व्यंग्य
व्यंग्य लेख- थैंक गॉड! मैं दसवीं फेल ही रहा
आज तक मेरी समझ में और तो सब कुछ आया पर बस यही एक बात नहीं आई कि राजनीति में पढ़े-लिखों की जब रत्ती भर भी जरूरत नहीं तो फिर भी पता नहीं क्यों अधकचरे लोग बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर जनता की सेवा करने राजनीति के हमाम में उतर परेशानियां मोल लेते रहते हैं? आखिर अपने गले में असली-नकली डिग्रियां लटकाए जनता के बीच जा ऐसे महानुभाव शो करना क्या चाहते होंगे भाई साहब?
हे डिग्री वालो! जरा गौर से सुनो! देश सेवा के अखाड़े में संस्कार नहीं, धोबी पछाड़ चलता है। यहां पढ़ा-लिखा नहीं, ठेठ गंवार चलता है। ये असली नहीं, खोटे सिक्कों का बाजार है। यहां नकली ही सरदार है, यहां नकली सफल किरदार है।
हाथ कंगन को आरसी क्या? जलता धधकता जिंदा उदाहरण आपके सामने है। हम बिन डिग्रियों वाले इन डिग्री वालों से हजार दर्जे बेहतर जनता की कसौटी पर खरे उतरते रहे हैं और दूसरी ओर इन डिग्री वालों को देखो तो अपनी डिग्रियों का बोझ तक तो इनसे उठता नहीं, डिग्री को लेकर हर कोई इन्हें परे धकलेता रहता है। हर कोई इन्हें इनकी डिग्रियों को लेकर असली-नकली के चक्कर में उलझाए रहता है। और इन माननीयों का ऊपर से दावा ये कि इनसे बेहतर कोई जनता की सेवा कर ही नहीं सकता। अरे भैया जी! जो देश खाने के लिए डिग्री की जरूरत होती तो देश की गड्ढों के बीच जी रही सड़कों पर गले में डिग्रियों की माला लटकाए गिरते-पड़ते पढ़े-लिखे एक दूसरे को रोटी के लिए धकियाते न होते। सब के सब राजनीति में फिट हो गए होते। पर बेचारे वे तो अपनी धूल धूसरित डिग्रियां लिए हम अनपढ़ों के पीछे दौड़े-दौड़े फटे जूते फाड़ने को बेताब रहते हैं। मैं सड़क से लेकर संसद तक सबसे पूछता हूँ कि डिग्रियों से जन सेवा का आज तक लेवल बढ़ा है? उल्टे बंदा सफाई देते-देते खुद ही साफ होता रहा है। गले में एक ठो डिग्री लटकाए देश सेवा के हमाम में अदब से नहाने क्या उतरे, प्रेस कांफ्रेंसों में अपनी नींद गंवाने का पंगा ले लिया और बेचारी डिग्री मर गई आबरू बचाते-बचाते।
हे मेरे देशवासियो! डिग्री असल में नौकरी करने वालों को ही शोभा देती है, समाज सेवा करने वालों को नहीं। रेट के लिए जनसेवा और पेट के लिए नौकरी दो विपरीत बातें हैं।
क्या करनी ऐसी डिग्री जो समाज में इज्जत दिलवाने के बदले गले की फांस बन जाए। पहले डिग्री के लिए सौ जोड़-तोड़ करो, जैसे कैसे पढ़ो और बाद में थक जाओ, अपनी डिग्रियों के असली होने के प्रमाण टटपुंजियों के आगे जुटाते-जुटाते। प्रेस कांफ्रेंस पर प्रेस कांफ्रेंस करवाते, फट चुकी डिग्रियों की सफाई देते-देते। समाज को अपनी डिग्रियां दिखाते-दिखाते, कि साहब! लो देखो, मेरी डिग्री असली है। इतने पंगों में पड़ने से तो बेहतर है डिग्री की चाह छोड़ना। वैसे भी जन सेवा और डिग्री के बीच मुझे कोई लोजिक संबंध दिखा नहीं। सचिवालय को शौचालय बोलने से सचिवालय शौचालय थोड़े ही हो जाता है। मेरा तो मानना है कि जन सेवा का कोई सबसे बड़ा दुश्मन है तो बस ये डिग्रियां ही। बिन कपड़ों के देश सेवा के हमाम में नहाने से कोई दिक्कत नहीं होती। बहुधा मैंने देखा है कि जो-जो कपड़ों समेत देश सेवा के हमाम में नहाने उतरे, वे अपने ही कपड़ों में उलझ कर देश सेवा के हमाम में ऐसे औंधे मुंह गिरे कि लाख उठने-उठाने की कोशिश के बाद भी न उठ सके। नहाने-खाने का अपना तो सारा मजा किरकिरा किया ही किया, पार्टी की नाक भी कटवाई सो अलग।
पर ये अपने भाई लोग भी न! जब देखो, किसी न किसी की डिग्री को लेकर मौका मिलते ही जनता के मनोरंजन के लिए कभी इसकी तो कभी उसकी पतलून खींचे रखते हैं। अब इन्हें कोई कहे कि जनता की नंगी टांगों पर पतलून पहनाओ तो जनता की टांगें तो मच्छरों से बचें। पर साहब! राजनीति में आकर वह परमानंद नंगी टांगों को पतलून पहनाने में कहां मिलता है, जो पतलून वाले की पतलून खींचने में मिलता है?
इन कागजी डिग्रियों के मामले में मैं भगवान की दया से ठीक ही रहा। फ्रोड से जब अपुन के देश में सैंकड़ों कमाई के अनेकों तरीके हैं तो इन कागजों के टुकड़ों के लिए क्यों हाथ पांव मार अपना कीमती समय बरबाद किया जाए? हर कहीं गिड़गिड़ाया जाए, कि भैया एक ठो डिग्री का इंतजाम करवा दो तो ……। कुशल नेता के पास देश को खाने का हुनर होना चाहिए बस! देश की जनता को बरगलाने का हुनर होना चाहिए बस! फिर क्या मजाल जो भगवान भी आपकी खाने की राह में रोड़े डाल सके।
हे भगवान! तू जो करता है, आज जाना, ठीक ही करता है। तूने मुझे दसवीं से आगे नहीं जाने दिया, तो नहीं जाने दिया। इसी बहाने कम से कम मैं एक विवाद से तो बचा हुआ हूँ। सच कहूं तो वैसे भी दो-दो बोझ उठाने में मुझे तो दिक्कत ही हो जाती। जन सेवा का बोझ ही इन दिनों इतना अधिक है कि कमर तक सीधी करने को वक्त नहीं मिल पाता। ऐसे में जो मैं डिग्रीधारी भी होता तो राम ही जाने मेरा आज क्या हश्र होता? पता नहीं कहां-कहां मर जाता अपनी डिग्री की असली-नकली की सफाई देते-देते। तब मैं देश सेवा के अखाड़े में लंगोट पहने जिस उद्देश्य से उतरा था, उस उद्देश्य से खुदा कसम भटक जाता तो मत पूछो, मुझे कितना पश्चाताप होता! इतना कि मैं इस डिप्रेशन के चलते किसी को मुंह दिखाने लायक तक न रहता। खैर, सच पूछो तो किसी को मुंह दिखाने लायक तो मैं आज भी नहीं हूँ। पर धंधे का सवाल है, सो बेशर्म बन दिखाना ही पड़ता है।
– अशोक गौतम