पुस्तक समीक्षा
‘लावा’ आवाज़ है उन लोगों की, जो सुनी नहीं जाती : एम.एम.चन्द्रा
लावा जावेद अख्तर का ग़ज़लों और नज़्मों का दूसरा संग्रह है, जो पहले संग्रह से लगभग 20 वर्ष बाद आया है। इन बीस वर्षों में पूरी दुनिया की तस्वीर बदल चुकी है और एक पीढ़ी जवान हो चुकी हैं। अब मनुष्य के सामने नई चुनौतियाँ, नये सवाल और नये विचार भी सामने आ चुके हैं। इन चुनौतियों का सामना यह ग़ज़ल संग्रह करता है।
इस संग्रह में 145 ग़ज़लें शामिल की गयी, जिसमें एक बात स्पष्ट नजर आती है कि लेखक ने उन विवादों को थाम दिया है जो कविता ग़ज़ल को लेकर होते रहें हैं। उन्होंने ये दिखा दिया है कि अपनी बात छंद मुक्त और छंद युक्त दोनों ही तरीके से कही जा सकती है। लेखक ने दोनों ही कला का बेहतर प्रयोग किया है।
किसी बात को कहने का जितना अच्छा तरीका और सलीका उनको आता है, शायद वही तरीका लिखने में दिखता है। जब व्यक्ति अंतर्मन के द्वंद्व में जकड़ा रहता है और वस्तु और विचार के उद्भव पर सोचता है तो जावेद अख्तर इसे इस प्रकार लिखते हैं-
“कोई ख़याल
और कोई भी जज़्बा
कोई शय हो
पहले-पहल आवाज़ मिली थी
या उसकी तस्वीर बनी थी
सोच रहा हूँ”
जावेद साहब अपने गहरे और विस्तृत चिंतन को प्रस्तुत करते हुए लिखतें है कि तमाम लोग भेड़-चाल या घिसे-पिटे रास्ते पर चलते रहते हैं, जिसे वो ठीक नहीं मानते।
“जिधर जाते हैं सब उधर जाना अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रास्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता”
आज पूरा समाज एक ख़ास तरह की चुप्पी या मौन साधे हुए है। बहुत से लोग गलत विचारों को सुनते है और आगे चल देते है। जावेद साहब की पैनी नज़र इस पर भी गयी है-
“ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना, हामी भर लेना
बहुत हैं फायदे इसके मगर अच्छा नहीं लगता”
भारत जैसे देश में जहाँ बहुआयामी सांस्कृतिक विरासत की बहुलता है। जिसे बहुत से लोगों ने अपनी जान देकर संजोकर रखने की कोशिश की है, वह आज टूटने की कगार पर है। दंगा-फसाद, साम्प्रदायिकता इत्यादि मनुष्यता का नाश करने में लगे हैं। वहीं अख्तर साहब की संवेदनशीलता कहती है-
“ये क्यों बाकी रहे आतिश-जनों, ये भला जला डालो
कि सब बेघर हो और मेरा हो घर, अच्छा नहीं लगता”
सम्बन्धों, रिश्ते-नातों में आज जो नये तरह के उलझाव पैदा हो गये हैं, उनको समझने का मौका जावेद साहब की ग़ज़ल में देखने को मिलता है कि अब गलती स्वीकार नहीं की जाती बल्कि थोपी जाती है-
“उठा के हाथों से तुमने छोड़ा, चलो न दानिस्ता तुमने तोड़ा
अब उलटा हमसे ये न पूछो कि शीशा ये पाश-पाश क्यों हैं”
जावेद साहब ने अपनी कलम उस खेल पर भी चलाई, जिसको बुद्धिजीवी वर्ग का खेल कहा जाता है। शतरंज। इस तरह उन्होंने कला, साहित्य और खेल को भी वर्गीय दृष्टि से देखा है-
“मैं सोचता हूँ
जो खेल है
इसमें इस तरह का उसूल क्यों है
कि कोई मोहरा रहे कि जाए
मगर जो है बादशाह
उस पर कभी कोई आंच भी न आए”
आँसू मनुष्य की जिन्दगी का बहुत ही संवेदनशील, हृदयस्पर्शी अहसास है, जो बहुत कम लोगों की समझ में आता है। जावेद साहब ने लिखा है-
“ये आँसू क्या इक गवाह है
मेरी दर्द-मंदी का मेरी इन्सान-दोस्ती का
मेरी ज़िन्दगी में ख़ुलूस की एक रौशनी का
जहाँ ख़यालों के शरह ज़िन्दा हैं
झूठे सच्चे सवाल करता
ये मेरी पलको तक आ गया है
इंसानी रिश्ते बहुत ही जज़बाती होते हैं। जुदाई, मिलन, स्नेह, क्रोध ये सब उन्हीं पर करते हैं, जिन्हें वे प्यार करते हैं या जिन पर यकीन करते हैं। यह नहीं तो कुछ नहीं-
“यकीन का अगर कोई भी सिलसिला नहीं रहा
तो शुक्र कीजिए कि अब कोई गिला नहीं रहा”
जावेद अख्तर ने उन लोगों को पहचान लिया था कि जो सबके साथ हैं और किसी के साथ नहीं। ऐसे लोग सिर्फ अपने स्वार्थ के साथ खड़े होते हैं-
“मुसाफिर वो अजब है कारवां में
कि हमराह हैं शामिल नहीं”
आज के दौर में अन्धविश्वास और आडम्बरों का पुनः उत्थान हो रहा है। पहले भी चार्वाक, बुद्ध, कबीर जैसे लोगों ने उस पर बहुत चोट की। जावेद साहब ने भी उसी परम्परा का निर्वाह किया है-
“तो कोई पूछे
जो मैं न समझा
तो कौन समझेगा
और जिसको कभी न कोई समझ सके
ऐसी बात तो फिर फ़ुज़ूल ठहरी”
जावेद अख्तर का नाम उन शायरों में ज़रूर गिना जायेगा, जब बात सितमगारों, चमनगारों की होगी। उन शायरों में भी गिनती होगी, जिसने अपनी शायरी के माध्यम से हुक्मरानों की आँखों में आँख डालकर सच को सच और न्याय को न्याय कहा-
“खून से सींची है मैंने जो मर-मर के
वो ज़मी एक सितमगर ने कहा उसकी है”
और इसी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि-
“वो चाहता है सब कहें सरकार तो बे-ऐब है
जो देख पाए ऐब वो हर आँख उसने फोड़ दी”
ऐसा नहीं है कि जावेद ने सिर्फ दूसरों पर ही लिखा। अपने बारे में, समय के बारे में, मानवीय व्यवहार के बदलते पैमाने पर भी उन्होंने लिखा है-
“गुज़र गया वक्त दिल पे लिखकर न जाने कैसी अजीब बातें
वरक पलता हूँ जो मैं दिल के तो सादगी अब कहीं नहीं”
आज का मनुष्य दुःख, आशंका, कड़वाहट, द्वेष, अजनबीयत और अलगाव का शिकार हो चुका है। तमाम एकता और संघर्ष के नारों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा-
“सच तो यह है
तुम अपनी दुनिया में जी रहे हो
मैं अपनी दुनिया में जी रहा हूँ”
प्रस्तुत संग्रह आवाज़ है उन लोगों की, जो सुनी नहीं जाती। यह आगाज़ है उन तरंगों का, जिनका अहसास बहुत दूर तक जाता है। यह सम्बोधन है अपने समय से कि वक्त सदा आगे बढ़ता है। यह ललकार है उनके लिए जो वक्त से आगे की सोचते हैं।
“न कोई इश्क है बाकी न कोई परचम है
लोग दीवाने भला किसके सबब हो जाएँ”
समीक्ष्य पुस्तक- लावा
रचनाकार- जावेद अख्तर
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
– एम.एम. चन्द्रा