कथा-कुसुम
लघुकथा- सास भी कभी बहू थी
आज मोहिनी ख़ुद के बहू बनने से लेकर सास बनने तक के चुनौतीपूर्ण सफ़र में अब ख़ुद की पहचान पाकर ख़ुशियों से भर उठी है। उसे लगता है कि न जाने कितने युगों बाद वह जी उठी है। अब वह पुराने घुटन युक्त बन्धनों से मुक्त होकर खुली हवा में साँस लेने लगी है।
सगाई के वक्त सासू माँ का लाड-दुलार देखकर माँ-बाबू जी के साथ मोहिनी भी अभिभूत हो उठी थी। तब वह ख़ुशियों के पंख लगाकर ससुराल के सुन्दर सपनों को सँजोए अपनी कल्पना के आकाश में उड़ने लगी थी।
ब्याह के बाद सासू माँ के तीखे तेवर देखकर मोहिनी सिहर उठी थी। उसे नौकरानी का तो नहीं मगर घर के सदस्य का भी दर्जा नहीं मिला। विवाह के पूर्व प्रेम-पत्र लिखने वाले पति से भी अपनेपन की कोई उम्मीद न थी। वह ससुराल की रुढ़िवादी परम्पराओं में बँधी घुट-घुट कर जीने लगी।
इसी संघर्ष के साथ समय बीतता गया। अब मोहिनी के बेटे की बहू नेहा भी घर में ब्याह कर आ गयी। मोहिनी ने उसे अपने बेटों से भी बढकर प्यार दिया। उसने ठान लिया था कि जो दुःख उसने पाया, वह नेहा को नहीं होने देगी। नेहा ने भी आते ही मोहिनी को उबार लिया। मोहिनी उसकी सास नहीं मम्मा बन गयी थी।
नेहा ने मोहिनी की गायन में रूचि देखकर उसका फिर से गायन का रियाज़ शुरू करवा दिया। नेहा ने मोहिनी को कम्प्यूटर चलाना भी सिखा दिया। अपने ही युग में जी रही उम्रदराज़ होती मोहिनी की सासू माँ आज भी घूरती आँखों से उन पर अंगारे बरसाती रहती हैं।
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लघुकथा- मन वृन्दावन
आज दादा जी को इस बात का यक़ीन हो गया था कि भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं।
एक दिन देश की सीमा पर दुश्मनों से लड़ते हुए दादा जी के वीर बेटे के शहीद होने की ख़बर आ गयी। पूजा साधना में तन्मय रहने वाले दादा जी के ऊपर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा था। उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि जीवन के अंतिम पड़ाव पर ईश्वर इतनी कठिन परीक्षा लेगा। अब वह अपनी लम्बी आयु की कामना करने लगे थे। सबकुछ जानते हुए भी दादा जी प्रार्थना करते कि ईश्वर उनके बेटे को किसी भी तरह से वापिस भेज दे।
बुढ़ापे की उम्र में दादा जी के ऊपर बिन माँ के बच्चों की ज़िम्मेदारी आ पड़ी। चारों बच्चों में बड़ी बेटी शहर के बाहर डॉक्टरी पढ़ रही थी। दोनों नादान से बेटे पढ़ते-खेलते रहते। दस साल की छोटी बेटी घर में सब कुछ सँभालती थी। उसके खोते बचपन को देखकर दादा जी ख़ुद को अपराधी महसूस करते थे। मगर बुढ़ापे की क्षीण काया में इतनी जान नहीं थी कि वह उसकी मदद कर पाते।
एक रात किसी ने घर का दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा खोलते ही दादा जी ने देखा कि सामने उनका बेटा खड़ा है। दादा जी एक पल को चौंक गये कि, “मैंने तो अपने लापता बेटे की आत्मा की शांति के लिये उसकी तेरहीं व बरसी विधिवत कर दी थी … फिर..।”
मगर तभी उनके बेटे ने उन्हें अपने गले से लगा लिया। दादा जी फूट-फूट के रो पड़े। आज साल भर बाद पिता-पुत्र के आँसुओं का मिलन हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि मानो देवता अमृत बरसा रहे हों। दरअस्ल उनके बेटे के नाम का ही शहीद होने वाला वह वीर, किसी और का बेटा था।
अब दादा जी पुन: अपने मंदिर की ओर चल पड़े। उनका मन वृन्दावन हो उठा था।
– प्रेरणा गुप्ता