व्यंग्य
व्यंग्य कथा- पंडित जी का हिंदी अभियान
विलक्षण प्रतिभा के धनी प्रकाण्ड हिंदी प्रेमी प्रेम प्रकाश पंडित मुझे उस दिन अहाते में टकरा गए। मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि पंडित जी यहाँ कैसे! क्या बाबा योग गुरु की स्वदेशी अपनाओ की सीख उन्हें यहाँ खींच लाई है? या कुछ और बात है। मैंने उन्हें सदा विशुद्ध हिंदी बोलते ही सुना था लेकिन दारू सदा वह अंग्रेज़ी ही पीते रहे हैं। उनके इस पाला-पलट चक्कर की असलियत जानने के लिए मेरा मन उतावला हुआ जा रहा था।
पिछले वर्ष जबसे उन्होंने विश्व हिंदी सम्मेलन में भागीदारी की थी, तभी उन्होंने स्वयं को पूर्णतया हिंदी को समर्पित कर देने का निर्णय कर लिया था। वह अब केवल हिंदी ही बोलेंगे और लोगों को भी हिंदी अपनाने की प्रेरणा देंगे। मुझे उनके इस हिंदी प्रेम ने बहुत प्रभावित किया लेकिन मेरे मन में कुछ शंकाएँ भी थीं। मैंने अपनी दुविधा को उनके सामने प्रकट भी किया था- “आपका हिंदी प्रेम अतुलनीय है पंडित जी, लेकिन आप अपना यह प्रण पूर्ण-रूपेण निभा नहीं सकेंगे।”
पंडित जी नाराज़ हो गए, बोले- “तुम हिंदी विरोधी हो, तुम स्वयं तो कुछ करोगे नहीं और दूसरों तो भी हतोत्साहित करोगे।”
मैंने विनम्रतापूर्वक कहा- “पंडित जी आप मेरा आशय ठीक से नहीं समझे। मैं भी हिंदी का अदना-सा लेखक हूँ और हिंदी के प्रति असीम श्रद्धा भाव रखता हूँ। मेरा आशय केवल इतना था कि हमारी बोलचाल में अन्य भाषाओं के बहुत से शब्द इस तरह घुल-मिल गए हैं कि वे अब हिंदी के ही प्रतीत होते हैं। उन शब्दों का प्रयोग भी आप बंद कर देंगे तो आपको अनेक अवसरों पर असहज स्थिति का सामना करना पड़ेगा।”
मैंने बोलना चालू रखा- “आप जानते हैं हर वर्ष अंग्रेज़ी में सैकड़ों शब्द दुनिया की अन्यान्य भाषाओं से लिए जाते हैं। हिंदी के भी सैकड़ों शब्द अंग्रेज़ी में हैं। इससे अंग्रेज़ी समृद्ध हुई है और उसकी व्यापकता बढ़ी है। हमें भी अन्य भाषाओं के शब्दों के प्रति ऐसी ही सौजन्यता दिखानी चाहिए।”
यह सुनकर वह बिफर गए- “तुमसे तो बात करना ही व्यर्थ है, तुम जैसे लोगों के कारण ही देश मे हिंदी की यह दशा है। अंग्रेजी में तो रिश्तों तक के लिए उपयुक्त शब्द नहीं है। क्या तुम समधी व ससुराल के अंग्रेज़ी शब्द बता सकते हो..नहीं ना..अब मैं तुम्हारी और बकवास सुनना नहीं चाहता..चुपचाप बढ़ लो यहाँ से!”
वह और कुछ बोलें, इससे पहले ही मैंने घुटने टेक दिए पर जाते-जाते उनसे यह कहने का लोभ संवरण नहीं कर सका- “पंडित जी मैं जा रहा हूँ लेकिन एक बार फिर से आप सोच लीजिए। आप कहीं अपनी इस हठधर्मिता के कारण हँसी के पात्र न बनें। रेल के लिए यदि आप लोह पथ गामिनी या सिगरेट के लिए धूम्रपान दंडिका शब्द बोलेंगे तो लोग आप पर हँसेंगे। इसी तरह ए.सी., फ्रिज, पेन, पॉलिश या गैस सिलेण्डर के लिए भी शब्द खोजना मुश्किल होगा। बिजली अथवा दूरभाष के बिलों के लिए आप कौनसे शब्द प्रयोग करेंगे। मैं अंग्रेजी का क़तई समर्थक नहीं हूँ…वह भी पूर्ण भाषा नहीं है लेकिन उसकी दूसरी भाषाओं के शब्द ग्रहण करने की पहल प्रशंसनीय है।”
उन्होंने मुझे घूर कर देखा। मैंने वहाँ ये चुपचाप खिसक लेना ही उचित समझा। उस दिन के बाद आज वह मुझे यहाँ टकराए थे, यद्यपि उनकी तथाकथित उपलब्धियों से मैं अपडेट रहता था।
जिस अमरनाथ सेलून से पंडित जी बाल कटवाते थे, वहीं से उन्होंने अपने हिंदी अपनाओ अभियान की शुंरुआत की थी। उसके मालिक के ज्ञान-चक्षु उन्होंने अपने वाक्-चातुर्य से खोलने मे सफलता पा ली थी और उसके सेलून का नामकरण अमरनाथ केश कतरनालय करवा दिया। अगले चरण में उनके प्रयत्नों से गोकुल स्वीट हॉउस ‘गोकुल मिष्ठान भंडार’ हो गया। सलूजा आई हॉस्पिटल को ‘सलूजा नेत्रालय’ और रत्ना मेडिकल स्टोर को ‘रत्ना दवा भंडार’ में बदलने में भी उन्हें सफलता मिल गई। इन छोटी-छोटी सफलताओं ने भी पंडित जी को ख़ासा उत्साहित किया।
उनके सामने उस दिन विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई जब वह अपने सूट में इस्त्री (प्रेस) कराने एक ड्रायक्लीनर की दुकान पर गए। वह पंडित जी और उनके
अभियान से परिचित था, अतएव मज़े लेने के दृष्टिकोण से बोला- “सर, आप प्रेस के लिए तो इस्त्री बोलते हैं फिर सूट क्यों बोलते हैं।”
पंडित जी ने कुछ नहीं कहा और बिना प्रेस कराए ही सूट लेकर वापस आ गए। इसके बाद उन्हें किसी ने सूट पहने नहीं देखा। सूट क्या उन्होंने पैंट-शर्ट पहनना ही छोड़ दिया। अब वह कुर्ते-पाजामे में या धोती-कुर्ते में ही दिखते थे। इसके कुछ दिनों बाद ही एक घटना और घटी, जिसने उन्हें पैदल ही कर दिया। दरअसल उनकी मोपेड पंचर हो गई थी, जिसे ठीक कराने वह कॉलोनी के बाहर स्थित दुकान तक ठेलते हुए ले गए थे। पंचर बनाने वाले भैया ने उनसे मोपेड और पंचर की हिंदी पूँछ ली। पंडित जी को एकाएक कुछ नहीं सूझा तो वह मोपेड वहीं खड़ी करके लौट आए, जिसे बाद में उनका बेटा लेकर आया।
इसके बाद से वह अब पैदल ही कहीं आते जाते हैं।
आज जब वह मुझे अहाते में टकराए तो मैंने उन्हें प्रणाम कर पूछ ही लिया- “पंडित जी, कैसा चल रहा है आपका अभियान?”
मेरा प्रश्न सुनकर वह ज़रा भी नाराज़ नहीं हुए। मुझे सुखद अनुभूति हुई कि उन्होंने मेरी बात को व्यंग्य नहीं समझा, बोले- “तुम सही कहते थे बड़ा कठिन है यह काम। हिंदी की भलाई के लिए हमें दुराग्रह त्यागने ही होंगे तथा अन्य भाषाओं के बोलचाल के शब्दों को मान्य करने से हिंदी का भला ही होगा। दुरूह शब्दों के निर्माण से लय बाधित होती है। मैं बहुत आगे निकल आया हूँ। मेरे लिए वहाँ से लौट पाना आसान नहीं है। लोग मेरा मज़ाक बनाएँगे और अब तक जो काम मैंने किया है उस पर पानी फिर जाएगा। लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि मैं यहाँ इसीलिए आता हूँ कि इस जगह का नाम बिना किसी की प्रेरणा के पूर्ण रूपेण हिंदी में लिखा गया है ‘देशी दारू की दुकान’, है ना ओछी बात!
तुमसे अपेक्षा है कि तुम तर्क के आधार पर मेरे काम को आगे बढ़ाओ और हिंदी को विश्व भाषा बनाने की दिशा में काम करो।”
अब उनका दर्द या तो मैं समझता था या फिर ढक्कन खुलने के बाद सर पर चढ़कर बोलने वाली बिचारी अंगूरी।
– अरुण अर्णव खरे