कथा-कुसुम
लघुकथा- विशुद्ध प्रेम
जेठ माह की गर्मी, सड़क किनारे खड़ा नीम का पेड़ भी सूर्य भगवान से कम तपिश की प्रार्थना कर रहा था। भरी दुपहरी में सड़क पर इक्का-दुक्का जीव ही दिख रहे थे। मानव तो पंखे, कूलर, ए.सी की ठंडक में त्राण पा रहा था पर पेड़-पौधे, जीव-जंतु अत्याधिक परेशान थे। ऐसे में नीम की जड़ें जो बाहर निकली थीं, ठीक उसके थोड़ा ऊपर तना थोड़ा-थोड़ा थरथराया। ऐसा लगा जैसे नरम हाथों की मुलायम उंगलियों की पोरो से कोई नामालूम तरीकें से उसे जकड़ रहा है। यह एहसास एक साथ ही आंनद और भय उत्पन्न कर रहा था।
पेड़ की डालो ने हरी-हरी पतियों के बीच में से झाँका तो एक टूटा हुआ मिट्टी का गमला, जिसमें मनी प्लांट की बेल लगी थी, कोई वहाँ पटक गया था। बेल अपनी नरम जड़ों से पेड़ के भीतर अवलंब पाने का प्रयास कर रही थी। बेल अपने अस्तित्व की रक्षार्थ विनम्रता से पेड़ को समर्पण की मुद्रा मे देख रही थी और पेड़ ने भी निमोली की बरखा करके संकेत दिया।
यूँ तो नीम की पतियाँ, निमोली, शाखाएँ कड़वी होती हैं पर हृदय मिठास से भरा होता है। कुछ ही सप्ताहों मे ही टूटे गमले की हद को तोड़कर बेल पेड़ से एकाकार हो गई। पेड़ के संरक्षण, प्रेम, विश्वास से परित्यक्त बेल सुंदर, मजबूत, उद्दर्वगामी हो फैलने लगी। नीम और मनीप्लान्ट के नवरूप को देखकर सभी प्रसन्न होते। प्रकृति ने भी वर्षा का उपहार दिया।
मानव चाहे कमज़ोर ,बीमार, अनुपयोगी समझ वस्तुओं को बाहर फैंक देता है पर विशुद्ध प्रेम की प्रतीक प्रकृति सदा बाँहें फैलाये, जीवों, वनस्पतियों को पोषित करती है। दोनों एक-दूसरे के स्नेहाशीष से अभिभूत थे।
लघुकथा- भूल सुधार
शर्मा जी अपने एरिया के प्रमुख थे। उन्हें प्रतिदिन इस बात का लेखा-जोखा रखना पडता था कि किस एरिया में कितने ऑक्सीजन सिलेंडरो का वितरण कब, कहाँ, कैसे करना है। आज भी रोज़ की तरह एक हाथ में चाय का कप, दूसरे में कलम लेकर काम कर रहे थे। अचानक दरवाज़े पर धड़ाधड़ की ध्वनि हुई। शर्मा जी बौखलाए कौन मूर्ख है, जिसे घंटी नहीं दिख रही। अ़दर से चिल्लाए, भई दरवाज़ा खुला है, आ जाओ पर कोई उत्तर नहीं। आवाज़ें और तेज़। गुस्से से बाहर आए तो दृश्य देखकर पैरों तले की ज़मीन खिसक गई।
सामने एक पीपल का पेड़ खडा था। हाथ जोड़कर बोला कृपया मुझे प्रतिदिन दो ऑक्सीजन सिलेंडर दे सकते हैं क्या? शर्मा जी ने अपने आपको चूयँटी काटी, जो वृक्ष स्वयं चौबीसों घंटे सब जीवों को ऑक्सीजन देता है, वह माँग रहा है। पेड़ ने कहा मैं ऑक्सीजन देता हूँ, नहीं पहले देता था क्योंकि लोगों ने मुझे इस काबिल भी नहीं छोडा। मैं अपने साथ सबूत लाया हूँ।
पीपल के शाखा रूपी हाथों पर सूखे फूलों की मालाएँ, अगरबत्ती की डंडिया, अधजली रूई की बतियाँ, टूटे दीपक, फटे कैलेंडर, पुरानी ईश्वर की मूर्तियाँ, बचा खुचा प्रसाद था। सबसे अजीब-सी गंध आ रही थी।शर्मा जी की नज़रें झुक गयीं। पीपल बोला, दिवाली से पहले तो मैं कचरा पात्र से बदतर बन जाता हूँ।
मेरे चबूतरे पर इतना प्लास्टिक का सामान है कि साँस लेना दूभर हो गया है।
आज दाता याचक बन दरवाज़े पर खडा है। शर्मा जी ने क्षमा माँगी और वचन दिया कि हम सब इस भूल को सुधारेंगे। प्रकृति के अकूत ऑक्सीजन भंडार को एवं देवतुल्य पीपल को स्वच्छ रखेंगे। संपूर्ण मानवजाति की ओर से पुनः क्षमा याचना की।
– डॉ. नीना छिब्बर