कथा-कुसुम
लघुकथा- गांधी जी के बन्दर
सुबह से मृणाल की तबीयत अनमनी-सी थी। मना करने पर भी श्रेष्ठ नहीं माना और उसे डॉक्टर को दिखाने के लिये अपने साथ कार में लेकर निकल पड़ा। बेटे का दुलार देखकर उसके चेहरे पर प्यार भरी एक स्मित मुस्कान बिखर आई, “ईश्वर! ऐसी संतान हर माँ को दे।”
वह सोच ही रही थी कि अचानक तेज झटके के साथ कार रुक गयी। वह खुद को सम्हालती, उसके पहले ही श्रेष्ठ कार से उतरकर बीच सड़क पर जा पहुँचा। कलेजा तेजी से धुक-धुक करने लगा, “हे भगवान!”
“अबे स्साले! अंधा है क्या? सड़क अपने बाप की समझ रखी है?”
देखा तो वह एक रिक्शेवाले से उलझ रहा था। रिक्शेवाला भी दांत निपोरते हुए बोला, “तो क्या तेरे बाप की है। तू भी तो देख के चला सकता था।”
तू-तू मैं-मैं बढने लगी।
“अच्छा तो ज़ुबान लड़ाता है। माँ… बहन … अभी मैं तेरी ऐसी की तैसी करता हूँ।”
मृणाल चीख पड़ी, “नहीं श्रेष्ठ, रुक जाओ। हाथ भी मत लगाना उसे। उसे रोकने के लिए वह भी कार से उतर पड़ी।
भीड़ एकत्र होने लगी। यातायात भी रुक गया।
“वह उसका हाथ खींचती हुई उसे कार तक ले आई, “पागल हो गये हो क्या?”
“तुम न होती तो इसकी हड्डी-पसली एक कर देता। गुस्से से बोलता हुआ वह ड्राइविंग सीट पर जा बैठा।
“आओ, जल्दी आकर बैठो।”
“नहीं! अब मुझे तेरी कार में नहीं बैठना। अच्छा ही हुआ भगवान ने तुझे बहन नहीं दी। वरना…!!”
“तुम भी न माँ…!!”
“मुझे पता ही नहीं चला कि गांधी जी के तीन बंदरों वाली कहानी सुनने वाला मेरा बेटा न जाने कब और कहाँ खो गया?” कहते-कहते उसकी आवाज़ भर्रा गई।
“ओह माँ! तमाशा मत बनाओ।”
“तमाशा तो तूने मेरा बनाया है। जिस दिन तू ‘माँ’ शब्द की इज़्ज़त करना सीख जायेगा, उस दिन मुझे माँ कहकर पुकारना।” कहती हुई वह तेज क़दमों से आगे बढ़ गयी।
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लघुकथा- मृगतृष्णा
दो दिन में ही नीतू ने गीतांजलि का मन मोह लिया था। हँसती तो मानो फूल झड़ते। अत्यंत आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी और कहाँ उसका पति सुमित! ऐसी पत्नी पाकर तो उसके भाग्य खुल गये।
आज नीतू वापिस जा रही थी। गीतांजलि उसके साथ उसे छोड़ने स्टेशन के लिए रवाना हो गयी। कार ड्राइव करते हुए वह उससे बातें भी करती जा रही थी।
“नीतू, तुम्हारे साथ दो दिन ऐसे बीते कि पता भी न चला। मालुम है, तुम्हारा जब फोन आया था कि तुम मुझसे मिलने आ रही हो तो मैं असमंजस में पड़ गई थी। “हे भगवान! ये मेरे पास क्यों आ रही है? हमारी तो ज्यादा मुलाक़ात भी नहीं है। वैसे भी मैं तुम्हारी दूर की जिठानी लगती हूँ।”
नीतू खिलखिला पड़ी। “भाभी, ये सब मैं नहीं जानती। हमारा तो सिर्फ प्यार का रिश्ता है। फिर मैं आपको जी भर के देखना भी चाहती थी। कहकर वो चुप हो गयी।
“जी भर कर मुझे देखना…? समझी नहीं मैं।”
वह चुप थी। उसकी चुप्पी गीतांजलि को रहस्यमयी-सी लगने लगी। उसका अंर्तमन उसे कुरेदने लगा था। मगर वह स्टीयरिंग सम्हालने में लगी थी।
“नीतू, तुम कुछ कह रही थी न?”
“लीजिये भाभी, स्टेशन भी आ गया।”
कुली के साथ दोनों भागती हुई प्लेटफ़ॉर्म पर पहुंच गईं। ट्रेन आ चुकी थी। सामान जँचाकर नीतू जैसे ही अपनी बर्थ पर बैठी। सिग्नल ग्रीन हो गया।
“अच्छा नीतू! पहुँचकर फोन करना और सुमित को मेरा स्नेह बोलना।” कहते हुए गीतांजलि ने नीतू का हाथ अपने हाथ में ले लिया।
उसने भी कसकर उसका हाथ थाम लिया और प्यार भरी निगाहों से देखते हुए बोली, “आपका नाम सुनकर वो खुश हो जायेंगे।…आप जानना चाहती थीं न कि मैं आपको जी भरकर क्यों देखना चाहती थी? क्योंकि …।” कहते-कहते उसका गला रुंध गया।
“हाँ-हाँ बोलो …।”
वह भर्राई हुई आवाज में बोली, “आपको नहीं मालूम, मैं जब से शादी होकर आई हूँ, सुमित के दिलो-दिमाग में बस आप…। वो आपको चाहते हैं, मुझे नहीं।”
सुनते ही गीतांजलि ने झट से अपना हाथ अपनी ओर खींच लिया, मानो उसे बड़ी ज़ोर से करंट मार गया था। ट्रेन जा चुकी थी, मगर वह जहाँ के तहाँ खड़ी रह गयी।
– प्रेरणा गुप्ता