कथा-कुसुम
लघुकथा : प्रतिशोध की आग
पुराने बरगद की खोह में बैठा बूढ़ा चमगादड़ अपने बच्चों को लोरियों की जगह आपबीती और
अनुभव की बातें सुना ही रहा था कि एक जहाज पेड़ के ऊपर से गुर्राते हुए निकला | “देखो
देखो , इंसान उड़ रहा है | उसी प्रकार हमारे रंग-रूपों में भी अंतर होता जा रहा है | जानते हो
क्यों ? क्योंकि सभ्यता हमारे तन-मन को परमार्जित कर देती है | लेकिन इसका मतलब ये
नहीं कि हम पथभ्रष्ट हो जायें और फल-फूल, कीट-पतंगो की जगह इंसानों को खाने लगें | ये
बात तुम सबको हमेशा याद रखनी होगी |” लोरियों की मधुर स्निग्धता में खोई, खोह में एक
कोने से फुफकारने की आव़ाज आने लगी जैसे कोई अतिक्रोध में भरकर नाक से गरम हवाएँ
फेंक रहा हो |
“कौन है उधर ? जिसका ठंडा मन, क्रोध की आग में जल उठा है |”बूढ़े चमगादड़ ने नजरें
उठाकर इधर-उधर देखा तो अपनी अगली पीढ़ी के एक बच्चे को मुट्ठियों को भींचे, दाँत पीसते
हुए देखा | “क्या हुआ मेरे प्यारे ? तुम, ऐसे तो कभी नहीं थे |”
“दद्दू ! मत पूछो ? मुझे आपकी बातों से घुटन होने लगी है | तंग आ गया हूँ आपकी उदारता और सहनशीलता को देखते-देखते | आज मुझे आधा-अधूरा नहीं पूरा सच सुनना है |
जब संसार में सभी का कुनबा दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है तो हम क्यों सिमटे जा रहे हैं?”
बच्चे की कातर और ललकार भरी आव़ाज सुन, बूढ़ा चमगादड़ अपने मन के घावों को छिपा
न सका और जंगल से सटे शहर में हो रहे, अपनी प्रजाति पर अत्याचारों की एक-एक व्यथा
उसको सुना डाली |
सुनते ही उसकी हड्डियाँ चटखने लगीं | आँखों से आक्रोश का झरना फूट पड़ा और उसी
ज्वाला में उसके मरे हुए छोटे-बड़े भाई-बहनों की छवियों और आर्तनाद से पूरी खोह गूँज उठी
| अनर्थ के भय से थर्राए बूढ़े ने उसे रोकना चाहा, लेकिन उसने, बदले की भावना से भरे
अपने मजबूत पंख फड़फड़ाये और शहर की ओर उड़ चला |
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लघुकथा : उड़ने का अभिनय
ऑफिस अब सब्जेक्ट टू मार्केट नहीं, सब्जेक्ट टू होम बन चुका था | कनिका की शिकायतें
कोरेंटीन हुईं तब से चाय के प्लाये टूटने पर, बेटियों को होमवर्क, कुत्ते को घुमाने, डस्टिंग-
मोपिंग, सब्ज़ी काटने, कूड़ा फैंकने जैसे मुद्दों पर पति से माथापच्ची करने लगी थीं |
आज सुबह से दोनों पति-पत्नी अपना-अपना ऑफिस खोले, वर्क-मोर्चे पर डटे थे और बेटियाँ
पढ़ाई पर | घर शान्ति के कब्ज़े में था लेकिन शन्ति के दामन पर टपकतीं आरो की बूँदें
नगाड़े पर चोट-सी पड़ रही थीं | तंग आकर पति ने आदेश दिया-“ कनिका अपने आरो को
शांत कराओ, नहीं तो मैं इसे अभी फेंक दूँगा |”
“नहीं नहीं कुंदन प्यारे, प्यासे मर जायेंगे…|” कहते हुए पति के आदेश को उसने मोड़कर
बच्चों की ओर उछाल दिया | वह सीधा बड़ी बेटी की किताब पर औंधे मुँह गिरा जाकर |
अचानक हुए धमाके से पहले तो वह डरी लेकिन तुरंत ही उसने माँ के आदेश को कनू की
ओर फेंक दिया | कनू तक आते-आते आदेश गेंद की तरह गोल बन चुका था इसलिए कनू ने
रंग सनी तूलिका घुमा, छक्का लगा दिया और हिप-हिप हुर्रे कर नाच उठी | कविता से बहन
की ख़ुशी हजम नहीं हुई तो उसने उसकी चोटी खींचते हुए कहा-“मैडम कनू किशोर ज्यादा
खुशियाँ मत मना, तू आउट हो चुकी हैं | अब जा, महारानी कविता किशोर के आदेश का पालन
कर |”
इधर जब बहुत देर तक बच्चे नहीं बोले तो कनिका ने आव़ाज लगाई-“क्या हुआ कविता, सुना
नहीं, पापा क्या कह रहे हैं ?”
“शायद बहनों में तू जा मैं जा के झगड़े शुरू हो चुके हैं | चलो निपटाते हैं |” कनिका ने पति
से कहा | पति का काम भोई हल्का हो चुका था तो उसने भी हाँ किया और दोनों बच्चों की
ओर चल पड़े |
“आइये पापा जी! कनू जा रही है अभी….|” बड़ी बेटी ने कॉपी-किताबें ठीक करते हुए पिता के
बैठने की जगह बनाई |
“हाँ हाँ ठीक है बेटा ! आप क्या पापा को कॉफ़ी पिलाओगी ?”
“जी पापा, आप बैठिए, हम अभी लाते हैं |” कविता कहते हुए किचन की ओर चली गई |
कुंदन ने फ्रंट विंडो खोलते हुए पत्नी से कहा-“ देखो न कनिका, जो तितलियाँ कभी सहमीं-
सहमीं रहती थीं आज वे आज़ादी की उड़ान भर रही हैं |कितना सुनहरा दिन है |”
कनिका कुछ कह पाती उसके पहले उसकी लाड़ली बेटी कनू बोल पड़ी- “पापा जी ये तितलियाँ
नहीं उनके सपने भर हैं, वे तो अभी भी कैद में ही हैं |” कुंदन का पूरा ध्यान बेटी की बात पर
टिक गया|
“हाँ, पापा जी, कनू सही कह रही है | तितलियों को आज़ाद कराने के लिए कोरोना को एक
नहीं, कई जन्म और लेने पड़ेंगे |” दोनों बहनें अपने हाथों को फैलाकर तितलियों की तरह
उड़ने का अभिनय करने लगीं |
– कल्पना ‘मनोरमा’