व्यंग्य लेख
हिन्दुस्तान में ही खो गयी हिन्दी
बाजार से सब्जी लेकर लौटे तो देखा मेज पर पड़े रंग-बिरंगे निमन्त्रण पत्र हमारा स्वागत करने को बेचैन हैं। श्रीमती जी के हाथ में सब्जियों का थैला पकड़ाकर जल्दी से निमन्त्रण पत्र उठाकर खोलते हुए सोचने लगे क्या पितृपक्ष के दिनों में भी कोई शुभ कार्य होने लगे, जो इतने पत्र एक साथ? एक पत्र खोलकर जैसे ही पढ़ने लगा, श्रीमती जी के मधुर वचनों ने सारा मामला एक क्षण में सुलझा दिया। वे बोली, “एक एक करके क्या देखते हो, सारे के सारे तुम्हारी हिन्दी महारानी के श्राद्ध के हैं।” “शुभ-शुभ बोलो, ऐसा बोलना हमारी मातृ भाषा का अपमान करना है, बल्कि ये तो हमारे लिए सौभाग्य की बात है कि हमें मातृ भाषा की सेवा करने व सम्मानित होने का सुअवसर मिल रहा है।” हमने उनकी मोटी बुद्धि की परत हटाने की कोशिश की।
“हां ….हां, मैं जानती हूँ कैसा सम्मान होगा। वही फूलों का हार, एक सस्ता-सा शाल दुशाला ज्यादा हुआ तो एक स्मॄति चिह्न। जिनसे पहले ही घर भरा पड़ा है। जबकि धूल झाड़ते-झाड़ते उम्र बीत गयी। मैं कहे देती हूँ इस बार कोई शाल-दुपट्टा मिले तो रास्ते में दे आना किसी भिखारी को!”
“भाग्यवान ऐसा नहीं कहते”
“लाखों खर्च कर देंगे समारोहों पर लेकिन सम्मान वस्त्र पता नहीं कहां से उठा लाएंगे जो ना ओढ़ने के काम आए, ना बिछावन के।” श्रीमती जी अपनी ही धुन में बड़बड़ाए जा रही थी। खैर हम हिन्दी प्रेमियों के लिए तो सितम्बर माह बहुत महत्व रखता है। कहीं हिन्दी पखवाड़ा तो कहीं हिन्दी दिवस मनाया जाता है। यही तो एक दिन है 14 सितम्बर जिस दिन अपनी मातृ भाषा को स्मरण करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं।
अरे…हम भी किस चक्कर में पड़ गये। बात हिन्दी दिवस की हो रही थी। वैसे तो हमारे देश को त्योहारों का देश ना कहकर ‘डे’ मनाने का देश कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। डे मनाने की परम्परा कुछ ऐसी चल पड़ी है कि कोई न कोई डे मनता ही रहता है, अभी पिछले दिनो शिक्षक दिवस की धूम मची हुई थी। उससे पहले मदर्स डे, फादर्स डे, वेलन्टाइन डे, चाकलेट डे, रोज़ डे और भी न जाने क्या क्या। चलो कुछ भी मने, हमें तो अपने ‘हिन्दी दिवस’ से मतलब है।
हम हिन्दी दिवस की बात कर रहे थे जो देशभर में मनाया जाता है, फिर हम तो ठहरे साहित्यिक नगरी से। हमारे यहाँ हर रोज एक नया साहित्यकार पैदा हो जाता है। जिसकी सात आठ पुस्तकें छपी वही वरिष्ठ साहित्यकारों की कतार में खड़ा हो गया। चाहे पुस्तक 15-20 पृष्ठ की ही क्यों न हो? लो हम फिर भटक गये अपने विषय से, आखिर रिटायर्ड हो चुके हैं ना! ध्यान तो भटकेगा ही?
बात चल रही थी हिन्दी दिवस समारोह की। अब बीस हिन्दी सेवी संस्थाओं से निमन्त्रण मिला है, सब जगह तो उपस्थित हो नहीं सकते? आखिर यही दिन तो है जिस दिन हम विद्वानों की पूछ होती है। कहीं विशिष्ट अतिथि तो कहीं मुख्य अतिथि, इस बार तो मुख्य वक्ता के रूप में मंचासीन होने का आमन्त्रण भी है। बहुत सोच-विचार के पश्चात् आखिर इस निर्णय पर पहुंचे कि क्यों न अपने ज्ञान से ‘युवा शक्ति आधुनिक हिन्दी संस्था’ के युवाओं को लाभान्वित किया जाए। बहुत समय से बुद्धिजीवी वर्ग में अपनी गरिमामयी उपस्थिति देते आ रहे हैं। देखा जाए तो अब युवाशक्ति को मार्गदर्शन की आवश्यकता है। सुदृढ़ व शक्तिशाली भारत बनाना है तो युवा वर्ग के साथ चलना होगा। कार्यक्रम शाम चार बजे प्रारम्भ होना था, अभी विचार मन्थन कर ही रहे थे कि चलभाष की मधुर धुन सुनाई दी। हैलो, जय हिन्दी….बोलते ही कानों में कोयल जैसे मीठे बोल सुनाई दिए, ”क्या आप सच्चिदानन्द शास्त्री जी बोल रहे हैं?”
बिना एक भी क्षण गंवाए हमने कहा, “हां….हां, हम ही बोल रहे हैं पुत्री!”
“हम पुत्री नहीं हैं, हम युवाशक्ति हिन्दी संस्था की सर्वे-सर्वा यामिनी बोल रहे हैं, हमने आपको यह इन्फोर्म करने के लिए फोन किया कि शाम ठीक चार बजे हमारी गाड़ी आपको पिक करने आ जाएगी। आपका स्थान मंच पर निर्धारित किया गया है, मुख्य वक्ता के रूप में।”
“ठीक है…ठीक है…कहकर फोन रख दिया” खुशी के मारे हमारे तो पेट में ही गुड़गुड़ होने लगी, आज वाहन सुख जो मिल रहा था। हमने श्रीमती जी को बुलाया और हिदायत दी कि हम दो घन्टे सोने जा रहे हैं, हमें ठीक चार बजे उठा देना। यह सुनकर हमारी तरफ घूरकर ऐसे देखने लगी, जैसे हमसे कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो।
“चार बजे तो कार्यक्रम शुरु है, आपको तो समय से पहले पहुंचना चाहिए।” श्रीमती जी बोली।
“तुम तो सठिया गयी हो, आज हम वी.आई.पी. हैं, देरी से जाएंगे, तो ही लोग हमारे आगे पीछे घूमेंगे, समझी..?” कहकर हमने चादर तानी और निद्रा देवी की गोद में जा बैठे। निद्रा देवी जी भी आज हम पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान थी। वो भी हमें ले जाकर स्वप्न लोक में विचरण करवाने लगी। हमने देखा कि पंडाल लोगों से खचाखच भरा पड़ा है, सुसज्जित मंच है जहां हमें विराजमान होना है, पुष्पगुच्छों से हमारा अभिनन्दन हो रहा है। हमारे प्रवेश करते ही तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी। कुछ लोग फूलों के हार पहना रहे हैं। आयोजक हमारी प्रशंसा में जो कसीदे गढ़ रहा है उसकी तो अभिव्यक्ति शब्दों में हो ही नहीं सकती। तभी मंच पर बैठे-बैठे हमारी दृष्टि प्रवेश द्वार पर पड़ी। हमने देखा टैगोर जी, पंत जी, निराला जी, भारतेन्दु जी, कबीर जी और तुलसीदास जी सूरदास जी का हाथ पकड़े प्रवेश कर रहे हैं। अपने वरिष्ठ हिन्दी के स्वनाम धन्य साहित्यकारों को देखकर तन-मन रोमांचित हो उठा। हम मन ही मन खुश हो रहे हैं कि आज सौभाग्य से हिन्दी के दिग्गजों का सान्निध्य मिलेगा, पर ये क्या…? उन्हें प्रवेश करने से रोका क्यों जा रहा है? उन्हें सादर अन्दर लाने के लिए हम अपने स्थान से उठने लगे तो आयोजकों ने पकड़कर बिठा दिया। पास खड़े सज्जन से पूछा, उसने जो बताया उसे सुनकर तो हमें अपनी कुर्सी ही खिसकती दिखाई देने लगी।
उसने बताया इन महानुभावों को इन्वाइट नहीं किया गया। प्रवेश द्वार पर खड़े युवक ने तुलसी जी से अपना परिचय पत्र दिखाने को कहा तो, टैगोर हैरान होकर बोले, “अरे बालक, तुम इन्हें नहीं जानते? इन्होंने ही तो रामायण का अनुवाद करके रामचरितमानस लिखी है?”
“नहीं..हम तो रामानन्द सागर को जानते हैं।” युवक बोला।
“देखिए, ये कवि टैगोर हैं, जिन्होंने राष्ट्र गान लिखा है। ये हैं सूरदास व दिनकर जी। कबीर
जी को तो पहचानते ही होंगे इनकी कनटोपी ही इनकी पहचान है। अब हो गया हमारा परिचय। अब तो हमें अन्दर जाने दो!” निराला जी युवक को समझाते हुए बोले।
“देखिए, इस तरह आप बिना परिचय पत्र के अन्दर एन्टरी नहीं कर सकते।” तभी मंच से किसी वक्ता द्वारा दोहराई जाने वाली पंक्तियां गूंजी-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ग्यान के मिटत न हिय के शूल।।
दिनकर जी बोले, “तुमने जो पंक्तियां अभी अभी सुनी वो इन्हीं भारतेन्दु जी द्वारा लिखी गयी हैं। चाहो तो जाकर पूछ लो।” निराला जी की दीन हीन दशा, टैगोर की लंबी दाढ़ी, लम्बा कुरता, भारतेन्दु जी के घुंघराले केश तथा पंत जी के व्यक्तित्व को देखकर वहाँ खड़े युवा हंसने लगे। निराला जी ने पुन:प्रयास किया और बोले, “देखो बच्चों! हम सब साहित्यकार हैं, साहित्य मेले का यह टंगा कपड़ा देखकर ही हम आ गये। अब कम से कम अंदर तो जाने दो!”
“देखिए साहित्यकार जनाब! ये हिन्दी सम्मान समारोह है, कोई शादी समारोह नहीं कि जो चाहे चला आए।” तभी आधुनिक परिधानों में सजी-संवरी युवती ऊंची एडी की सैण्डिल पहने ठक ….ठक…करती हुई आई और बोली, सभी रास्ते से हट जाएं, चीफ गेस्ट पहुंचने ही वाले हैं। तभी युवती की नजर कबीर जी पर पड़ी और चहकती हुई बोली, “क्या आप भी इन्वाइटिड हैं?”
“नहीं..नहीं, हम साहित्यकार हैं, यह साहित्य उत्सव मेला देखने आ गये। हमने सोचा शायद हम सब को एक साथ देखकर आप लोग प्रसन्न होंगे।” पंत जी अपनी मधुर वाणी में बोले।
“देखिए, यहां बुजुर्ग साहित्यकारों का कोई काम नहीं। आप बुरा न मानिए, आजकल अंग्रेजी का बोलबाला है, आज जिन कवियों व साहित्यकारों को इन्वाइट किया गया है या तो उनकी पहुंच ऊपर तक है या किसी पद पर आसीन हैं। कुछ ऐसे कवि हैं जो कविता के नाम पर फूहड़ चुटकले सुना-सुना कर हंसी-ठहाके लगाकर तालियाँ बटोरते हैं। इस आयोजन का हिन्दी साहित्य से कुछ लेना देना नही।”
“फिर ये रंग बिरंगे कपड़े, झंडे, इतनी सजावट किसलिए?” निराला जी दुखी होते हुए बोले।
“सब दिखावा है, ताकि हिन्दी के नाम पर कुछ खाया-कमाया जा सके।” युवती हाथ नचाते हुए बोली। तभी मंच से घोषणा हुई, “लेडीज एंड जेन्टलमैन! आज बहुत ही खुशी का दिन है।जानते हैं क्यों? क्योंकि ‘टूटे इज हिन्दी डे’, हमें अपनी मदर टंग का सम्मान करना चाहिए। अभी हमारे बीच चीफ गेस्ट आने वाले हैं, आप सभी खड़े होकर, तालियों से उनका वेलकम करें, धन्यवाद”
मंच पर हुई घोषणा को सुनकर दिनकर जी, निराला जी दुखी होकर एक दूसरे की ओर देखने लगे। भारतेन्दु जी ने युवती से कहा, “कृपया हमें मुख्य अतिथि से तो मिलवा ही दीजिए।”
“नहीं, आप उनसे नहीं मिल सकते, वे एक सेलीब्रेटी हैं।”
“क्या…..? इसका मतलब वो बहुत बडे साहित्यकार हैं?”
“जी वो बहुत बड़े गीतकार हैं, आजकल उनके लिखे गीतों की बहुत मांग है। बच्चे-बच्चे की जुबान पर है, क्या आप लोगों ने नहीं सुने? ‘मुन्नी बदनाम हुई’, ‘कजरारे…..कजरारे तेरे कारे -कारे नैना’ तुलसीदास, सूरदास, दिनकर जी अपने कानों पर हाथ रखकर बाहर की ओर प्रस्थान करने लगे। हम मंच पर बैठे-बैठे लाल-पीले हुए जा रहे थे। गले में पड़े फूलों के हार शूल की तरह चुभने लगे। तभी खींचकर हारों को उतारकर फेंकते हुए हम बोले, “बंद करो ये ढकोसला, जहां हिन्दी के नाम पर मातृभाषा व उसके साहित्यकार पुत्रों का अपमान होता हो, हम वहाँ एक क्षण भी नहीं रुक सकते” कहते हुए हम जैसे ही मंच से उतरे तो हमारी आंख ही खुल गयी। सामने देखा पत्नी जी घबराए हुए खड़ी हैं। हमें पसीने से तरबतर देखकर बोली, “आपकी तबीयत तो ठीक है ना? माथे पर इतना पसीना क्यों?” पसीना पौंछते हुए हम सोचने लगे, क्या वास्तव में हमारी हिन्दी अंग्रेजी के नीचे ऐसे तो नहीं दब जाएगी? सोचते हुए कार्यक्रम में जाने के लिए तैयार होने लगे।
– सुरेखा शर्मा