॉक्टर,उस पेशेंट को होश आ रहा है”
नर्स ने कहा और वह जल्दी से ऑपरेशन थियेटर की ओर बढ़ गई। अनुज कराह रहा था।वृंदा ने धीरे से,प्रेम से उसके माथे पर हाथ फिराया।उसका स्पर्श पाकर अनुज ने धीरे से आंखे खोली। बुझती हुई लौ एकदम तेज हुई। वृंदा को लगा जैसे वह कुछ कहना चाहता है।
” कुछ कहना है अनुज”
उसकी आंखे भर आई।
” बोलो,क्या कहना है, मैं सुन रही हूं”
अपनी समस्त ताकत लगाकर वह बोला “डॉक्टर,मृत्यु के अंतिम क्षणों में झूठ नहीं बोलूंगा। इसे मेरा कन्फेशन समझना। मेरा ऑफिस,मेरी कार यहां तक की मेरा घर भी गिरवी पड़ा है। जानती हैं कैसे? जुए की लत पड़ चुकी थी। सब कुछ जुए में हार चुका था। बड़े चाव से बनवाए हुए पत्नी के गहने बाजारू औरतों की देह की शोभा बन चुके हैं। वह तो ये संसार छोड़कर चली गई पर में अब किस मुंह से ज़िंदा रहता। मुझ से पैसे मांगने वाले वैसे भी मुझे ज़िंदा नहीं रहने देते। इसी तनाव में उसकी जलती चिता में कूद गया।”
इतना कहकर वह हांफने लगा और थोड़ी देर में हमेशा के लिए चुप हो गया। बाहर भीड़ उसकी जय जय कार कर रही थी और वृंदा? वह एक कोने में खड़ी सोच रही थी,
कहते हैं,नारी के मन की थाह नारायण भी नहीं पा सकते तो फिर पुरुष का यह कौन सा रूप था,कौन सा!
– निशा चंद्रा