कथा-कुसुम
लघुकथा- सच्चा मित्र
“पापा मेरे फ्रेंडशिप बैंड लाये हो?”
“हाँ, ये लो।”
“पापा क्या आपके कोई भी फ्रेंड नहीं है?”
“क्यों?”
“आप पेड़ों को फ्रेंडशिप बैंड बाँधते हो।”
“क्योकिं पेड़ ही मेरे दोस्त हैं।”
“लेकिन वो तो आपके साथ खेल भी नहीं सकते, न ही बात कर सकते हैं!”
“चलो बगीचे में; मैं बताता हूँ।”
“जब मैं तुम्हारे बराबर था पापा के साथ यहाँ आया था। कोई दोस्त न होने से पापा बोले, पौधों को अपना दोस्त बनाओ।”
“फिर मैनें ये आम, जाम, नीम, जामुन के पेड़ लगाये।”
“ये सब आपने लगाये?”
“हाँ, रोज़ स्कूल से आकर इनकी देखभाल करता, पानी देता और ढेर सारी बातें करता।”
“पर ये तो बात नहीं करते!”
“पर सुनते तो हैं।”
“पापा गर्मी लग रही है।”
“चलो नीम के नीचे बैठते हैं।”
“वाह पापा! यहाँ तो अच्छी हवा आ रही है।”
“देखा! मेरे दोस्त ने सुन लिया कि तुम्हें गर्मी लग रही है। तभी तो शाखाएँ हवा करने लगीं।”
आश्चर्य से- “सच्ची!”
“मेरे साथ पेड़ भी बड़े होते गये। भूख लगने पर मीठे फल देते। गर्मी में छाँव और हवा देते।”
“जैसे अभी दी।”
“तेरे बचपन का पालना भी इन्हीं पेड़ों की लकड़ी से बना था और अभी झूलने के लिए पेड़ों पर ही झूला बना है।”
“वाह! ये तो बहुत अच्छे दोस्त हैं।”
“ये हमें शुद्ध हवा देते हैं और पक्षियों को बसेरा।”
“पापा मैं भी दोस्त बनाऊँगा।”
लघुकथा- कृतघ्न
“तुम लोग अपने लिए नया आसरा ढूँढ लो।” दुखी होते हुए नीम के पेड़ ने परिंदों से कहा।
“हम लोग पीढ़ियों से यहीं रह रहे हैं। आपसे दूर नहीं हो सकते।”
“लेकिन मेरे दिन अब पूरे होने वाले हैं।”
“क्यों आपकी उम्र तो लम्बी होती है? और अभी तो आप जवान हैं।”
“हमारा जीना-मरना इंसानों के हाथ में है। वे अपने फायदे-नुकसान के हिसाब से हमारा जीवन तय करते हैं।”
“आपको तो सब इस घर से बहुत प्यार मिला।”
“अब हमें प्यार करने वाले, हमारा उपयोग करने वाले ही इस दुनिया में नहीं हैं।”
“पर वे लोग आपको क्यों काटना चाहते हैं?”
“उन्हें घर छोटा पड़ने लगा है इसलिए विस्तार करना चाहते हैं।”
“दूसरी ओर से भी तो विस्तार किया जा सकता है!”
“वहाँ पर फलदार वृक्ष हैं। मैं उनके लिए अनुपयोगी हूँ।”
“फलदार नहीं तो क्या हुआ? हम जैसे कितनों को आप आश्रय देते हो और साथ ही शीतल छाँव भी।”
“पर आज इंसानों को मेरी छाँव नहीं चाहिए। उन्हें तो ए.सी. की हवा ही रास आती है।”
“आपका नाम तो औषधीय पौधों में आता है। आप तो औषधि की खान हो।”
“आज के विज्ञापन युग में बच्चों को मेरी दातून नहीं; टूथपेस्ट चाहिए। अब तो कोई मेरी पत्तियों और निबोलियों का उपयोग भी नहीं करता।”
“इसीलिए इनके दांत जल्दी ख़राब होते हैं।”
“मेरी तो हवा भी औषधि का काम करती है।” नीम ने लम्बी साँस लेते हुए कहा। “पर अब तो इंसान हवा को भी ज़हरीला बना रहा है।”
“क्या इंसानों को समझाया नहीं जा सकता?” परिंदों ने कहा।
“इंसान सबकुछ जानते हुए भी अनजान बना हुआ है, जिसका ख़ामियाजा नित नई-नई बीमारियों द्वारा भुगत भी रहा है।”
– मधु जैन