कथा-कुसुम
लघुकथा- प्रेम
वह लगभग भागता हुआ अपने बीमार पिता के पलंग की तरफ जाने लगा। लोगों के बीच से गुज़रते समय उसने एक फुसफुसाहट सुनी, “देखो! अब आया है विदेश से, बाप से ज़्यादा रुपये ज़रूरी हैं इनके लिये।”
वह अनसुनी कर आगे बढ़ा, देखा कि पलंग पर लेटे हुए उसके पिता अब क्षीणकाय हो चुके थे। दस वर्षों में उनके चेहरे की झुर्रियाँ बहुत बढ़ गयी थीं, उनकी पीली पड़ी आखों में पुतलियाँ डूब रही थीं। उसने वहीँ खड़े चिकित्सक की तरफ देखा। चिकित्सक ने ना की मुद्रा में सिर हिला दिया।
उसकी आँखों से आँसू छलक आये। वह पलंग पर बैठा और उसने अपने पिता का हाथ अपने हाथों में ले लिया। उसके पिता के पतले और नर्म हाथों में आज भी उस चोट के निशान दिखाई दे रहे थे, जब वो उसके महाविद्यालय से अंतिम चेतावनी मिलने पर उसका शुल्क जमा करवाने जाते समय सीढ़ियों से फिसल गए थे। उसने अपने पिता की तरफ देख कर कहा, “पापा, आपको कुछ नहीं होगा…।”
उसके पिता उसे देखकर हल्के से मुस्कुरा दिये, अपने सिर से इशारा कर उसे अपनी तरफ बुलाया, वह झुका तो पिता ने मंद स्वर में कहा, “एक बार अपनी गोद का सिराहना दे दे।”
उसने अपने पिता का सिर बहुत ध्यान से अपनी गोद में रख दिया। उसके पिता एक बार फिर मुस्कुरा दिये। इस बार मुस्कुराहट ज़्यादा गहरी थी। उनके चेहरे पर संतोष के भाव आये और गहरी साँस लेकर उन्होंने आँखें हमेशा के लिए मूँद लीं।
वह अपने पिता के चेहरे से नज़रें नहीं हटा पाया। कुछ क्षणों तक देखने के बाद उसे एकाएक याद आया कि उसके पिता पहली बार उसकी गोद में लेटे थे और वह न जाने कितनी बार।
– चंद्रेश कुमार छतलानी