कथा-कुसुम
लघुकथा- मन का मैल
गुप्ता जी ने ठाकुर साहब से उनके बेटे के चाल-चलन की शिकायत क्या कर दी। उन्होंने तो बेटे से सच्चाई जाने बिना ही गुप्ता जी के साथ झगड़ना शुरू कर दिया। झगड़ा इतना बढ़ गया कि पुलिस बुलाने की नौबत आ गयी और उस दिन से दोनों परिवारों के बीच बैर की खाई खुद गयी थी।
कल ठाकुर साहब का पूरा परिवार देर रात तक लौट आने का कहकर एक विवाह समारोह में गया हुआ था। उनके वृद्ध पिता नौकर के साथ घर पर ही रह गये थे।
अन्धेरा होने को था। ठाकुर साहब के नौकर ने गुप्ता जी को जाकर बताया कि घर पर कोई नहीं है और बाबूजी को तेज दर्द हो रहा है। गुप्ता जी ने कुछ पल पिछले दिनों घटी घटना को याद किया तो मन कसैला हो गया। फिर दूसरे ही पल वो दिन याद आ गये, जब गुप्ता जी स्वयं बच्चे थे और बाबूजी पूरे मुहल्ले के बच्चों को इकट्ठा कर तरह-तरह के खेल खिलाते थे और जो भी खाने की चीज लाते थे, उसे सभी बच्चों में बांट देते थे। गुप्ता जी ने सिर झटका और बिना विलम्ब किये बाबूजी को हॉस्पिटल लेकर पंहुच गये।
कुछ समय बाद ठाकुर साहब का परिवार भी बदहवास हालत में वहां पहुंचा, तब डॉक्टर ने बताया कि यदि थोड़ी-सी भी देर हो जाती तो हम इन्हें बचा नहीं सकते थे। वो तो आपके ये रिश्तेदार इन्हें वक्त रहते यहां ले आये वरना…!
पलटकर देखा तो गुप्ता जी कैश काउन्टर पर भुगतान कर रहे थे। ठाकुर साहब की आंखे शर्म और ग्लानी से झुक गयीं थीं। क्षमा मांगना चाहते थे, पर चाह कर भी जबान ने नहीं, उनकी आंखों से ढुलकते उन आंसुओं ने दिल की बात कह दी थी, जो उनके मन के मैल को धोने का प्रयास कर रहे थे।
लघुकथा- नवजात
लता के विवाह को इक्कीस वर्ष गुजर गये थे, पर उसके जीवन की बगिया में एक फूल तो क्या कभी एक कली भी न बन सकी। लता इसे ईश्वर की इच्छा मानकर सन्तोष कर लेती। पति ने कई बार समझाया भी कि चलो कोई बच्चा गोद ले लेते हैं, पर लता ने साफ कह दिया कि वह किसी और के अंश को अपना प्यार नहीं दे सकती।
एक दिन बाजार से लौटते वक्त कूड़े के ढेर पर पॉलिथीन में कुछ हलचल-सी होती देख लता चौंक गयी। साहस बटोर कर उसे खोलकर देखा तो उसकी आंखें विस्मय से फटी की फटी रह गयीं। उसमें चन्द घन्टों पहले जन्मी एक नवजात बच्ची अपनी मौत से संघर्ष कर रही थी।
“हे भगवान! किस क्रूर माँ ने इसे ऐसे…!!!” सोचते हुए लता ने बच्ची को उठाकर सीने से लगा लिया।
स्पर्श पाकर वह अबोध भी शायद कुछ सुरक्षा महसूस करने लगी थी और लता के आंचल में मुंह खोलकर जैसे कुछ तलाशने लगी।
लता की दबी हुई ममता, धरती में सोये हुए पानी के स्रोत की तरह फूट कर बाहर आ गयी। गुलाब की पंखुडी से होंठ और मृगनयनी से नेत्रों को देखकर ‘किसी और के अंश’ का कुहासा पल भर में कोमल स्पर्श की ठंडी हवा के साथ उड़ गया। उसे लगा जैसे उसकी छाती में दूध उतर आया है।
लता बच्ची को लेकर चुपचाप घर चली आयी और उसी वक्त निश्चय कर लिया कि आज के बाद वो किसी नवजात को पॉलिथीन की भेंट नहीं चढ़ने देगी।
आज लता का घर ‘वात्सल्य वाटिका’ बन चुका है, जिसमें भांति-भांति के पुष्प अपनी छटा बिखेर रहे हैं। तभी बाहर रखे पालने की घन्टी बज उठती है।लता समझ गयी कि आज फिर कोई कली उसकी बगिया को महकाने आयी है।
– सुनीता त्यागी