कथा-कुसुम
लघुकथा- स्वार्थ का ताप
“अब क्या होगा! मेरे बच्चों को कौन संभालेगा?” पत्नी की मृत्यु को एक सप्ताह हो चुका था। नरेन गहरे शोक में था। दस साल के बेटे और बारह साल की बेटी का मुँह देखता तो शोक और सघन हो जाता। घर की दीवारों की कलई, रसोई के बर्तनों की खनक- सभी में उसे पत्नी की छवि दिखती।
“नरेन, सम्भालो खुद को। बच्चों को भी देखो।” पिता ने बेटे के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
“पिताजी, क्या संभालूं! सब खत्म हो गया, मेरे बच्चे कैसे पलेंगे?”
“बेटा, किसी के जाने से ज़िन्दगी नहीं रुकती। सब पल जाते हैं। तुम्हारी बहन के पति की मृत्यु हुई थी, मैंने बेटी व उसके बच्चों को यहाँ लाने की बात की थी।”
“हाँ, याद है पिताजी।”
“तुमने कहा था- जिसने चोंच दी है वो चुग्गा भी देगा। दीदी ससुराल में ही रहेंगी। पल ही गए उसके बच्चे।”
पिता के शब्दों के पीछे छिपे तंज को समझते हुए नरेन बोला- “आप मुझे ताना मार रहे हैं!”
“ताना नहीं मार रहा। तुम्हारे ही शब्द दोहरा रहा हूँ।”
“पिताजी, बच्चे तो पल जाएंगे। मेरा पहाड़-सा जीवन अकेले कैसे कटेगा?”
“जैसे मेरा कट रहा है!” पिता की शून्य से उभरी आवाज़ चमकी।
“माँ को गए तो दो साल ही हुए हैं। फिर माँ आपको वृद्धावस्था में छोड़ कर गयी। मैं और दीदी दोनों विवाहित थे। बाल-बच्चेदार। आपकी, उनकी सारी जिम्मेदारियां पूरी हो चुकीं थीं।”
“बेटा, यानी पत्नी की ज़रूरत जवानी में ही होती है! बच्चे यदि छोटे हों तो माँ चाहिए! बड़े, विवाहित हैं तो माँ की ज़रूरत नहीं होती!”
पिता के शब्द बाण मानो कमान से छूट कर तीव्र प्रहार कर रहे थे। नरेन अवाक-सा पिता को देख रहा था। वेदना से भरे बादल-से पिता बरसे- “बेटा तुम्हारी माँ के मरने पर मैं, ऐसे ही शोकाकुल था। तब तुम व तुम्हारी पत्नी मेरा उपहास उड़ाते हुए कहते थे- “बुढ़ापा आ गया अभी तक प्रेम कम न हुआ!”
ये बात मैंने तुम दोनों को कहते सुनी थी। यानी रिश्ते स्वार्थ के होते हैं! जिम्मेदारियां ही क्या रिश्ते हैं?”
पिता का न जाने कब का दबा दर्द छलक उठा।
नरेन ने उठकर पिता को गले लगा लिया। निज दुख की अग्नि में आज उसे पिता व बहन के ताप की जलन महसूस हुई।
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लघुकथा- दिखावे के बादल
“पापा, जब उन लोगों की कोई डिमांड नहीं तो आप क्यों ये सब दे रहे हैं? यदि डिमांड होती भी तो भी दहेज़ देना भी अपराध है।” पिता को दहेज जुटाते देख विनीत ने आश्चर्य से कहा।
“बेटा, समाज व उसके कुछ नियम भी होते हैं। समधी जी ने कुछ भले न माँगा, तो क्या मैं अपनी इकलौती बेटी को खाली हाथ विदा कर दूं?” रवि वर्मा ने सामाजिक रीतियों की दुहाई दी। आगे फिर वही समाज ……!!
“लोग क्या कहेंगे रिटायर्ड आई ए एस की बेटी और कंगालों की तरह शादी हुई!”
“पापा, आप इतने एजुकेटेड होकर कैसी बातें कर रहे हैं? हम जैसे लोग समाज को दिशा न देकर ग़लत काम करेंगे तो समाज कैसे सुधरेगा?” विनीत को घूरते हुए रवि वर्मा बोले- “चुप रहो! तुम्हारी कमाई से नहीं दे रहा। अपनी बेटी के लिए बहुत जोड़ रखा है।”
“क्या हुआ किस बात पर बाप-बेटा बहस कर रहे हो?” बेटी के साथ शादी की शॉपिंग करके आयी सुधा वर्मा ने कमरे में आते हुए कहा।
“बाहर बारिश हो रही है और अंदर इतनी गर्मी!” नेहा, जिसकी शादी है उसने माहौल के तनाव को देखकर कहा।
“तुम्हारे लाडले बेटे और भाई से बहन की खुशियां देखी नहीं जा रहीं।” रवि वर्मा ने सारा माजरा बयान किया।
“क्या भैया! पापा मुझे जो कुछ दे रहे हैं वो मेरा हक़ है। आप क्यों चिढ़ रहे हो?”
बहन नेहा की बात सुनकर विनीत पर मानो बिजली गिरी।
“मैं चिढ़ रहा हूँ! ये तुम कह रही हो! एक उच्च पद पर कार्यरत अधिकारी!” विनीत बोलते-बोलते रुका फिर बोला- “कहाँ गयीं वो तुम्हारी समाज सुधार की बड़ी बड़ी बातें!” उसने बहन पर तंज कसा।
“हाँ तो, कल पापा की सारी जायदाद भी आप लोगे। मुझे तो अभी जो मिल जाएगा वही है न। आदर्शवादी बनी तो आप सब हड़प लोगे।” नेहा की बात सुन विनीत जैसे आसमान से गिरा!
“तुम ऐसा सोचती हो। इतनी पढ़ाई ओर ऐसी सोच!” विनीत अपने वेल एजुकेटेड माता-पिता और बहन को देख रहा था। कुछ पल के मौन के बाद उसने कहा, “पापा, मुझे अपनी पढ़ाई पर गर्व है। आपकी दौलत व जायदाद से कुछ नहीं चाहिए।”
नेहा मौन थी। रवि वर्मा के चेहरे पर क्रोध की लकीरें थीं। सुधा बहुत तनाव में थी।
“खुद के बलबूते सब कुछ बनाऊंगा। विवाह में एक पैसा नहीं लूंगा।” विनीत सबके चेहरों के बदलते रंग देखकर बोला- “हाँ, अभी घर से जा रहा हूँ क्योंकि ये दिखावा व रिश्तों की सौदेबाजी नहीं देख सकता।”
सुधा ने बेटे को चुप कराने की कोशिश की पर विनीत शायद निर्णय ले चुका था। उसने वो निर्णय ज़ाहिर कर दिया।
“आप सबकी दिखावे की लालसा देख दम घुट रहा है। शादी में ज़रूर आऊंगा। भाई की सारी ज़िम्मेदारी निभाउंगा।” रवि वर्मा कुछ कहते इससे पहले विनीत घर से बाहर निकल गया।
आसमान में बादल छंट चुके थे। नया सूरज झाँक रहा था।
– डॉ. संगीता गाँधी