कथा-कुसुम
लघुकथा- कल की आहट
पहाड़ों से उतरती हवा लहराती-बलखाती, मैदानी इलाकों की ओर चली आ रही थी। वहाँ पहुँचकर अपने प्रिय वृक्ष अशोक को उदासी में डूबा देख, वह ठिठक गयी। उसके पत्तों को छूकर बोली, “हे अशोक! ये क्या हाल बना रखा है तुमने? जबकि तुम ख़ुशहाली और समृद्धता के प्रतीक हो!”
अशोक के वृक्ष ने एक गहरी साँस ली और बोला, “तुम यहाँ का नज़ारा देख रही हो?”
“हाँ, कभी यहाँ चारों तरफ़ हरियाली छाई रहती थी, आते ही मन प्रसन्न हो जाता था। लेकिन आज न तो चिड़ियों की चहचहाहट है, न ही बच्चों की किलकारियाँ। कहाँ चले गये वे सभी बड़े-बुज़ुर्ग, जो तुम्हारी छाँव में बैठकर भजन-कीर्तन किया करते थे?”
“मुझे तो डर है, किसी दिन ये नन्हीं गिलहरियाँ भी मेरा साथ न छोड़ दें।”
हवा भी चिंतित हो उठी, “तुम ठीक कहते हो, उधर जंगलों के स्वभाव भी अब बदल गये हैं। पहाड़ों पर वृक्षों ने भी दूषित हवाओं को सोखना कम कर दिया है।”
“चारों तरफ प्रदूषण जो फैल गया है, उधर बच्चे, बुड्ढे और जवान सभी अपनी चारदीवारी में कैद, आभासी दुनिया में विचरण कर रहे हैं।”
“सच कहूँ तो अब मेरा दम भी घुटने लगा है। आने वाले समय में न जाने क्या होगा प्रकृति का?”
“इन सबके लिए जिम्मेदार भी तो सिर्फ इंसान ही है। देखना, वो वक़्त दूर नहीं, जब धरती पर इंसान ऑक्सीजन सिलेंडर लगाए नज़र आएगा।”
“नहीं-नहीं, ऐसा मत कहो, तुम सिर्फ दुआ दो! सिर्फ दुआ दो!”
हवा तेजी से लहराई ही थी कि अचानक मेरी आँखें खुल गयीं। मेरा दम घुट रहा था, मैंने जल्दी से उठकर खिड़की खोल दी और सुबह होने का इंतज़ार करने लगी।
************************************
लघुकथा – गंतव्य की ओर
सुबह उठकर बहू जैसे ही माँजी के पास गयी। अधमुंदी पलकों से उसे देखती, वह धीरे से बोल पड़ीं, “बहू, आज दस दिन हो गये मुझे बिस्तर पर पड़े। ये तो बताओ कि आख़िर मुझे हुआ क्या है? डाॅक्टर ने तो कहा था कि मैं बिलकुल ठीक हूँ!”
गहरी साँस लेते हुए उसके गले से सिर्फ इतना ही निकल पाया, “कुछ सोचिए मत माँजी। देखिएगा, आप बहुत जल्दी ठीक हो जाएँगी।” भला उनसे वह कैसे कहती कि डाॅक्टर ने तो! अब प्रार्थना के सिवा उसे और कुछ भी नहीं सूझ रहा था।
उनकी साफ-सफाई करके, उन्हें तैयार करके, वह उनके लिए चाय और बिस्किट लेकर आयी, किन्तु उन्होंने लेने से इंकार कर दिया।
“अब आपकी ज़िद थोड़ी न चलेगी! थोड़ा ही सही, लेना तो पड़ेगा ही। वर्ना ख़ाली पेट दवाएँ कैसे दी जाएँगी?”
चाय में बिस्कुट घोल कर ज़बरदस्ती किसी तरह उन्हें पिलाकर, दवाइयाँ देने के बाद, उन्हें लिटाकर वह जैसे ही जाने को हुई कि माँजी ने उसका हाथ थाम लिया। “बस तुम मेरे पास बैठी रहो, जी बहुत घबरा रहा है।”
देखते ही देखते, उनकी बेचैनी बढ़ने लगी। कभी इस करवट तो कभी उस करवट लिटाने को कहतीं। घर के बाक़ी सदस्य भी उनके पास आ गये। व्याकुल नज़रों से वह सबकी ओर देखने लगीं। उनकी तड़पन बढ़ती देख, बहू ने सबको वहाँ से जाने के लिए कह दिया।
तभी आसमान से हवाई जहाज के उड़ने की आवाज़ सुनायी दी। बहू को वो वाक़िया याद हो आया, जब उसका बेटा छोटा था और पेट दर्द के कारण रोया जा रहा था, तब माँजी ने उसका ध्यान बँटाने के लिए आसमान की ओर इशारा करते हुए कहा था, “देख बिट्टू! वो हवाई जहाज जा रहा है। देखना, एक दिन हम सब भी इसी हवाई जहाज में घूमने चलेंगे। बिट्टू देर तक बादलों के उस पार जाते हुए हवाई जहाज को देखता हुआ सो गया था। तब माँजी ने आँखों ही आँखों में मुस्कुरा कर उससे कहा था, “देखा, इसे कहते हैं युक्ति!”
वह भी माँजी का माथा थपकते हुए बोल पड़ी, “देखिए माँजी, आसमान में बादलों के बीच, भगवान जी फूलों से सजे विमान में सवार होकर आ रहे हैं आपको लेने। चलिए, जल्दी से तैयार तो हो जाइए। देर न कीजिए, खोल दीजिए अब ये सारे मोह के बंधन।”
उनकी बेचैन पुतलियों में अब सहजता व्यापने लगी थी। मानो वह अपने नेत्र-पटल पर पुष्प विमान पर सवार आते भगवान के स्वागत में जुट गयी थीं।
“ये लो, आ भी गया। अहा! कितना सुंदर है फूलों से सजा ये विमान, अरे अब चढने के लिए उस पर अपना पाँव भी तो धरिए!”
उनके माथे को सहलाती बहू की हथेलियाँ पसीने से चटचटाने लगीं, शायद उनके रक्तचाप का स्तर धराशायी हुआ जा रहा था।
एकाएक समय जैसे ठहर गया। बहू की सिसकियों के साथ अब वातावरण में सिर्फ़ घड़ी की टिकटिक सुनाई पड़ रही थी।
– प्रेरणा गुप्ता