कविता-कानन
शून्यकाल
हवा सुखाती नहीं
बिखरा और बहता रक्त
मिट्टी इतनी गीली है
कि कुछ भी
सोखने से इंकार है उसे
सूरज अपने तापमान पर
नियंत्रण खो बैठा है
आकाश निष्प्राण-सा
ठगा-सा, ठहर गया है एक ही रंग में
वो देख रहा है
नन्हे पौधों के गले से
बूँद-बूँद रिसते
पाताल तक उतरते रक्त को
कितने भी बरस जाए बादल
धुलता नहीं है
मौत का रंग
निरन्तर बोझिल और
बोझिल होती जा रही है
साँस पृथ्वी की
विपरीत मौसम और
सम्वेदनाओं के शून्यकाल में
तुम अवतारविहीन क्यों हो ईश्वर….?
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समाधान
नदी उदास थी
कहना चाहती थी कुछ
पथिक से
जो थक कर बैठ गया था
उसके किनारे
और अँजुरी में भरा जल
हिक़ारत से देख रहा था
नदी ने दुःख से
मूँद ली आँखें
नहीं होना चाहती वो अभिशप्त
रेत के नीचे दबकर
कोर से बह निकलें
उससे पहले ही
पी गई आँसुओं को
आँसू पीना
स्वयं को तरल बनाए रखने का
हमारे दिए गरल से बचने का
एकमात्र समाधान बचा है
उसके पास
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आशियाना
चिड़िया देखती है
टुकुर-टुकुर पेड़ की आँख में
उसकी आँखों में भी बहता था
कभी पानी ख़ुशी का
आज
ख़ुश्क है!
चिड़िया रोती है जार-जार
आँसू से सींच सके
जड़ें पेड़ की
बहते आँसुओं के
बिम्ब में
कभी दिख जाए ईश्वर
वो माँग ले दुआएँ
उसके हरे होने की
और
पूछ ले
एक सवाल
मनुष्य के लिए
चिड़िया का
बित्ते भर का
आशियाना
उजाड़ना इतना ज़रूरी क्यों है?
– पूनम भार्गव ज़ाकिर