कथा-कुसुम
लघुकथा- वरमाला
हिन्दी उदास अपने कमरे में घुटनों पर सिर रखकर सोच रही थी। “आख़िर मुझमें क्या कमी है? सुन्दर हूँ, मृदु भाषी हूँ फिर भी मुझसे कोई विवाह नहीं करना चाहता!”
तभी मालवी के कमरे में प्रवेश से हिन्दी की विचार श्रृखंला टूटी। “ओह! मालवी तुम आ गई आओ बैठो।”
“क्या हिन्दी तुम अभी तक तैयार नहीं हुई। हिन्दी दिवस में चलना है जल्दी से तैयार हो जाओ। आओ मैं तुम्हें अलंकारों से सजा दूँ।”
“मालवी मुझे नहीं सजना है और न ही कहीं जाना है।”
“क्या हुआ हिन्दी क्यों नहीं चलना है?”
“मालवी मुझ जैसी अभागन को कोई नहीं पूछता है। विवाह के बाज़ार में मेरी कोई कीमत नहीं। सब के सब उस अंग्रेजन के पीछे भागते हैं। इन के लिए तो ‘घर की मुर्गी दाल बराबर है’।
“ऐसा नहीं है सखी! हर चमकीली वस्तु सोना नहीं होती। हिन्दी तुम उदास मत हो, कोई न कोई ज़रूर तुम्हारे गले में वरमाला पहनाकर तुम्हारा वरण करेगा और तुम उसकी प्रियतमा कहलाओगी।”
“मालवी ये सुनहरे सपने मत दिखाओ, हम सब एक ही नाव के यात्री हैं।”
ओहो! हम बातें ही करते रह गये और बुंदेली तो पार्लर से तैयार होकर भी आ गई।
“हे गाईस, तुम सब तैयार हो मराठी, अवधी भी आ रही हैं।”
मालवी बोली, “वाओ! बुंदेली आज तो ग़ज़ब ढा रही हो, क्या बात है?
“आज हिन्दी दिवस में सब तुम्हीं पर कविता पढ़ने वाले हैं।”
मालवी बोली, “बुंदेली माल तो तुम्हें हर बार मिलती है। इस बार शायद वरमाला मिल जाए।
“मालवी मैं तो चाहती हूँ आज हम सब के गले में वरमाला हो।
होहो हा हा हाहाआ…………..!
– अर्विना गहलोत