व्यंग्य
व्यंग्य लेख- हम भी स्मार्ट बनेंगे
आज सुबह आते ही मेरी कामवाली ने को टूक फैसला सुना दिया कि मैडम जी मेरी पगार बढ़ा दीजिए नहीं तो कल से नही आऊंगी। मैं चौंकी, “अरे! यह अचानक तुझे क्या हुआ, काम तो ज्यों का त्यों है। काम में तो कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई पगार में क्यूं?”
वह बोली, “क्योंकि मुझे स्मार्ट बनना है। सुना है कि अपना शहर स्मार्ट सिटी की लिस्ट में है, सो मुझे तैयार होना है स्मार्ट सिटी में रहने के लिए।” मैंने उसकी बात को हवा में उड़ाते हुए कहा, “अरे! यह किसने कह दिया कि स्मार्ट सिटी में रहने के लिए हम सब पहले स्मार्ट….मेरी बात को बीच में ही काटते हुए वह बोल पड़ी, “अरे मैडमजी, आप अपनी बात तो रहने ही दीजिए। आप तो हैं ही ओल्ड मॉडल। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुंच गई और आप वहीं की वहीं। अफसोस तो इस बात का है कि आपके चक्कर में मैं भी घनचक्कर बन कर रह गई। मेरी सहेलियों मीना, रीता, सीता, शान्ति को देखो, सब कैसी बन-ठन कर रहती हैं क्योंकि उनकी मालकिन बन-ठन कर रहती हैं। सबकी सब किटपिट-किटपिट अंग्रेजी बोलती हैं क्योंकि उनकी मालकिन अंग्रेजी बोलती हैं। सब सप्ताह में एक दिन ब्यूटी पार्लर, बाज़ार, सिनेमा हॉल जाती हैं क्योंकि उनकी मालकिन जाती हैं। सबके हाथ में स्मार्ट फोन हैं क्योंकि उनकी मालकिन के पास स्मार्ट फोन हैं। सब जीन्स, टॉप, स्कर्ट, टाप पहनती हैं क्योंकि उनकी मालकिन पहनती हैं पर एक आप हैं आज भी भारी-भरकम साड़ी के बीच गठरी-सी बनी हुई हैं।”
उसकी बात सुन मैं अन्दर तक हिल गई। बुरी तरह कोफ्त से भर गई पर सम्हल कर धाकड़ी से मालकिन जैसे रौब भरे स्वर में बोली, “तू ही बन स्मार्ट। मुझे लीपा-पोती करने की आवश्यकता नहीं है। मैं तो पहले से ही स्मार्ट हूँ। और यह तुम कैसे कह सकती हो कि मेरे साथ रह कर तुम गंवार रह गई हो?”
आज तो उसने जैसे ठान ही लिया था कि मुझे बदल कर ही मानेगी। वह बोली, “वह ऐसे कि मैडम जी आपके ही मुँह से सुना है कि ‘संगत से गुण उपजै, संगत से गुण जाए’। यह अक्षरशः सत्य है यदि अपने प्रधानमंत्री जी विदेश भ्रमण पर न निकले होते, अपने से ज्यादा स्मार्ट लोगों से न मिले होते, उन्होंने साफ-सुथरे सुन्दर सजे हुए शहर न देखे होते तो क्या उनके मन में स्मार्ट सिटी बनाने का ख्याल आता? यह ऊंची संगत का ही असर है कि नित नई योजनाएं उनके दिमाग में कौंध जाती हैं और स्वयं भी तो पहले से स्मार्ट हो गये हैं। भई मैं तो उन्हें ही फॉलो करती हूँ इसीलिए अपने मन की बात आज बेधड़क कह रही हूँ। मैडम जी छोटा मुँह बड़ी बात पर कहना ज़रूरी है समय के साथ खुद को बदल लेना ही होशियारी है। या तो आप बदलिए नहीं तो मैं चली।”
उसकी बातें सुन जैसे मेरी तो साँसें ही रुक गयीं। मैं गहरे सदमें में थी कि कामवाली की कर्कस आवाज सुनाई दी। आँख खुली तो खुद को बिस्तर पर पाया। वह कह रही थी, “मैडम जी जागिए क्या आज सोती ही रहेंगी।” मैंने कहा, “अब नहीं सोऊंगी, आज तुमने मेरी आंखें खोल दी।”
वह मेरी बात समझ न सकी पर मैंने उसकी बात गांठ बांध ली।
– वीना सिंह