लघुकथा- दो घूँट चाय
“भैया, एक चाय मुझे भी, ये लो पैसे।” बस में बैठे हुए मैने कहा, और अपने गर्म शॉल से हाथ निकालते हुए पैसे उस लड़के को थमा दिए। लड़का झट से मुझे कुल्हड़ में गरमा-गरम अदरक वाली चाय और बचे हुए पैसे देकर चला गया। दिसम्बर का महीना और कड़ाकेदार ठंड, सुबह के छः बजे थे, सूर्य देवता ने अभी दर्शन भी नहीं दिए थे। ऐसे में गरमा-गरम चाय गले को बहुत ही सुहा रही थी। मैं अपने आप को पूरी तरह से शॉल में ढककर, चाय की चुस्कियाँ ले रही थी।
तभी खिड़की से बाहर देखती हूँ कि नौ-दस साल का बच्चा, ना पैरों में चप्पल, ना सिर पर टोपी, आधे से कपड़ों में, ठिठुरता हुआ, अपने नन्हे-नन्हे हाथों से ठंडी बालू रेत से बर्तन माँज रहा है और होटल का मालिक उसे डाँट रहा है, “जल्दी-जल्दी हाथ चला, दुफरि यहीं करेगा क्या? और काम भी तो है।” लड़का चुपचाप नीचे मुँह किए अपना काम करता रहा, थोड़ी देर में नज़रें उठाता है और मुझसे नज़रें मिलते ही बच्चा मुस्कुरा दिया, उसे देख ऐसा लगा मानो किसी ने मेरे हाथ में बर्फ थमा दी हो। कुल्हड़ में बची दो घूँट चाय मैं गले के नीचे नहीं उतार पाई। बस रवाना हो गयी। उस मासूम का चेहरा मेरी नज़रों के सामने घूमता रहा। मैं सोचती रही, “क्या यही है बचपन, हमारे देश का भविष्य?”
– रोचिका शर्मा