कथा-कुसुम
लघुकथा- डर
“और फिर चिड़िया खुले आसमान में उड़ गयी….” माँ ने कहानी ख़त्म करते हुए कहा।
“बहुत ऊपर?” भोली आँखों में जानने की उत्सुकता थी।
“हाँ, बहुत ही ऊपर। बादलों के पास तक।”
“उसे डर नहीं लगा?”
“डर!” एकदम से माँ का दिल कांप उठा, फिर ख़ुद की भावनाओं को काबू कर बोली, “जहाँ आज़ादी हो, वहाँ डर कैसा?”
“बाज का, चील का और बड़े-बड़े पक्षियों का।”
“नहीं री, असली डर तो चिड़े से था।” माँ जैसे मुँह में ही बुदबुदाई।
“चिड़े से कैसा डर माँ?” भोली आँखों में हैरानी के भाव आये।
“एक दिन तू भी समझ जाएगी।” माँ ने उसे अपने अंक में भरते हुए कहा।
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लघुकथा- कलयुग
“बधाई हो अम्मा, मामाजी के यहाँ पोता हुआ है।” बड़ी बहु ने फोन पर आई ख़ुश-ख़बरी अम्मा को सुनायी।
“अरे ये तो बहुत बढ़िया ख़बर सुनायी तूने बहु, कल सुबह मुझे उनके घर ले चलना, पोते को देख आऊंगी।”
“अरे घर नहीं अम्मा, अस्पताल जाना पड़ेगा, बड़े ऑपरेशन से हुआ है बच्चा।”
“हमारे ज़माने में तो घर में ही बच्चे पैदा हो जाते थे। कभी सुना भी नहीं था इन बड़े ऑपरेशन के बारे में! अब तो हर दूसरा बच्चा ही सुनो तो ऑपरेशन से पैदा हो रहा है, जाने कैसा कलयुग आ गया है।” अम्मा बुदबुदाने लगी।
“लेकिन दादी!” कॉलेज पढ़ती रीता बोल उठी, “क्या आपने अब ये सुना कभी कि कोई औरत बच्चा जनते वक़्त मर गयी या कोई बच्चा पैदा होते ही मर गया, जैसी ख़बरें उस ज़माने में आम बात होती थी। उन सब बे-मौत मरने वाली माँ और बच्चों को इस बड़े आपरेशन की ही ज़रूरत थी, इसलिए कलयुग नहीं, सतयुग बोलिए दादी।”
निरुत्तर दादी फिर से कलयुग और सतयुग की परिभाषा के बारे में सोचने लगी।
– हरदीप सबरवाल