व्यंग्य
व्यंग्य लेख- धर्म के हिचकोले
(कारोबारी की व्यथा)
हे उनके राम! आख़िर आप मुझसे किस जनम का बदला ले रहे हो? मेरे पुरखों ने आपका ऐसा क्या बिगाड़ा था कि इत्ते साल हो गए, हमें आपके मंदिर के बाहर हाथ पर हाथ धरे। आपको चढ़ाने वाले मेरे इलाइची दाने की तरफ घूरता भी नहीं। पहले जिस इलाइची दाने को देख मक्खियाँ भिनभिनाने तक को एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू हो जाती थीं, आज वही हमें जान देने को मजबूर कर रहा है प्रभु!
इत्ते साल हो गए। अब तो साल गिनने को उंगलियाँ भी कम हो गई हैं, आप अयोध्या नहीं आए। आपके भक्तों का इंतज़ार करते-करते अब तो अपनी आंखों को मोतिया हो गया है। इलाइची दाने को घुन लग गए हैं। आपके भक्तों का इंतज़ार करते-करते जवान नारियल यमदूतों की राह जोहता पल-पल गिन रहा है। आपके बूते पर कभी दिसंबर में भी लहलहाने वाली मेरी धर्म के सामान की दुकान गिरने के कगार पर है। उसे गिरने से अबके आकर बचा लो प्रभु!
आज आपके नाम पर चलने वाला, सदा हरा-भरा रहने वाला, आपके कारोबारियों का सारा कारोबार चौपट हो गया है प्रभु! मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि धर्म के बाज़ार में एक दिन इतना सन्नाटा छा जाएगा।
मेरे दादा तो कहा करते थे कि बेटा, दसों लोकों के सारे बाज़ार बंद हो जाएं तो हो जाएं, पर धर्म का बाज़ार रात को भी खुला रहता है, भले ही उसमें लाइट हो या न हो। बल्कि जब धर्म के बाज़ार में लाइट न हो, यह बाज़ार तब बहुत व्यापार करता है। इसलिए अगर हराम की खानी हो तो कहीं भी वैध अवैध तरीके से दुकान सजाना या न, पर किसी भी किस्म के धार्मिक स्थल के आसपास दुकान फड़ी ज़रूर लगाना, चाहे पुलिस वालों को हफ्ते के बदले घंटा क्यों न देना पड़े। हर किस्म के धार्मिक स्थानों के आसपास दुकानदारों की कमाई की अपार संभावनाएं होती हैं। जनता कहीं ठगी जाए या न, पर ऐसी जगहों पर जनता को पूरी ईमानदारी से ठगा जा सकता है। भक्तों पर हो या न हो, पर ऐसे बाज़ारू स्थानों के आसपास दुकानदारों पर प्रभु की फुल्ल कृपा बरसती है। ऐसे पवित्र स्थलों पर भगवान के नाम पर शैतान का कूड़ा भी हाथों-हाथ पूरी आस्तिकता से उठता रहता है। क्या मजाल जो कोई माल पर उंगली उठाए।
प्रभु! पहले जिन हमारी धर्म के सामान की दुकानों पर भक्त मक्खियों की तरह भिनभिनाते रहते थे, अब उन दुकानों पर मक्खियाँ भी नहीं मंडरातीं। आप अब अज्ञात डर से अपनी अयोध्या नहीं आना चाहते या आपको लेकर राजनीति करने वाले आपको अयोध्या आने देना नहीं चाहते, ये आप जानो या आपको लेकर राजनीति करने वाले। पर मुझ जैसों के पेट पर तो आप दोनों ही लात मार रहे हो प्रभु! कम से कम मैंने तो जबसे होश संभाला है, आपके ही नाम का खाया है। आपकी लात की मार तो मैं सहन कर लेता प्रभु, पर ग्राहकों की लात ने अपनी कमर तोड़ कर ऐसी रख दी है कि उसका इलाज अमेरिका में भी शायद ही संभव हो। आपकी कसम, कीड़े पड़ें जो झूठ बोलूं! कंगाली के गीले आटे में आपका इंतज़ार करते-करते मेरी दुकान गिरने को आ गई है प्रभु! पहले सड़ा माल भी हाथों-हाथ उठ जाता था और आज, अपने से भी नहीं उठा जा रहा।
जब अयोध्या में आप थे तो आपमें तनिक भी विश्वास न करने वाले मेरे बाप-दादाओं का पेट आपका नाम ले मुस्कुराते हुए झूठ बोल, पाँच का नारियल पचास का बेच मज़े से भर रहा था। प्रभु! जब तक आप अयोध्या में थे, अपने दिन चांदी के, तो रातें सोने की थीं। मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि पूरी नास्तिकता से आपके भक्तों को सड़े नारियल बेचने वाले को एक दिन ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे।
सच कहूँ प्रभु! आप बड़े दयालु थे। दुकानदारों में किसी भी किस्म का कोई फर्क नहीं करते थे। बल्कि आपके होते उनके बदले अपना धंधा चकाचक चलता था। प्रभु! समाज में दो ही दुकानें तो ऐसी हैं, जिनमें बंदा मोल-भाव नहीं करता। एक दवाई की दुकान में और दूसरे धर्म की दुकान में।
प्रभु! मुझे याद हैं वे बीते दिन जब तुम मेरे पूरे परिवार का पेट पाप की कमाई से पूरी ईमानदारी से भरते थे। पर बुरा हो उनका, जिन्होंने आपको मुद्दा बना; मुझ जैसे धर्म के कारोबारी को अर्श से ला फर्श पर बैठा दिया।
प्रभु! सच पूछो तो दुकानदार का कोई धर्म नहीं होता। वह न इस धर्म का होता है न उस धर्म का। वह तो करीने से धर्म का सड़ा-फड़ा माल सजाए, पालथी मारे थड़ी पर बैठा, मन ही मन मुस्कुराता हुआ बस एक अदद दुकानदार होता है। जहाँ से चार पैसे अधिक बने, लग गए उसी धर्म का माल बेचने।
प्रभु! आप अयोध्या में रहो या मथुरा में। बाज़ार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके अयोध्या से मथुरा जाने पर फर्क पड़ता है तो बस हम धर्म का माल बेचने वाले मेरे जैसे कारोबारियों को। अब तो मुआ ऊपर से एक जीएसटी और आ गया। अब तुम ही कहो, नोटबंदी और आर्थिक मंदी में मुझ जैसे मझोले कारोबारी क्या इंस्पैक्टर को खिलाएं, तो क्या जीएसटी के नाम पर सरकार को खिलाएं, क्या खुद खाएं? ऊपर से फर्जी बाबाओं ने धर्म के फलते-फूलते कारोबार को ग्रहण लगा कर रख दिया।
हे प्रभु ! अबके दीपावली को अपनी अयोध्या आ जाना प्लीज! मैंने आपके लिए अपने घर का एक कमरा खाली कर दिया है। अब तो मुए बैंक वाले दुकान की नीलामी की बात करने लगे हैं प्रभु! उधर पंद्रह लाख के बदले पंद्रह भी खाते में नहीं पड़े। अबके आकर मेरी दुकान कुर्क होने से बचा लो प्रभु!
हे प्रभु! आप पता नहीं किस मिट्टी के बने हो? अब मुझसे और अपनी धार्मिक मंदी नहीं देखी जाती। देखो तो, आपकी पूजा के लिए रखा धूप दीप फेस्टिवल में तो छोडि़ए, बारहों महीने सेल में लगाने के बाद भी उन्हें कोई नहीं पूछ रहा। धूप के साथ फ्री में दीप की सेल की तरफ कोई सीधी नज़र तो छोडि़ए, टेढ़ी नज़र भी नहीं देखता।
प्रभु! अब तो मन करता है कि किसानों की तरह आपके गले में डलने वाली चुनरी अपने गले में डाल आत्महत्या कर लें। मैंने तो अपनी व्यथा कथा तुमसे कह दी। अब दीवाली को आना है या नहीं, तुम जानो।
– अशोक गौतम