व्यंग्य
संगोष्ठी सुपरहिट!
संगोष्ठी में जैसे ही पहुंचे, ऐसा लगा कि किसी थियेटर में प्रवेश कर लिया है क्योंकि वह सभागार तो किसी दृष्टि से प्रतीत नहीं होता था। वहां पर मौजूद आवाम को देखकर भी ये ही आभास हो रहा था कि उनके चहेते नायक की फिल्म का पहला दिन और पहला शो है। सभागार को देखकर इस बात की तसल्ली हो गयी कि रजिस्ट्रेशन के नाम पर 1000 रुपए देकर हम ठगे नहीं गए। आखिर एयर कंडीशनर वाले सभागार में 5 घंटे बैठने का यह किराया कुछ ज्यादा नहीं था। खैर! कुछ आगे बढ़े, नज़र इधर-उधर घुमायी तो यह इल्म हुआ कि हमें अपनी तशरीफ़ के लिए कुर्सियां भी घर से ही लानी चाहिए थीं क्योंकि आज की तारीख में थियेटर से ज्यादा भीड़ संगोष्ठियों में होती है। खड़े रहने की सजा भी हमें मंज़ूर थी क्योंकि जो नायक…….मुआफ कीजियेगा, जो साहित्यकार आने वाले थे, उनकी अभी तक किताबें पढ़ीं थीं, उन्हें रेडियो में सुना था, उन्हें समाचार चैनलों पर बहस करते हुए देखा था लेकिन कभी साक्षात उनके दर्शन करने का ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। हमनायक! ओह! फिर से गलती। चलिए, हम इन्हें आगे नायक से ही संबोधित करेंगे। अरे! आज के साहित्यकार किसी नायक से कम नहीं हैं। बल्कि मैं तो इनके सामने फ़िल्मी हीरो को तुच्छ समझती हूँ। परदे पर दो-तीन संवाद बोलने से, विलेन को दो चार गालियाँ देने से कोई नायक नहीं हो जाता। असली नायक तो वो होते हैं, जिनके संवाद अपने द्वारा ही लिखे हुए होते हैं और उन संवादों का तो कहना ही क्या जो हर संगोष्ठी में हर बार हर मुद्दे पर बोले जाते हैं। भई! प्रासंगिकता नाम की भी तो कोई चीज़ होती है या नहीं। और फिर यह साहित्यकार ही मंच के नायक होते हैं, जिनका अभिनय जीवंत होता है। क्या मजाल कि कोई विरोधी इनकी बात को काट दे। लेकिन असली मज़ा तभी आता है जब विलेन अर्थात कोई विरोधी मंच पर बैठा हो। फिर तो ये धोबी पछाड़! वो धोबी पछाड़! आह हा! क्या दृश्य! अद्भुत! शानदार! ज़बरदस्त! चारों ओर इसी की चर्चा और यह हो गयी संगोष्ठी सुपरहिट! और सुपरहिट हो भी क्यों नहीं किसी क्लासिक फिल्म को देखने जाओ और उसमें एक्शन, ड्रामा, सस्पेंस सब मिल जाए तो सोने पर सुहागा इसी को तो कहेंगे।
ओह! मैं भूल गयी मेरे नायक अर्थात मेरे प्रिय साहित्यकार मंच पर आ चुके हैं। उन्होनें अपना वकतव्य देने के लिए जेब से एक कागज़ निकाला ही था कि यह क्या! मंच पर संगोष्ठी संयोजक आये और नायक के कान में कुछ खुसुर-फुसुर की। अरे! जल्दी क्लाइमेक्स से पर्दा उठाओ भी। ओह! अच्छा संगोष्ठी का शुभारम्भ ठीक उसी प्रकार पुस्तक विमोचन द्वारा किया जाएगा, जिस प्रकार फिल्म की शुरुआत में ब्रह्मा, विष्णु, महेश या नौ देवियों में से किसी एक का चित्र अवश्य दिखाया जाता है। अरे! फिल्म का श्री गणेश हो या संगोष्ठी का…भगवान् का नाम लेना ज़रूरी होता है। यह बात दूसरी है कि संगोष्ठी के भगवानों की छवि पारंपरिक भगवानों से हटकर होती है। यह लो पुस्तक विमोचन भी हो गया और नायक ने पुस्तक के विषय में कहा कि, “यह अपने समय से बहुत आगे की रचना है और लेखक ने अपने पात्रों के माध्यम से इस पुस्तक को जीवन्तता प्रदान कर दी है।” और इतना कहते ही गूंज उठा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से। वाह! क्या भाषण दिया है, विद्वान् हो तो ऐसा पुस्तक के पन्नों को केवल पलटा और मालूम चल गया कि उसमें है क्या? इसे कहते हैं जीनियस!
वाकई ऐसी संगोष्ठियाँ केवल और केवल ऐसे लोगों के कन्धों पर ही टिकी हैं। मज़ा आ गया। आनंद ही आनंद। परमानंद की अनुभूति क्या होती है आज मुझे पता लगा। मैं इस आनंद में सराबोर थी और इतने में ही मेरी सखी ने मुझसे कहा कि, “क्यों ना अपने कॉलेज में होने वाली संगोष्ठी में इन्हें ही बुला लें।” मैं चौंकी और मैंने उसकी ओर घूरकर देखा, इसलिए नहीं कि उसने ऐसा प्रस्ताव पेश किया था बल्कि इसलिए कि यह बात पहले मेरे ज़ेहन में क्यों नहीं आई।
– निकिता जैन