कथा-कुसुम
लघुकथा- प्राकृतिक अनुराग
झरने के किनारे बैठी शुभि आसमानों में बन रही आकृति को निहार रही थी। प्रकृति से प्रेम उसका बचपन से ही रहा है। उड़ते हुए परिंदे ,गाती हुई नदियाँ, बहते हुए झरने, पर्वत, बादल मानो उसका परिवार हो।
“ओ मेडम!” पीछे से राजीव का स्वर।
“कहाँ खोई हो, चलो मुझे तुमसे ज़रूरी कुछ बात करनी है।”
“क्या बात है?” शुभि ने कहा।
“मेरे पापा का ट्रांसफर दिल्ली हो गया, हम वहीं शिफ्ट होने वाले हैं। तुम बोलो तो शादी की बात करूँ। तुम भी हमारे साथ चलना।” राजीव ने कहा।
“नहीं राजीव, मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकती। तुम अपने भविष्य पर ध्यान दो, मेरे लिये तो उत्तरांचल की ये वादियाँ ही सबकुछ हैं। जितनी करीब मैं इनकी हूँ उतना तो शायद किसी के भी नहीं हो सकती। तुमने शायद मेरी दोस्ती को प्यार समझ लिया। इन वादियों में एक गहरी अनुभूति छिपी है, जिसे शायद तुम नहीं समझ सकते। तुम शायद इसे निर्जीव वस्तु मानते हो, पर इनके गहरे रंगों को मैंने पहचाना है, ये रंग ही तो आंतरिक अनुभूति जगाते हैं।”
शुभि एक शांत सागर-सी दिखाई दे रही थी और राजीव अपलक उसे निहार रहा था।
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लघुकथा- अजनबी देह
रोज़ सुबह की तरह मेहता जी आज भी सैर पर जाने को तैयार थे। अभी थोड़े ही दिनों पहले डॉक्टर ने उनकी शुगर के बारे में उनको बताया, तभी से वो रोज़ सैर पर जाने लगे थे। सीधे सरल व्यक्तित्व के मेहता जी सभी के भले के लिये तत्पर रहते।
घर से कुछ ही दूरी पर उनके पैर लड़खड़ाए, उन्होंने अपने आप को संभाला। कुछ दूर आगे जाने पर एक ज़ोरदार झटके ने उनके प्राणों को हर लिया। एकदम मृत्यु से साक्षात्कार हो जायेगा किसी ने नहीं सोचा था, स्वयं मेहता जी भी अचरज में थे।
सफेद वस्त्र से लिपटा हुआ शरीर, रोते बिलखते परिजन, सब नेत्रों के सामने था, दूर हुए थे तो बस ये ही। मेहता जी अपनी बेटी से बात करना चाह रहे थे, अपने शरीर में जाना चाह रहे थे पर कुछ भी प्रतिक्रया व्यक्त करने में असमर्थ थे। कुछ बातें जो वे करना चाहते थे, कुछ ऐसे काम जो पूरे नहीं हो सके उनको अंजाम तक भी पहुँचाना चाहते थे। स्वयं की देह के समक्ष मेहताजी को अजनबी के समान अनुभूति ने घेर लिया, सोचने लगे जिस तन के सहारे मैंने अपने जीवन में कई कार्यों को अंजाम दिया, आज वही देह और आत्मा एक-दूसरे से अनजान थे।
– डॉ.रुपाली भारद्वाज