कथा-कुसुम
लघुकथा- दुआएँ
हे सखी! जल्दी-जल्दी लंच पैकेट तैयार करो, न जाने कब के भूखे-प्यासे होंगे बेचारे! टी.वी पर देखा है मैंने, उनके साथ छोटे-छोटे बच्चे और महिलाएँ भी हैं। अब तक हम लोग उनका दिया खाए हैं। आज संकट की घड़ी में अगर हम उनके लिए कुछ पर पायें तो यह हमारा सौभाग्य होगा। जौनपुर की काजल किन्नर अपने किन्नर साथियों से कह रही थी।
सुमन- “पर वे अगर हमारा दिया न खाएँ तो? पता नहीं, इसमें कौन हिन्दू है कौन मुस्लिम!”
सपना- “और तो और वे हमें हिजड़ा, छ्क्का, खोझा आदि कहकर भगाने लगे तो?”
काजल- “भूखा पेट जाति-धरम नहीं देखता। जाति-धरम, दंगे-फसाद भरे पेट सुझाते हैं और रही बात चिढ़ाने की तो तुम सबको पता होगा कि ‘भुखे भजन न होहिं गोपाला।’”
वे लोग फटाफट मास्क, ग्लव्ज़ आदि लगाकर तैयार होकर ठेले पर सामान रखकर वाराणसी के हाइवे पर आ गये।
आने-जाने वालों को लंच पैकेट और पानी की बोतलें देते।
पहले ये लोगों को दुआएँ देते थे। आज लोग इन्हें दुआएँ दे रहे हैं।
– डॉ. अरुण कुमार निषाद